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दलितों के मान-सम्मान की रक्षा और उन पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए तीन दशक पहले बनाए गए अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम यानी एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग की शिकायतें एक लंबे अर्से से सामने आ रही थीं। (#GSHINDi #THECOREIAS)
Ø इस कानून के दुरुपयोग के शिकार महाराष्ट्र के एक अधिकारी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका पर इस अदालत ने न केवल यह टिप्पणी की कि किसी भी जाति और धर्म के निर्दोष नागरिक को प्रताड़ित किया जाना संविधान के खिलाफ है, बल्कि यह व्यवस्था भी दी कि इस कानून के तहत शिकायत मात्र पर न तो तत्काल एफआइआर दर्ज होगी और न ही गिरफ्तारी।
Ø सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी के बाद जमानत का रास्ता भी खोला, क्योंकि इस कानून की धारा 18 अभियुक्त को अग्रिम जमानत दिए जाने पर भी रोक लगाती है।
यह फैसला आते ही विपक्षी राजनीतिक दलों ने शोर-शराबा करना शुरू कर दिया। वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले की व्याख्या इस रूप में करने लगे कि एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने का काम किया गया है। राजनीतिक होड़ के चलते सत्तापक्ष के अनेक सांसद भी ऐसा ही कहने लगे। इतना ही नहीं राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्षी सांसदों ने राष्ट्रपति के पास जाकर गुहार भी लगाई। इस सबका परिणाम यह हुआ कि केंद्र सरकार दबाव में आ गई। राजनीतिक नुकसान होने के भय से सरकार ने तय किया कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करेगी।
Changing social reality
सभ्य समाज में जातिगत भेदभाव और विद्वेष के लिए कोई स्थान नहीं यह कहना कठिन है कि पुनर्विचार याचिका में केंद्र सरकार क्या दलील देगी और सुप्रीम कोर्ट किस नतीजे पर पहुंचेगा, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि तीन दशक पहले एससी-एसटी एक्ट जिन परिस्थितियों में बनाया गया था उनमें काफी कुछ परिवर्तन आ चुका है। देश कई मायनों में आगे निकल चुका है और शहरों में लोग एक तो इसकी परवाह नहीं करते कि कौन दलित है और कौन नहीं और दूसरे, दलित भी अपनी पहचान छिपाने की जरूरत नहीं समझते। (#GSHINDi #THECOREIAS)
यह सही है कि दलितों को अभी भी यथोचित मान-सम्मान मिलना शेष है और ग्रामीण इलाकों में उन्हें प्रताड़ित करने के मामले सामने आते ही रहते हैं, लेकिन यह कहना सही नहीं होगा कि जैसे हालात अस्सी के दशक में थे वैसे ही आज हैं। हमारे समाज में दलितों को कमतर माने जाने की जो मानसिकता है उसका परित्याग किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि सभ्य समाज में जातिगत भेदभाव और विद्वेष के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाने के तहत छुआछूत को गैर कानूनी करार देने के साथ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण भी प्रदान किया गया। इसके कई सकारात्मक परिणाम सामने आए, लेकिन कुछ नकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले और उनमें से एक है एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग। चूंकि इस अधिनियम के तहत उत्पीड़न की शिकायत एफआइआर के रूप में दर्ज किए जाने और आरोपित की तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान है इस कारण कई मामलों में यह देखने को मिलता है कि महज बदला लेने या किसी को सताने के इरादे से दलित उत्पीड़न की झूठी शिकायत दर्ज करा दी जाती है। 2016 में पुलिस जांच में अनुसूचित जाति के लोगों को प्रताड़ित किए जाने के 5347 मामले और अनुसूचित जनजाति के 912 मामले झूठे पाए गए। इस एक्ट के तहत किसी दलित के प्रति कुछ जाति सूचक शब्दों का इस्तेमाल भी उसका अपमान माना जाता है। यह ठीक है कि अदालत के समक्ष दलित उत्पीड़न की शिकायत झूठी पाए जाने पर आरोपित को राहत तो मिल जाती थी, लेकिन गिरफ्तार होने और जेल जाने के कारण उसे अपमान का भी सामना करना पड़ता है।
आखिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध क्यों
What is Justice: न्याय का तकाजा यह कहता है कि किसी की गिरफ्तारी तब होनी चाहिए जब उसके खिलाफ शिकायत प्रथमदृष्टया सही पाई जाए। यह समझना कठिन है कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी कि जांच के बाद ही गिरफ्तारी होगी तो इसे एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने वाला काम क्यों कहा जा रहा है? आखिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने वाले झूठी शिकायत में भी गिरफ्तारी के साथ जमानत न देने के प्रावधान को न्यायसंगत कैसे कह सकते हैं? अगर दहेज रोधी और ऐसे ही कुछ और कानूनों में ऐसे ही प्रावधान हैं तो जरूरत उनमें भी सुधार की है, न कि एससी-एसटी एक्ट का दमनकारी स्वरूप बनाए रखने की। सुप्रीम कोर्ट ने विधि के शासन के अनुरूप कदम उठाते हुए यह भी स्पष्ट किया कि सरकारी कर्मचारियों और आम नागरिकों के मामले में दलित उत्पीड़न संबंधी शिकायत की जांच किस स्तर के अधिकारी करेंगे। उसने इस एक्ट के तहत गिरफ्तार व्यक्ति की जमानत भी संभव बनाई। जब यह देखने में आ रहा था कि झूठी शिकायत के शिकार व्यक्ति भी अर्से तक जेल में बंद रहते थे तो फिर जमानत की गुंजाइश बनाने को अनुचित कैसे कहा जा सकता है?
राजनीतिक दल जाति, मजहब और क्षेत्र की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं (#GSHINDI #THECOREIAS)
सरकार को एक ओर जहां यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दलितों का उत्पीड़न न होने पाए वहीं यह भी कि दलित उत्पीड़न की झूठी शिकायतों के चलते समाज में वैमनस्य न फैलने पाए। आखिर यह कहां तक उचित है कि मानहानि के मामलों का निपटारा होने में तो वर्षो खप जाएं, लेकिन दलित उत्पीड़न के मामले में आरोपित तत्काल गिरफ्तार होकर जेल भी भेज दिया जाए? यह ठीक नहीं कि आजादी के 70 वर्ष बाद भी हमारे राजनीतिक दल जाति, मजहब और क्षेत्र की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं। आखिर इस स्थिति में सामाजिक समरसता का लक्ष्य कैसे हासिल होगा? बेहतर होगा कि राजनीतिक दल संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करने के बजाय यह देखें कि सभी दमनकारी कानून दुरुस्त हों।
#DAINIK_JAGRAN