21 December Newspaper Summery

1.स्टार्ट-अप को बेहतर माहौल देने में गुजरात अव्वल

  • उभरते उद्यमियों और कंपनियों यानी स्टार्ट-अप को बेहतर कारोबारी माहौल मुहैया कराने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में इस वर्ष गुजरात ने बाजी मारी है। औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग (डीआइपीपी) द्वारा गुरुवार को जारी 27 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों की इस सूची में गुजरात ने सभी मानकों पर स्पर्धियों से बेहतर प्रदर्शन किया है। डीआइपीपी द्वारा जारी सूची में कर्नाटक, केरल, ओडिशा और राजस्थान को शीर्ष प्रदर्शन करने वाले चार राज्यों में शामिल किया गया है। ऑनलाइन सूचना देने, नियमों को सरल करने, सरकारी खरीद में प्राथमिकता देने और वेंचर कैपिटल फंड स्थापित करने जैसी गतिविधियों पर राज्यों को विशेष तौर पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
  • ज्ञात हो, सरकार ने इस वर्ष जनवरी में स्टार्ट-अप इंडिया एक्शन प्लान लांच किया था। इसका मकसद उद्यमिता की चाहत रखने वालों को उचित माहौल मुहैया कराना था।
  • ऐसे बनी सूची : डीआइपीपी ने स्टार्ट-अप को बेहतर माहौल देने के मामले में विभिन्न मानकों के हिसाब से राज्यों का वर्गीकरण किया। इनमें स्टार्ट-अप नीति, इनक्यूबेशन केंद्र, इनोवेशन की बुनियाद रखने वाले, इनोवेशन को अगले चरण में ले जाने में मदद करने वाले, स्टार्ट-अप को मदद के हिसाब से नियमों में बदलाव लाने वाले, प्रोक्योरमेंट लीडर्स और कम्यूनिकेशन चैंपियंस शामिल थे। डीआइपीपी ने इन्हीं मानकों पर प्रदर्शन के हिसाब से राज्यों को रैंकिंग दी।

USE IN PAPER 3- START-UP INDIA,INDUSTRIES,GOVERNANCE

2.लोकसभा में उपभोक्ता संरक्षण विधेयक पारित

  • विधेयक के राज्यसभा से भी पारित हो जाने के यह उपभोक्ता संरक्षण कानून-1986 का स्थान ले लेगा।विधेयक में केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण के गठन का अधिकार है। इसमें उपभोक्ताओं के सामूहिक हितों का संरक्षण किया जा सकेगा।

CONSUMER RIGHT

3.सिविल सेवा परीक्षा में सामान्य वर्ग की अधिकतम उम्र 27 वर्ष करने का सुझाव

  • नीति आयोग ने सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों के लिए सिविल सेवा परीक्षाओं में अधिकतम आयुसीमा 30 साल को कम कर 27 साल करने का सुझाव दिया है। यह काम 2022-23 तक चरणबद्ध तरीके से करने को कहा है। बुधवार को जारी न्यू इंडिया एट 75 के लिए रणनीतिदस्तावेज में सरकारी थिंक टैंक ने सभी सिविल सेवा के लिए एकीकृत परीक्षा की भी वकालत की है।

CIVIL SERVICES,AIS

4.ईवीएम को फुटबॉल की तरह उछाल रहीं पार्टियां: सीईसी

  • मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) सुनील अरोड़ा ने गुरुवार को नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि राजनीतिक दल इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) को फुटबॉल की तरह उछाल रहे हैं। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग ईवीएम की खराबियों को कम से कम करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन ईवीएम से छेड़छाड़ (टेंपरिंग) कतई संभव नहीं है। इसे प्रोग्राम नहीं किया जा सकता।ईवीएम के साथ छेड़छाड़ और उसमें खराबी दो अलग-अलग चीजें हैं। छेड़छाड़ बदनीयती दिखाती है, जबकि खराबी कभी भी हो सकती है।

USE IN ELECTION COMMISSION,EVM

5.मप्र में गुजरात के बब्बर शेर लाने का रास्ता साफ

  • गुजरात के गिर अभयारण्य के एशियाटिक लॉयन (बब्बर शेर) मध्य प्रदेश के कुनो पालपुर लाने में बड़ी अड़चन खत्म हो गई है। मप्र सरकार ने 413 वर्ग किमी क्षेत्र बढ़ाकर कुनो अभयारण्य को नेशनल पार्क घोषित कर दिया है। अगले एक-दो दिन में इसका नोटिफिकेशन जारी हो सकता है। शेर देने के लिए गुजरात सरकार ने कुनो का क्षेत्रफल बढ़ाने और उसे नेशनल पार्क का दर्जा देने की शर्त रखी थी.

