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#Dainik_tribune
Sexual Harassment Incidences
समाज के विभिन्न क्षेत्रों से कार्यस्थल पर यौन शोषण के बारे में अक्सर शिकायतें मिलती रहती हैं और ऐसी घटनाओं की रोकथाम तथा इनसे सख्ती से निपटने के लिये कानून भी है। लेकिन जब म.प्र. उच्च न्यायालय के प्रशासनिक न्यायाधीश के खिलाफ अधीनस्थ न्यायपालिका की महिला सदस्य ने ऐसे आरोप लगाते हुए 2014 में पद से इस्तीफा दिया तो निश्चित ही यह एक गंभीर मामला था। परंतु उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को पद से हटाने के लिये दायर याचिका में लगाये गये आरोपों की जांच के लिये गठित समिति ने जब यौन उत्पीड़न के आरोपों को सही नहीं पाया तो चर्चा होना स्वाभाविक है।
Problem in Judiciary
वैसे तो उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक कई न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग चलाने के प्रयास हो चुके हैं लेकिन संसदीय इतिहास में पहली बार 1993 में किसी न्यायाधीश को पद से हटाने के लिये लोकसभा में एक प्रस्ताव पेश किया गया था। यह मामला उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी का था, जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में पद से हटाने की कार्यवाही लोकसभा में हुई लेकिन यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। इसके बाद अगस्त 2011 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को भ्रष्टाचार के आरोप में पद से हटाने के लिये राज्यसभा में पहली बार ऐसे प्रस्ताव पर बहस हुई और यह पारित भी हो गया। लेकिन लोकसभा में इस पर चर्चा होने से पहले ही उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
इसी तरह, सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी. दिनाकरण को भी महाभियोग की कार्यवाही के माध्यम से पद से हटाने के लिये राज्यसभा के सभापति को याचिका दी गयी थी। इस मामले में आरोप भी निर्धारित हुए लेकिन उन्होंने जुलाई 2011 में पद से इस्तीफा दे दिया। इसके अलावा, तेलंगाना एवं आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सी. वी. नागार्जुन रेड्डी पर निचली अदालत में एक दलित न्यायाधीश का उत्पीड़न करने और गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे. बी. पार्दीवाला द्वारा अपने एक फैसले में की गयी टिप्पणी को लेकर उनके खिलाफ भी महाभियोग चलाने के अनुरोध के साथ राज्यसभा के सभापति के समक्ष याचिका दायर की जा चुकी है। हालांकि न्यायमूर्ति पार्दीवाला ने बाद में इस टिप्पणी को फैसले से हटा दिया।
न्यायपालिका में ही कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की कथित घटना को लेकर राज्यसभा के सदस्यों ने अप्रैल, 2015 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश एस. के. गंगले पर महाभियोग चलाने के लिये याचिका दायर की थी। संविधान के प्रावधानों के तहत किसी न्यायाधीश को महाभियोग की प्रक्रिया के माध्यम से ही पद से हटाया जा सकता है। इसके लिये आवश्यक है कि पहले न्यायाधीश के खिलाफ आरोपों की जांच करायी जाये। फिर संबंधित सदन में उन्हें पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू की जाये।
राज्यसभा के तत्कालीन सभापति हामिद अंसारी ने प्रधान न्यायाधीश की सलाह से इस याचिका में लगाये गये आरोपों की जांच के लिये तीन सदस्यीय समिति गठित की। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही आगे कार्यवाही हो सकती है। यौन उत्पीड़न के आरोपों की जांच के लिये उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश आर. भानुमति की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित की गयी थी। इस समिति को न्यायमूर्ति गंगले के खिलाफ चार आरोपों की जांच कर अपनी रिपोर्ट राज्यसभा को सौंपनी थी। समिति की रिपोर्ट पिछले महीने सदन के पटल पर रखी गयी, जिसके अनुसार आरोप संदेह से परे सही नहीं पाये गये। हां, न्यायाधीश के तबादले के संबंध में समिति ने कहा कि महिला न्यायाधीश का उनके पुत्र के 12वीं कक्षा के सत्र के बीच में तबादला नहीं किया जाना चाहिए था। दूसरी ओर सिर्फ जिला न्यायाधीश कमल सिंह ठाकुर की सिफारिश पर ऐसा करना न्यायोचित नहीं था।
समिति ने कहा कि उसकी राय में यह दण्डात्मक कदम था और चूंकि गलत कारणों से ऐसा किया गया था, इसलिए उनके पास इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। ऐसी स्थिति में न्याय के हित में होगा कि उसे फिर से सेवा में बहाल किया जाये, यदि वह इसके लिये तैयार हों।
उच्चतर न्यायपालिका के सदस्यों पर भ्रष्टाचार, कदाचार, पद के दुरुपयोग या फिर कार्यस्थल पर यौन शोषण के आरोप लगने और इनके आधार पर ही उन्हें पद से हटाने के लिये लोकसभा अध्यक्ष अथवा राज्यसभा के सभापति के पास याचिका दायर होने से निश्चित ही न्यायपालिका की छवि पर असर पड़ता है। इस तरह के आरोपों और ऐसी कार्यवाही से बचने के उपाय पर विचार की आवश्यकता है। देश की जनता के प्रति न्यायपालिका के अटूट विश्वास को देखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि उसे इस तरह के आरोपों का सामना नहीं करना पड़े।