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अन्य बातों के अलावा कोबरा पोस्ट द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन ने इस पहलू पर रोशनी डाली है कि आज पेड न्यूज का प्रसार किस कदर पैठ बना चुका है। वैसे भारत में इस तरह का आरोप कोई नया या अनोखा नहीं है। तकरीबन पिछले दशक या उससे कुछ साल पहले फैली वैश्विक मंदी की मार की वजह से बहुत से भारतीय मीडिया संस्थानों में विज्ञापन से होने वाली कमाई में धन का प्रवाह खासा कम हुआ है। वहीं इस अवधि में इंटरनेट के इस्तेमाल में गुणात्मक वृद्धि भी दर्ज हुई है और यह ऐसा माध्यम है, जिसमें पाठक, दर्शक या श्रोता को इन सुविधाओं के लिए कोई पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती और यह प्रवृत्ति उसकी आदत बन गई है। अन्य देशों की तरह भारत में भी आर्थिक मंदी और वैश्विक वेब-दुनिया के प्रसार वाली दोहरी मार ने अधिकांश बड़े मीडिया घरानों की कमाई वाले तंत्र को खासी चोट पहुंुचाई है, बहुतों ने छंटनी की है। विज्ञापनों में होती गिरावट की एवज में इन मीडिया संस्थानों की अपनी कमाई हेतु निर्भरता उत्तरोतर सरकारी संस्थानों और सत्ताधारी प्रशासन पर बढ़ती गई है।
कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशनों की वजह से भारत के मीडिया में इस किस्म की ‘राजनीतिक आर्थिकी’ के पहलुओं ने काफी ध्यान आकर्षित किया है। इन रहस्योद्घाटनों ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की सब-कमेटी द्वारा पेश की गई उस रिपोर्ट पर फिर से एक बार ध्यान दिलवाया है जिसका शीर्षक है : ‘पेड न्यूज : भारतीय मीडिया में पेड न्यूज ने किस कदर लोकतांत्रिक मूल्यों को नुकसान पहुंचाया है।’
- पेड मीडिया की शिनाख्त इतनी सरल नहीं होती क्योंकि इसमें ज्यादातर लेन-देन ब्लैकमनी में किया जाता है। हालांकि कोबरा पोस्ट की स्टिंग वीडियो से ‘डंसे गए’ कुछ लोगों ने दावा किया है कि वे इन समाचार संस्थानों को जारी किए गए समाचार रूपी विज्ञापनों को जारी करने के काम में शामिल नहीं हैं।
- पेड न्यूज की भरोसेमंद सत्यापना तभी साबित हो सकती है जब इसमें शामिल और करवाने वाले लोग खुद ही यह कुबूल कर लें कि उन्होंने ऐसा करके अनेक कानूनों को भंग किया है जिसमें धोखाधड़ी, कपट, जनप्रतिनिधियों का चुनाव और कर बचाने जैसे अपराध शामिल हैं। यही कारण है कि कोबरा पोस्ट द्वारा प्रस्तुत सुबूत भी चोरी-छिपे और चालाकी से बनाई वीडियो के जरिए ही सामने आ सका है।
2009 Case of Paid News:
- पत्रकार पी. साईनाथ ने तो अक्तूबर 2009 में ही महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के कुछ दिन ही पहले पेड न्यूज पर अपनी खबर में भंडाफोड़ कर दिया था। उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर सिलसिलेवार बनाई अपनी रपटों में इस गड़बड़झाले का पर्दाफाश किया था। उन्होंने बताया कि कैसे तीन बड़े समाचार पत्रों के कुल मिलाकर 15 संस्करणों में हूबहू शब्दों में एक जैसी रिपोर्टें छपी थीं, तिस पर तुर्रा यह कि हरेक समाचार पत्र ने अपने-अपने पत्रकारों को बाकायदा इसके लिए बाईलाइन दी थी (वह खबर जिसमें संवाददाता का नाम उद्धृत किया जाता है)। इनके नाम है लोकमत, पुधरी और महाराष्ट्र टाइम्स।
जुलाई, 2009 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने पेड न्यूज के इस आरोप की जांच हेतु दो सदस्यीय समिति बनाई थी - छह महीनों में लगभग 100 से अधिक संबंधित व्यक्तियों के लिखित और जुबानी बयानों पर विचार करने के बाद इस दल ने अपनी रिपोर्ट प्रेस काउंसिल को सौंप दी थी। इसमें पेड न्यूज के बहुत से मामलों की तफ्सील के अतिरिक्त वे उपाय प्रस्तावित किए गए थे, जिनको अपनाकर इस कुप्रथा को रोका जा सकता है। इनमें कुछ नाम उन अखबारों के हैं, जिनकी प्रसार संख्या बहुत ज्यादा है। जो हिंदी अखबारों में प्रसार के हिसाब से क्रमशः नंबर एक और दो पर आते हैं। ठीक यही कुछ मराठी की सबसे बड़ी अखबार ने किया था। इस वर्ग में हिंदी और पंजाबी में बहुत बड़ी संख्या में छपने वाली और तेलुगू की बड़ी अखबारों का नाम भी शामिल है। उपसमिति की उक्त रिपोर्ट का न सिर्फ प्रेस काउंसिल ने संज्ञान लिया था बल्कि सभी अखबारों को अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करने का मौका भी दिया गया । इनमें से कुछ मीडिया संस्थानों ने प्रेस काउंसिल को अपना पक्ष न रखने वाला रास्ता चुना था।
