न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) संवैधानिक मूल्यों की हिफाजत के लिए है विधायिका के अधिकारों पर अतिक्रमण के लिए नहीं

Judicial Activism  to protect constitutional values

#Dainik_Jagran

Recent context

बीते माह राष्ट्रमंडल संसदीय संघ-भारत प्रक्षेत्र का पटना में आयोजित छठा सम्मेलन कई मायनों में महत्वपूर्ण रहा। इस सम्मेलन में विभिन्न राज्यों की विधायिका के प्रतिनिधियों के अलावा राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की सभापति एवं महासचिव के अलावा दूसरे प्रक्षेत्रों के कई विदेशी प्रतिनिधि भी शामिल हुए। राष्ट्रमंडल देशों के विधायी निकायों का यह एक संगठन है जिसमें प्रचलित विधायी प्रणालियों के संबंध में विमर्श होता है। उनमें उत्तम प्रचलन अन्य को जानने, समझने एवं अपनाने का मौका मिलता है। इस संगठन का लक्ष्य प्रजातंत्र एवं इससे जुड़ी संस्थाओं को मजबूती प्रदान करना होता है। सम्मेलन में इसके अलावा विधायिका से जुड़े ज्वलंत एवं समसामयिक मुद्दों पर विमर्श होता है। पटना में आयोजित इस सम्मेलन में विमर्श के मुद्दों में सबसे महत्वपूर्ण था-विधायिका एवं न्यायपालिका लोकतंत्र के दो मजबूत स्तंभ।इस विषय पर सम्मेलन में पूरे एक दिन चर्चा हुई। लगभग 15 प्रतिनिधियों ने इस पर अपने विचार रखे जिसमें विधानसभाओं के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं विधायिका के अन्य प्रतिनिधिमंडल शामिल थे। इस विमर्श ने विधायिका एवं न्यायपालिका के आपसी संबंधों पर एक बार फिर से ध्यान खींचा है। प्रतिनिधियों की सर्वसम्मत राय थी कि संविधान की मूल भावना के अनुसार विधायिका और न्यायपालिका को एक दूसरे के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए एक दूसरे के अधिकारों के अतिक्रमण से बचना चाहिए।

न्यायपालिका द्वारा विधायिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण

एक बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि न्यायिक सक्रियता के इस काल में न्यायपालिका द्वारा विधायिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण से दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पैदा होती है। इस संबंध में विशेष रूप से उत्तराखंड प्रकरण एवं राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अर्थात एनजेएसी एक्ट की चर्चा अनेक प्रतिनिधियों ने की। इन मामलों का अंतिम पड़ाव जो भी हुआ हो, लेकिन विधायिका के अधिकारों का अतिक्रमण तो दिखता ही है।

एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए

संविधान ने विधायिका एवं न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है और एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप का निषेध किया है। अनुच्छेद 121 एवं 211 जहां क्रमश: संसद अथवा विधानसभाओं द्वारा न्यायपालिका की कार्यशैली अथवा गतिविधियों की चर्चा को निषेध करता है वहीं अनुच्छेद 122 और 212 क्रमश: संसद या विधानसभाओं की कार्यवाही अथवा प्रक्रिया की विधि मान्यता पर न्यायपालिका द्वारा प्रश्न उठाने को निषेध करता है। हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा इन धाराओं को साथ-साथ अंकित करने की मंशा स्पष्ट है कि दोनों अपने-अपने कार्यक्षेत्र में स्वतंत्र हैं और एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप निषिद्ध है। भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत है। हमारा संविधान न्यायपालिका को संविधान एवं मौलिक अधिकारों का रक्षक बताता है। न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत के तहत विधायिका द्वारा पारित अधिनियम की समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को प्राप्त है। इसके तहत न्यायपालिका किसी कानून के द्वारा संविधान के मूल ढांचे के हनन को रोकती है। दूसरे, संविधान के निर्वचन का अंतिम अधिकार भी न्यायपालिका के पास है।

भारत में ही यह संभव है कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें

न्यायिक नियुक्तियों के मामले को देखा जाए तो स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी और यदि वह आवश्यक समझेंगे तो मुख्य न्यायाधीश या संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करेंगे, परंतु न्यायपालिका द्वारा निर्वचन के अंतिम अधिकार एवं न्यायिक समीक्षा के अधिकार का उपयोग कर न्यायाधीशों की नियुक्ति के अधिकार स्वयं हासिल कर लिए हैं। विश्व के किसी भी देश में यह व्यवस्था नहीं है कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें, लेकिन भारत में ऐसा ही है। न्यायिक सक्रियता से अवांछनीय स्थिति पैदा होती है। व्यावहारिक रूप से भारतीय संविधान में शक्तियों का पृथक्करण न होकर दायित्वों के पृथक्करण का सिद्धांत अपनाया गया है।