ENVIRONMENTAL,SHIFTING

6.अब जो चैनल देखें, उसी के दें पैसे

  • अगर आप अपने घर में डीटीएच या केबल पर टीवी चैनल देखते हैं तो आपके लिए यह अच्छी खबर है। अगले महीने से आप जितने चैनल देखेंगे, सिर्फ उसी के लिए पैसे देने होंगे। अब डीटीएच कंपनी या केबल ऑपरेटर पैकेज के नाम आपसे अनचाहे चैनल के पैसे नहीं ले सकेंगे। डीटीएच और केबल ऑपरेटरों के लिए ट्राई ने नए नियम बनाए हैं जो 29 दिसंबर से लागू होंगे। इससे ऑपरेटरों की मनमानी रुकेगी।

CONSUMER RIGHT,TRAI

7.सांता बन अस्पताल पहुंचे बराक ओबामा

  • अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सांता क्लॉज बन बीमार बच्चों के चेहरे पर खुशी लाने का काम किया है। वह सांता की टोपी लगा, कंधे पर थैला लटकाए अचानक यहां के एक अस्पताल पहुंचे और बीमार बच्चों को क्रिसमस से पहले उपहार दिए। उन्होंने करीब 90 मिनट बच्चों के बीच गुजारे और उनके साथ तस्वीरें भी खिंचवाईं। बच्चे भी उन्हें अपने बीच पाकर काफी खुश हुए।

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8.कैंब्रिज एनालिटिका मामले में फेसबुक पर मामला दर्ज

            SOCIAL-MEDIA ,

9.महिलाओं बुजुर्गो के लिए ट्रेनों में बढ़ेगा कोटा

10.सरकार ने पेश कीं 85,948 करोड़ की अनुदान पूरक मांगें

  • सरकार ने बृहस्पतिवार को अनुदान की पूरक मांगें पेश करते हुए संसद से चालू वित्त वर्ष में 85,948 करोड़ रुपये के सकल अतिरिक्त व्यय की मंजूरी मांगी है। हालांकि इस अतिरिक्त व्यय में नकद व्यय महज 15,065 करोड़ रुपये होगा जबकि शेष राशि विभिन्न मंत्रलयों और विभागों की बचत से जुटाई जाएगी।

11.उत्तराखंड में पर्यटन का दायरा बढ़ाने की तैयारी

  • उत्तराखंड में पर्यटन विभाग अब पर्यटन क्षेत्रों का दायरा बढ़ाने की तैयारी कर रहा है। इसके तहत केवल तीर्थाटन के लिए आने वाले पर्यटकों को अब अन्य पर्यटक स्थलों तक लाने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसे पर्यटकों को धार्मिक स्थलों के आसपास के पर्यटन स्थलों की जानकारी दी जाएगी। मकसद यह है कि धार्मिक पर्यटन के लिए आने वाले पर्यटक नए पर्यटन स्थलों तक पहुंचें ताकि केवल पर्यटन स्थलों का प्रचार प्रसार हो, बल्कि स्थानीय लोगों को रोजगार भी उपलब्ध हो सके।

TOURISM SECTOR,ECONOMIC

12.स्मार्टफोन में इस्तेमाल होने वाली धातु खोजेगा प्रोटीन

  • इस तरह तलाशता है धातुएं : वातावरण में कार्बन चक्र की गतिशीलता में अहम भूमिका निभाने वाला यह बैक्टीरिया पौधों की पत्तियों और मिट्टी में पैदा होता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस बैक्टीरिया को अपने कुछ एंजाइमों को सही तरह से कार्य कराने के लिए लैंथेनाइड्स की आवश्यकता होती है। इनमें से एक एंजाइम इस बैक्टीरिया की कार्बन चक्र को गतिशील बनाने में मदद करता है। यह एंजाइम ही बैक्टीरिया की वृद्धि में भी सहायक होता है। यही वजह है कि अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए यह बैक्टीरिया लैंथेनाइड्स की तलाश करता है और हम इसका लाभ स्मार्टफोन में इस्तेमाल होने वाली धातुओं की खोज में ले सकते हैं।