उपसमिति द्वारा सौंपी गई रपट के बाद अप्रैल 2010 में जो घटनाक्रम बना, उसका जिक्र करना यहां मौजू है।
प्रेस काउंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति जी.एन. रे ने एक प्रारूप समिति का गठन किया था, जिसकी रिपोर्ट में भी कमोबेश वही कुछ वर्णित था जो उपरोक्त बताई उपसमिति ने अपने निष्कर्षों और आकलन में सुझाया था। इसके बाद उसी साल 31 जुलाई को प्रेस काउंसिल ने प्रस्तुत प्रस्ताव पर उपस्थित सदस्यों द्वारा हाथ उठाकर अपना समर्थन व्यक्त करने वाली मतदान प्रक्रिया के जरिए यह निर्णय लिया कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को सौंपी जाने वाली बृहद रिपोर्ट में उपसमिति की पूरी रिपोर्ट को नत्थी नहीं किया जाएगा। इस बैठक का औपचारिक रिकॉर्ड नहीं बनाया गया और कितने सदस्यों ने पक्ष में या कितनों ने विरोध किया, उसका भी कुछ लेखा-जोखा नहीं रखा गया। 31 जुलाई को हुई इस बैठक में प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष और सचिव समेत कुल 30 सदस्यों में से 24 सदस्य उपस्थित थे। इनमें 12 सदस्यों ने उस प्रस्ताव का विरोध किया था, जिसमें कहा गया था कि उपसमिति को पूरी रिपोर्ट को मंत्रालय को सौंपे जाने वाले दस्तावेजों में नत्थी किया जाए, 3 ने मतदान से अपने को अलहदा रखा और केवल 9 सदस्यों ने पक्ष में मतदान किया जो कि कुल उपस्थिति का एक-तिहाई से कम बनते थे। इसका हश्र यह हुआ कि दोषियों को चिन्हित करके ‘अपराधी’ की श्रेणी में रखने वाली 36000 शब्दों की विस्तृत रिपोर्ट अंततः सिमटकर महज सरसरी जिक्र करने वाला एक फुटनोट बनकर गई।
निहित स्वार्थ वाले प्रेस काउंसिल के उक्त सदस्यों की हरचंद कोशिशों के बावजूद उपसमिति की रिपोर्ट पब्लिक डोमेन पर किसी तरह उजागर हो गई क्योंकि सभी सदस्यों को भेजी गई ई-मेल में इस रिपोर्ट की कम से कम 30 प्रतिलिपियां साइबरस्पेस में मौजूद थीं। तथ्य तो यह है कि लीक हुई इस रिपोर्ट ने कहीं ज्यादा लोगों का ध्यान खींचा जो शायद तब इतना न हो पाता यदि प्रेस काउंसिल खुद ही इसे पहले जारी कर देती। चूंकि प्रसार में आई यह रिपोर्ट तकनीकी रूप से अगले 14 महीनों के लिए तब तक ‘आधिकारिक’ नहीं थी जब तक कि केंद्रीय सूचना आयोग ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत लगाई गई मनु मौदगिल की शिकायत पर प्रेस काउंसिल को यह निर्देश नहीं दिया था कि उक्त रिपोर्ट को 10 अक्तूबर, 2011 तक अपनी वेबसाइट पर बाकायदा प्रकाशित करे और इसकी पालना हुई। भारत का मीडिया जगत आज कॉर्पोरेट प्रभाव के अधीन है क्योंकि अधिकांश के मालिक कॉर्पोरेट घरानों के पंचाट से ताल्लुक रखते हैं। इनकी स्थापना और संचालन का एकमेव मंतव्य है: अधिक से अधिक मुनाफा बनाना। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का ‘चौथा स्तंभ’ एक हिस्सा सच की तलाश और सत्ता में ताकतवर पदों पर बैठे लोगों की गलतियों पर उन्हें सीधा जिम्मेवार ठहराने की बजाय अपने व्यावसायिक हितों को बचाने को तरजीह दे रहा है। प्रेस की आजादी और सत्ता में बैठे लोगों के सामने डटते हुए समाज में पारदर्शिता बनाने की जो इसकी समर्था है, वह मीडिया के अंदर मौजूद काली भेड़ों की वजह से समझौतापरक बन गई है और इन्हीं तथ्यों की ओर कोबरा पोस्ट के हालिया स्टिंग में उजागर हुई करतूतें ध्यान दिलवाती हैं।