READ ALSO @GSHINDI:न्यायिक सक्रियता और शक्तियों का अतिक्रमण” (सुभाष कश्यप) Judicial Activism and Judicial Overreach

विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संप्रभु नहीं हैं

सरकार के तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र एवं सर्वोच्च तो बनाया है, परंतु किसी को भी संप्रभु नहीं बनाते हुए अपने-अपने दायरे से बाहर नहीं जाने की अपेक्षा की गई है। इस प्रयोजन से लागू नियंत्रण एवं संतुलनयानी चेक एंड बैलेंस का सिद्धांत भारतीय संविधान की खास विशेषता मानी जाती है। किसी अंग द्वारा संविधान की भावना के विपरीत कार्य करने की स्थिति में उसे नियंत्रित करने की व्यवस्था है और तीनों अंगों में संतुलन की अपेक्षा की गई है। यहां यह विचारणीय है कि विधायिका या कार्यपालिका द्वारा अपनी हद पार करने अथवा अपना दायित्व न निभाने की स्थिति में न्यायिक हस्तक्षेप की अवधारणा है, परंतु न्यायिक सक्रियता से उत्पन्न दूसरे अंगों के अधिकारों के अतिक्रमण के समय इसके नियंत्रण के प्रावधान का निहायत अभाव दिखता है। इसी कारण अतिक्रमण की स्थिति में विधायिका या कार्यपालिका के पास पीड़ा व्यक्त करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। न्यायिक सक्रियता से उत्पन्न होने वाली विसंगतियों का अंदेशा संविधान सभा के सदस्यों द्वारा उसी समय व्यक्त किया गया था।

जवाबदेही एवं पारदर्शिता का सिद्धांत दुनिया भर में लागू है

संविधान सभा के विद्वान सदस्य ए कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था कि वैयक्तिक स्वतंत्रता की हिफाजत एवं संविधान के सही क्रियान्वयन हेतु एक स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता है, परंतु न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत को इस हद तक नहीं बढ़ाया जाए कि न्यायपालिका उच्च-विधायिका या उच्च-कार्यपालिका के रूप में कार्य करने लगे। स्पष्ट है कि नियंत्रण के प्रावधान के अभाव में इस तरह की आशंका का उसी वक्त अनुमान लगा लिया गया था पर कुछ सदस्य न्यायपालिका द्वारा दूसरे अंगों के अधिकारों के अतिक्रमण की कल्पना भी नहीं करते थे। संविधान सभा के सदस्य केएम मुंशी ने साफ तौर पर यह कहा था कि न्यायपालिका कभी संसद पर अपना प्रभुत्व नहीं थोपेगी। किसी भी क्षेत्र में जवाबदेही एवं पारदर्शिता का सिद्धांत दुनिया भर में लागू है। भारत में कार्यपालिका एवं विधायिका के अलावा अन्य क्षेत्रों में इन सिद्धांतों को लागू करने के निर्देश न्यायपालिका द्वारा बराबर दिए गए हैं। यह भी सही है कि न्यायिक हस्तक्षेप के कारण कई बड़े-बड़े घोटाले उजागर हुए हैं और दोषी कानून की गिरफ्त में आए हैं, परंतु इसी जवाबदेही एवं पारदर्शिता के सिद्धांत को न्यायपालिका अपनी व्यवस्था एवं प्रणाली में क्यों नहीं लागू करना चाहती है, यह समझ से परे है।

सरकार के सभी अंग एक दूसरे का सम्मान कर समन्वय से कार्य करें

अगर न्यायपालिका की तरह अन्य संस्थाएं यह तर्क देकर उसके अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे सकतीं कि वह अपना काम सही तरह नहीं कर रही तो फिर न्यायपालिका को भी ऐसा नहीं करना चाहिए। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि सरकार के सभी अंग एक दूसरे का सम्मान कर समन्वय से कार्य करें तभी लोकतंत्र और इससे जुड़ी संस्थाएं मजबूत होंगी। न्यायिक सक्रियता भी संवैधानिक मूल्यों और प्रावधानों की हिफाजत के लिए होनी चाहिए न कि अन्य संस्थाओं के अधिकारों के अतिक्रमण के लिए। चूंकि न्यायपालिका स्वयं सक्षम है इसलिए उससे स्व-नियामक की भूमिका निभाने की भी अपेक्षा की जाती है।

Read Also:Sarokaar - Discussion on Judicial Reforms

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download