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एक परिपक्व और सशक्त लोकतंत्र असहमत स्वरों के सम्मान पर टिका होता है। जब भी एक लोकतांत्रिक सत्ता अपनी धारा से असहमति जाहिर करने वाली आवाजों पर बंदिश लगाती है तो इससे लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट पड़ती है। इस लिहाज से देखें तो को सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के गहरे अर्थ हैं कि असहमति लोकतंत्र के लिए सेफ्टी वॉल्व है।
- इस संदर्भ में जस्टिस वाईके चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर आप इस सेफ्टी वॉल्व को नहीं रहने देंगे तो प्रेशर कुकर फट जाएगा।
- अदालत ने यह बात एक मामले की सुनवाई के दौरान कही, जिसमें देश भर से कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की मनमानी गिरफ्तारी पर सवाल उठाए गए थे।
दरअसल, इसी साल जनवरी में तत्कालीन पेशवा राज के सैनिकों पर ब्रिटिश सेना के महार सैनिकों की जीत के दो सौ साल पूरे होने के मौके पर भीमा-कोरेगांव में आयोजित शौर्य उत्सव के दौरान व्यापक हिंसा हुई थी। उसी का हवाला देते हुए पुणे पुलिस ने देश के अलग-अलग राज्यों से पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया और उन पर यूएपीए कानून की धाराएं लगा दीं।
विचित्र है कि इस मामले में जिस साजिश का आरोप लगाया गया है, उसकी पूरी जांच होना बाकी है, पुलिस अभी तक कोई स्पष्ट कारण बताने या सबूत पेश करने में असमर्थ रही है, जो गिरफ्तार लोगों का हिंसा से सीधा संबंध साबित कर सके। जबकि इसी मामले में आरोपी रहे संभाजी भिडे की गिरफ्तारी नहीं हो सकी और मिलिंद एकबोटे को जमानत मिली हुई है। दूसरी ओर, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियों में पुलिस ने जिस तरह की हड़बड़ी दिखाई, उसे लेकर कई सवाल खड़े हुए। स्वाभाविक ही मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की बेंच ने कहा कि इस तरह की कार्रवाई से ‘असहमति’ जताने की प्रक्रिया प्रभावित होती है। गौरतलब है कि इन गिरफ्तारियों को लेकर अलग-अलग संगठनों और राजनीतिक दलों ने गंभीर सवाल उठाए हैं और इसे सत्ता से इत्तिफाक न रखने वाले लोगों के दमन की कोशिश कहा है। क्या किसी राजनीतिक धारा से महज असहमति जताना अपराध हो सकता है? यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले कुछ समय से देश भर में असहिष्णुता का माहौल बना है और इसमें अभिव्यक्ति के अधिकार के सामने कई तरह की चुनौतियां खड़ी हुई हैं। कई ऐसी घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिनमें किसी मसले पर विरोध या असहमति जताने पर लोगों को हिंसा तक का सामना करना पड़ा है। यह स्थिति किसी भी सभ्य और संवेदनशील समाज के लिए आदर्श नहीं कही जा सकती।
- निश्चित रूप से एक स्वस्थ लोकतंत्र में हिंसा के किसी भी स्वरूप की जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन अगर कोई व्यक्ति किसी विचार से इत्तिफाक नहीं रखता और उसे लोकतांत्रिक तरीके से अभिव्यक्त करता है, तो उसे इसका अधिकार होना चाहिए।
- भिन्न मतों से लोकतंत्र आखिर मजबूत ही होता है। लेकिन अगर किन्हीं स्थितियों में खुद से सहमति न रखने वाले लोगों या उनकी आवाज को दबाया जाता है तो वह किसी भी व्यक्ति या समूह के भीतर क्षोभ या आक्रोश को बढ़ा सकता है।
अगर उसका उचित तरीके से निराकरण नहीं किया गया, तो उसके फूटने की प्रक्रिया असहज भी हो सकती है। इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट ने असहमति जाहिर करने की स्वतंत्रता को लोकतंत्र के लिए सेफ्टी वॉल्व की तरह देखा है, तो उसका आशय समझा जाना चाहिए। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि किसी भी मसले पर अलग-अलग विचारों को मिलने वाली जगह लोकतंत्र को मजबूत ही करेगी। लेकिन दमन या विरोध के स्वरों को दबाने की कोशिश से आखिर नुकसान लोकतंत्र को होगा