13.इकोसिस्टम को नुकसान पहुंचा रहा प्रकाश प्रदूषण

  • सही जीवनशैली अपनाकर ही स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है। स्वस्थ रहने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है अच्छा खानपान और सही समय पर पर्याप्त नींद लेना। आज तेजी से भागती जिंदगी में हम पर्याप्त नींद नहीं ले पा रहे हैं। अब इसी कड़ी में एक और चीज शामिल हो गई है जो हमारी नींद को प्रभावित कर रही है। वो है प्रकाश प्रदूषण। रात के समय में कृत्रिम प्रकाश केवल हमारी नींद को खराब कर रहा है, बल्कि हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाल रहा है। अब शोधकर्ताओं ने प्रकाश प्रदूषण के एक और नुकसान का पता लगाया है। यह हमारे स्वास्थ्य के साथ इकोसिस्टम यानी पारिस्थितिकी तंत्र को भी नुकसान पहुंचा रहा है।

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EDITORIAL

1.कठिन होती पर्यावरण बचाने की चुनौती

पर्यावरण संरक्षण का मकसद

  • एक बार फिर यह साफ हो गया कि विकसित और धनी देश बिगड़ते पर्यावरण के संकट से उबारने के लिए ज्यादा जोखिम नहीं उठाने वाले। हाल में पोलैंड में जलवायु परिवर्तन पर आयोजित सम्मेलन में बड़े देशों का रुख-रवैयाइसी ओर इशारा करता है। इस सम्मेलन में 2015 केपेरिस जलवायु समझौते को 2020 से कैसे लागू किया जाए, इस पर चर्चा हुई। ध्यान रहे कि पेरिस समझौते में अमीर देशों के लिए नियम पर कोई सहमति नहीं बन पाई थी। इसके साथ ही गरीब देशों और अमीर देशों के कार्बन उत्सर्जन की सीमा को लेकर भी विवाद था। चूंकि पोलैंड में पेरिस समझौते के पालन के लिए जो नियमावली बनी उसे ज्यादातर पर्यावरण विशेषज्ञ अपर्याप्त मान रहे हैं। इसलिए कई लोग यह मान रहे हैं कि पर्यावरण संरक्षण का मकसद किसी अंतरराष्ट्रीय मंच से नहीं पूरा होने वाला। हालांकि कुछ अभी भी यह कह रहे हैं कि वक्त की मांग यही है कि सभी देश मिल बैठकर बिगड़ते पर्यावरण पर बिना किसी देरी के सामूहिक चिंतन करें ताकि एक बड़े हल पर सबकी सहमति बन सके। 1972 से आज तक पर्यावरण बचाने को लेकर हुईं बैठकों से कुछ ठोस निकल कर नहीं आया है। इन बैठकों में दोषारोपण में ही वक्त जाया हुआ है। यह तो गनीमत है कि कुछ संकल्पित देश अपने बलबूते कमर कसकर ग्लोबल वार्मिग का स्थानीय निदान करने में जुटे हैं। भारत ने भी बार-बार कहा है कि वह दुनिया को बढ़ते तापमान से बचाना अपनी जिम्मेदारी समझता है। पेरिस समझौते को लेकर ज्यादातर छोटे और विकासशील देश एकजुट होकर इसके पक्ष में रहे कि दुनिया से कार्बन उत्सर्जन को घटाने के प्रयत्न किए जाएं। फिर भी बहुत कुछ हाथ नहीं लग पाया, क्योंकि कार्बन उत्सर्जन पर वैसा अंकुश लगाने पर सहमति नहीं बनी जैसी आवश्यक थी।

