Padmaavat controversy and freedom of expression
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आखिरकार ढेर सारे विवाद और टकराव के बावजूद फिल्म ‘पद्मावत’ को पूरे देश में दिखाए जाने का रास्ता साफ हो गया। फिल्म निर्माता की याचिका पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने चार राज्यों द्वारा फिल्म पर लगाई गई पाबंदी हटाने का आदेश दिया और उनकी संबंधित अधिसूचनाओं पर रोक लगा दी। गौरतलब है कि सेंसर बोर्ड की मंजूरी मिल जाने के बाद भी राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और हरियाणा की सरकारों ने तय किया कि वे अपने-अपने राज्य में फिल्म का प्रदर्शन नहीं होने देंगी।
सर्वोच्च अदालत ने इन राज्य सरकारों द्वारा लगाई गई पाबंदी को हटाने का आदेश तो दिया ही, साथ में यह भी जोड़ा कि कोई अन्य राज्य फिल्म की बाबत प्रतिबंधात्मक आदेश जारी न करे।
साफ है कि अदालत ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्ष लिया है, और इस तरह उसने संवैधानिक आधारों और संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप ही फैसला सुनाया है।
यह सही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं होती। इसकी सीमाएं संविधान में रेखांकित की गई हैं। मसलन, राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा होने, सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने या किसी अन्य देश से रिश्ते खराब होने आदि की सूरत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तर्क टाला जा सकता है। पर पद्मावत फिल्म के साथ ऐसा कुछ नहीं था। अलबत्ता कुछ लोगों का एतराज था कि फिल्म में इतिहास के तथ्यों से छेड़छाड़ की गई है और राजपूती प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई गई है। यही कहते हुए कुछ संगठन फिल्म का विरोध करते रहे हैं। लेकिन जब फिल्म बनने के दौरान ही दो बार उसके सेट पर तोड़-फोड़ की गई और फिल्म निर्देशक के साथ हाथापाई भी हुई, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि तथ्यों के आधार पर ही विरोध शुरू हुआ?
विवाद के काफी तूल पकड़ लेने पर फिल्म निर्देशक ने सुलह-सफाई के क्रम में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को फिल्म दिखाई और उन सबका कहना था कि फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। उनकी यह भी राय थी कि फिल्म में राजपूती आन-बान का हर लिहाज से खयाल रखा गया है। निर्माता-निर्देशक ने राजघराने के कुछ सदस्यों और कुछ इतिहासकारों को भी फिल्म दिखाई ताकि शक दूर किए जा सकें। फिर, विवादों का शमन करने की खातिर ही फिल्म का नाम ‘पद्मावती’ से बदल कर ‘पद्मावत’ कर दिया गया, जिससे यह जाहिर हो कि फिल्म इतिहास होने का दावा नहीं करती, बल्कि यह अवधी के महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ की कथा पर आधारित है। इसके बाद विवाद शांत हो जाना चाहिए था। लेकिन जहां आग भड़काए रखना निहित स्वार्थ या एक खास तरह की गोलबंदी का जरिया बन जाए, वहां कोई तथ्य या तर्क मायने नहीं रखता। फिर तो ‘भावनाएं आहत होने’ की दलील देकर हिंसा या हिंसा की धमकी को भी जायज ठहराया जाने लगता है। याद रहे, फिल्म के कुछ विरोधियों ने नाक काटने से लेकर दौड़ा-दौड़ा कर मारने तक कैसी-कैसी धमकियां दी थीं। उनके खिलाफ क्या कार्रवाई हुई? उलटे, संबंधित राज्य सरकारों का रवैया ऐसे तत्त्वों को शह देने का ही रहा है।
आखिर फिल्म सेंसर बोर्ड में पेश किए जाने से पहले ही उस पर एक के बाद एक कई राज्यों में प्रतिबंध के आदेश जारी होने का क्या मतलब था? और भी दुखद यह है कि फिल्म को सेंसर बोर्ड की हरी झंडी मिल जाने के बाद भी चार राज्यों की सरकारों ने प्रतिबंधात्मक आदेश जारी कर दिए। ऐसे में हमारे लोकतंत्र का क्या होगा? लोकतंत्र संवैधानिक और स्वायत्त संस्थाओं के संवैधानिक अधिकारों और स्वायत्तता का सम्मान करके ही चल सकता है। कुछ राज्य सरकारों ने सेंसर बोर्ड के फैसले की जैसी अवहेलना की वह बहुत ही दुखद है। बेशक लोकतंत्र में शांतिपूर्ण विरोध की जगह है। जो संगठन इस फिल्म के विरोध में हैं वे लोगों से फिल्म न देखने की अपील कर सकते हैं। लेकिन सेंसर बोर्ड और अब सर्वोच्च न्यायालय के भी फैसले को लागू न होने देने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने इस संदर्भ में भी राज्य सरकारों को उनके कर्तव्य की याद दिलाई है।
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