समझ में अंतर से उत्पन्न होते न्यायिक दुरुपयोग के अवसर

  • सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों द्वारा हाल में दिए गए फैसलों के बाद देश के पंचाटों द्वारा आर्थिक मामलों में किए जाने वाले न्याय के परिदृश्य में बदलाव आ सकता है। या फिर शायद ऐसा तब तक नहीं हो जब तक कि भविष्य में कोई कानूनी वाद इस फैसले के एक और उल्लंघन के विरुद्ध प्रस्तुत न हो। उक्त पीठ वित्त अधिनियम 2017 के प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर विचार कर रहा था। इस अधिनियम ने विभिन्न विधानों के अधीन गठित होने वाले पंचाटों के घटक और उनकी नियुक्ति की शर्तों में परिवर्तन कर दिया। उक्त विधान को धन विधेयक के रूप में पारित किया गया।
  • तमाम अन्य विधान जिन्हें संसद के दोनों सदनों से पारित कर कानून बनाया गया था, उन्हें वित्त अधिनियम 2017 में संशोधन के माध्यम से संशोधित करने का प्रयास किया गया। वित्त अधिनियम बतौर विधान प्राथमिक तौर पर वित्तीय मामलों से संबंधित है जिसे सीधे लोकसभा के माध्यम से पारित किया जाना संभव था। असल चुनौती थी धारा 184 जिसके मुताबिक कार्यपालिका को इस बात का पूरा अधिकार था कि वह यह तय करे कि किसी पंचाट के सदस्यों की काबिलियत, नियुक्ति और सेवा की शर्तें क्या होंगी। पंचाट कुछ और नहीं बल्कि न्याय पाने का थोड़ा आसान रास्ता मुहैया कराते हैं। यहां सामान्य अदालतों की तरह उलझाऊ रास्ते नहीं होते। परंतु इससे कार्यपालिका से स्वतंत्रता की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती।

  • कार्यपालिका संसद के माध्यम से कानून पारित करके इन तमाम खंडों की मुखिया बनती है। ऐसे में इस न्याय दिलाने वाली प्रणाली की स्वतंत्रता पर सवाल उठना लाजिमी है। ऐसे विधेयकों को धन विधेयक के रूप में पारित किया जा सकता है अथवा नहीं, यह निर्धारित करने का निर्णय एक बड़े पीठ पर छोड़ दिया गया जबकि इस दौरान अधिकारों को इस प्रकार कार्यपालिका को सौंपने की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने ऐसे अधिकार हस्तांतरण की वैधता और धन विधेयक के इस्तेमाल दोनों पर असहमति जताई। यह निर्णय पढ़े जाने लायक है। इसके अलावा न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने भी आंशिक रूप से असहमति जताते हुए कहा कि कार्यपालिका को अधिकारों का हस्तांतरण असंवैधानिक है। ऐसे में भविष्य में जब कोई पीठ किसी अन्य विधान पर ऐसी दृष्टिï डालेगा तो ऐसे मसलों पर कानून की भावना पर विचार करने की बात सामने आएगी।

  • विशुद्घ प्रभाव यह है कि कार्यपालिका द्वारा बनाए गए जो नियम अधिकार हस्तांतरण को मंजूरी दे रहे थे उन्हें सर्वसम्मत ढंग से खारिज कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सन 1997 और 2010 में दिए गए फैसलों के प्रवर्तन का जो मामला 2019 में निपटा है उसे 2017 में पारित निर्णय के संदर्भ में देखें तो वह पहले के मामलों में दिए गए निर्देशों और उस वक्त स्थापित कानून का उल्लंघन करता है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में हो, कार्यपालिका कानून पारित करा लेती है। वह भी ऐसे कानून जो सीधे-सीधे सर्वोच्च न्यायालय के पुराने दिशानिर्देशों और निर्णयों का उल्लंघन कर रहे हों। हालांकि ऐसे वैधानिक उपाय जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवज्ञा करते हैं, उनकी वापसी का तरीका तलाश लिया गया है। ऐसे निर्णय व्यवस्था को जवाबदेह नहीं बनाते।

  • संवैधानिक मसलों पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की अवहेलना और उल्लंघन के मामलों पर नियंत्रण नहीं होना कार्यपालिका को इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि वह बार-बार ऐसा उल्लंघन करे। अरुण शौरी की पुस्तक 'अनीता गेट्स बेल' इसी बारे में है। उपरोक्त तीनों निर्णयों को पढ़ा जाना चाहिए। देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा घोषित कानून के उल्लंघन की बात ठोस तरीके से साबित की गई है और ऐसे असंवैधानिक आचरण के बीच जवाबदेही पूरी तरह अनुपस्थित है। ज्यादा समय नहीं हुआ जब सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों के पीठ ने सरकार पर लागत आरोपित करते हुए कहा था कि उसने एक ऐसे विवाद को बढ़ावा दिया जो उसके द्वारा बहुत पहले निपटाया जा चुका था। इस मामले में वरिष्ठï विधिक अधिकारियों को शामिल कर एक खत्म हो चुके मसले को अवांछित तवज्जो दी गई थी। यह पता चला कि अतीत में भी बंद मसलों को दोबारा उभारने पर लागत वसूली गई है। राज्य के तीन स्तंभों की बात करें तो द्विपक्षीय मसलों से उलट संवैधानिक मसलों में संवैधानिक प्रतिरोध के मसले अदालतों के समक्ष अपील में जाते हैं। कार्यपालिका में मौजूद लोग इसे दीर्घकालिक अवसर की उपलब्धता के रूप में देखते हैं। ऐसी विसंगतिपूर्ण सोच ही गलत आचरण को बढ़ावा देती है।

  • इस बार एक स्पष्ट बात उच्च न्यायपालिका पर दीर्घकालिक सकारात्मक प्रभाव की संभावना और काम के गुणवत्ता तथा अनुभव की रही। सरकार से कहा गया कि वह पंचाट से सीधे सर्वोच्च न्यायालय में होने वाली अपीलों के मामले में स्थिति सुधारे और इन्हें पहले उच्च न्यायालय या खंड पीठ के पास भेजे। कहा गया है कि ऐसे कदम छह महीने के भीतर उठाए जाएं। वर्तमान में इसकी बहुत अधिक आवश्यकता है। अधिकांश आर्थिक विधानों को लेकर उपजे नियामकीय विवाद अक्सर उच्च न्यायालय के बजाय सीधे सर्वोच्च न्यायालय पहुंच जाते हैं। जब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय जाते हैं और चूंकि उन्हें ऐसे मामलों का अनुभव नहीं होता (न तो अधिवक्ता के रूप में और न ही न्यायाधीश के रूप में) तो अनुभव की कमी के चलते न्यायिक निर्णय भी प्रभावित होते हैं। इस दिशा में ठोस उपाय किए जाने की आवश्यकता है।

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