FACT

  • एक आंकड़े के अनुसार 2005 से 2013 के बीच ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन 18.3 फीसद बढ़ा है। क्योटो प्रोटोकॉल के बाद ग्लोबल कार्बन उत्सर्जन 19.1 प्रतिशत बढ़ा। 2018 की विश्व ऊर्जा की सांख्यिकीय समीक्षा के अनुसार वर्ष 2017 में कार्बन उत्सर्जन 426 मिलियन मीटिक टन था जो वर्ष 2016 की तुलना में 1.6 फीसद ज्यादा रहा। विडंबना यह है कि ऐसे चिंताजनक निष्कर्षो के बावजूद कुछ विकसित देश ग्लोबल वार्मिग की अवधारणा को अवैज्ञानिक मानते हुए सिरे से नकार रहे हैं। इनमें अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी हैं। इसी तरह ब्राजील के नए राष्ट्रपति जे बोलसोनारो भी इनमें शामिल हैं। उनका मानना है कि जलवायु परिवर्तन जैसे विषय विकास में बाधक हैं। यहां यह बताना जरूरी है कि ब्राजील वह अकेला देश है जिसने क्योटो प्रोटोकॉल का सम्मान करते हुए समय से पहले कार्बन उत्सर्जन में बड़ी कटौती की है, लेकिन नए राष्ट्रपति के रवैये से किए-कराए पर पानी फिर सकता है। अंदेशा है कि नए राष्ट्रपति के कार्यकाल में विकास के नाम पर बड़े स्तर पर वनों को काटा जा सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग के प्रो. डेविड रे के अनुसार कार्बन की सालाना बैलेंस शीट पूरी तरह विज्ञान आधारित है और इसके संदेश बेहद चिंताजनक हैं।
  • क्योटो, पेरिस और पोलैंड सरीखे सम्मेलन किसी बड़े परिणाम की तरफ तो नहीं ले जा पा रहे हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे तमाम शोधों का जो लाभ इन सम्मेलनों के माध्यम से मिलता है वह हर देश के लिए समझ तैयार करने के लिए लाभप्रद है। वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीटयूट केअध्यक्ष हेलन माउंटफोर्ड ने यह स्वीकारा है कि इन सम्मेलनों में लिए गए फैसलों को मानने की गति बहुत धीमी है। पेरिस समझौते में कहा गया था कि कार्बन उत्सर्जन और अवशोषण के बीच एक संतुलन होना चाहिए और उसमें वनों का ही सबसे बड़ा योगदान है, लेकिन दुनिया के बड़े देश इस संतुलन को कायम करने के लिए पूरे मन से आगे नहीं रहे हैं। पोलैंड में मौटे तौर पर यूरोपीय देशों, कनाडा, न्यूजीलैंड और अन्य विकासशील देशों ने फिर एक बार उस संकल्प को दोहराया जिसमें दुनिया के तापमान की बढोतरी को थामना है। इस सम्मेलन में वाहनों की संख्या और कोयले की खपत पर नियंत्रण भी चर्चा का विषय रहा, क्योंकि जहां विकसित देशों में कारों और अन्य वाहनों की संख्या बढ़ रही है वहीं विकासशील देश कोयले का इस्तेमाल कर रहे हैं।
  • भले ही पर्यावरण पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन संकल्पों के साथ समाप्त होते हों, लेकिन उन पर पालन करने वाले देश मुठ्ठी भर ही होते हैं। इस मामले में जर्मनी, न्यूजीलैंड जैसे देशों को तो सराहा जा सकता है, लेकिन यह चिंताजनक है कि कहीं अधिक समर्थ देश पर्यावरण को बचाने के उपायों के प्रति प्रतिबद्धता जताने से पीछे हट रहे हैं। अमेरिका का रवैया पर्यावरण संरक्षण के लिए उठाए गए सामूहिक प्रयासों के लिए एक बड़ा झटका है। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि अमेरिका और ब्राजील जलवायु परिवर्तन की थ्योरी को ही सिरे से नकार रहे हैं। चूंकि अमेरिका दुनिया की आर्थिक गतिविधियों का केंद्र है इसलिए उसका व्यवहार कार्बन उत्सर्जन को कम करने की कोशिशों को धक्का पहुंचाने वाला है।
  • पोलैंड सम्मेलन के बाद यह जरूरी है कि हर देश अपनी पर्यावरण संबंधी बैलेंस शीट बनाए और यह आकलन करे कि आर्थिकी और पारिस्थितिकी कैसे संतुलित की जा सकती है? दोनों तरह के प्रयासों को प्राथमिकता देकर ही यह संतुलन संभव हैं। दुर्भाग्य यह है कि जीडीपी ही सब देशों की आर्थिक प्रगति के रूप में देखी जाती है। दुनिया में कोई भी देश ऐसा नहीं जो पारिस्थितिकी के आंकड़ों को आर्थिकी के समानांतर खड़ा करता हो। ऐसे में सकल पर्यावरण उत्पाद यानी जीईपी का महत्व बढ़ जाता है जो आर्थिकी के सापेक्ष प्राकृतिक उत्पादों और पारिस्थितिकी को समानांतर रूप से पेश करे। दरअसल जिस तरह बेहतर जीडीपी देश की आर्थिकी का दम भरती है उसी तरह जीईपी प्रकृति एवं उसके मौलिक संसाधनों का विश्लेषण कर सकती है। पोलैंड में दुनिया के करीब दो सौ देशों ने भले ही वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर हामी भरी हो, लेकिन इस लक्ष्य को पाना आसान नहीं लग रहा। ऐसे में भारत जैसे देशों के सामने इसके अलावा और कोई उपाय नहीं कि वह अपने स्तर पर सभी आवश्यक कदम उठाए। इसमें सफलता तब मिलेगी जब आम लोग पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपनी जिम्मेदारी समङोंगे। हम यह समङों कि अपने घर, गांव, शहर और देश की बेहतर पारिस्थितिकी को बचाना हमारा काम है, क्योंकि सवाल हमारे जीवन का है जो जंगल, हवा, मिट्टी और पानी से जुड़ा है।

2.सियासी तिकड़म से बैंकों की शामत

  • देश भर में प्रत्येक पांच वर्ष के बाद होने वाले लोकसभा चुनाव का मौसम गया है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अभी-अभी निपटे हैं। इसके साथ सभी राजनीतिक दल अपनी ढपली अपना राग के अंदाज में अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गए हैं। विधानसभा चुनाव का हो-हल्ला खत्म हो जाने के बावजूद एक चीज ऐसी है जिसकी गूंज लगातार सुनने को मिल रही है, वह है किसानों की कर्ज माफी। चुनाव नतीजे सभी के सामने हैं। दस दिन के भीतर किसानों का कर्ज माफ करने के वादे के साथ चुनाव मैदान में उतरी कांग्रेस को हिंदी हृदय क्षेत्र के तीन महत्वपूर्ण राज्यों में राज करने का मौका मिल गया है।
  • चुनावी वादे को अमली जामा पहनाने के लिए तीनों राज्यों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मुख्यमंत्री कर्ज माफ करने की फाइलों पर हस्ताक्षर भी कर चुके हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी छाती ठोककर कह रहे हैं कि जो कहा वह किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैन की नींद सोने देने का दावा करते राहुल गांधी की पूरी कोशिश किसानों की कर्ज माफी को आगामी लोकसभा चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाने की है। चुनावी राजनीति में अपेक्षित सफलता दिलाने का माद्दा रखने वाले इस लोकलुभावन वादे का राजनीतिक पहलू भले ही राजनेताओं को बहुत भा रहा हो, लेकिन इसके आर्थिक पहलू उतने ही भयावह नजर रहे हैं। यही वजह है कि भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन समेत देश के तमाम अर्थशास्त्री इस कदम को देश की अर्थव्यवस्था पीछे धकेलने वाला प्रयास मान रहे हैं।

कर्ज माफी नहीं समग्र उपाय

  • देश के गांवों और अन्नदाता की चुनौतियों समस्याओं को नकारा नहीं जा सकता। ग्रामीण अंचलों में पैदा हुए संकट को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। लेकिन एक समस्या के समाधान के लिए दूसरी समस्या को जन्म देना भी बुद्धिमानी का लक्षण तो नहीं ही माना जा सकता। वह भी तब जबकि यह समाधान असल में उन लोगों तक पहुंचे, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
  • यही वजह है कि राजन ने देश के जाने-माने अर्थवेत्ताओं के साथ मिलकर तैयार की गई रिपोर्ट में सवाल उठाया है कि किसानों की परेशानी के बारे में निश्चित तौर पर सोचा जाना चाहिए, लेकिन क्या कर्ज माफ कर देना एकमात्र समाधान है। उन्होंने कहा कि क्या इसका लाभ वास्तव में उन किसानों तक पहुंचता है जिन्हें इसकी आवश्यकता है। रघुराम राजन समेत तमाम अर्थशास्त्रियों का मानना है कि कृषि कर्ज माफी से राज्यों के लिए राजकोषीय चुनौतियां पैदा होंगी जिनसे निपटना उनके लिए अत्यंत मुश्किल होगा।

जरूरतमंद तक पहुंच की कमी

  • भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक आम तौर पर छोटे किसानों द्वारा लिए जाने वाले दो लाख रुपये से कम के कर्ज की कुल कृषि ऋण में हिस्सेदारी 40 फीसद से भी कम है। कुल कृषि ऋण में करीब 13 प्रतिशत हिस्सेदारी एक करोड़ रुपये या इससे अधिक राशि में लिए गए कर्ज की है। चार फीसद की मामूली ब्याज दर पर उपलब्ध इन कृषि कर्जो का लाभ मुख्य रूप से गोदाम मालिकों, खाद्य प्रसंस्करण से जुड़े उद्यमियों, उर्वरक उत्पादकों और कृषि उपकरण बनाने वाले उद्यमियों को मिलता है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छा खासा दबदबा रखने वाले लोग यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें मिलने वाला ऋण प्राथमिक क्षेत्रके ऋण की श्रेणी में आए, जबकि बैंककर्मी इसी बात से खुश रहते हैं कि उनका प्राथमिक क्षेत्रकी श्रेणी के अंतर्गत मिला ऋण बांटने का लक्ष्य पूरा हो रहा है। हालांकि बीते वर्षो के दौरान प्राथमिक क्षेत्रकी उधारी की परिभाषा में कुछ हद तक ढील दी गई है, लेकिन आंकड़ों से यह साफ होता है कि चुनावी लाभ बटोरने के उद्देश्य से की जाने वाली कृषि कर्ज माफी से चुनिंदा लोगों को ही फायदा होने वाला है। इसके अलावा किसानों को दिए जाने वाले फसल ऋण के दायरे से किराया खेती यानी किसी और की जमीन पर खेती करने वाला भूमिहीन किसान बाहर है।
  • इस संदर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि ऐसे किसानों की संख्या का कोई सटीक अनुमान उपलब्ध नहीं है, क्योंकि आम तौर पर ऐसे समझौते मौखिक ही होते हैं। ऐसे में सरकारों और बैंकिंग नियामक होने के नाते आरबीआइ की पहली जिम्मेदारी बनती है कि वह कृषि ऋण के नियमों की नए सिरे से समीक्षा करे, ताकि पहले इस ऋण की रकम जरूरतमंदों को उपलब्ध कराई जा सके। कर्ज माफी की बारी तो बाद में आती है।

खेती पर दोहरी मार

  • वर्ष 2008 में तत्कालीन कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा देशव्यापी कर्ज माफी के साथ शुरू हुई इस दौड़ में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहना चाहता। वर्ष 2017 की शुरुआत में किसानों का कर्ज माफ करने के वादे के साथ कुछ राज्यों की सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी से लेकर आंध्र प्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी और तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक तक सभी दल सत्ता पर काबिज होने के लिए इस दोधारी तलवार का इस्तेमाल करते दिख रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश के विभिन्न राज्यों की सरकारें वर्ष 2017-18 से अब तक करीब 1.7 लाख करोड़ रुपये के कृषि ऋण माफ करने की घोषणाएं कर चुकी हैं। ऐसे में आरबीआइ के एक आंकड़े पर गौर करना बनता है जिसके मुताबिक 26 अक्टूबर 2018 तक देश के बैंकों का कृषि एवं सहायक सेवाओं पर कुल बकाया 10.6 लाख करोड़ रुपये था। यानी विभिन्न राज्य सरकारें अब तक करीब 16 फीसद ऋण माफ कर चुकी हैं।
  • वर्ष 2008 में कांग्रेस सरकार ने कुल कृषि ऋण का करीब 18 फीसद हिस्सा माफ किया था। दरअसल जब भी ऐसी किसी ऋण माफी की घोषणा की जाती है, तब अचानक बैंकों के कृषि उधारी पोर्टफोलियो के फंसे कर्जो में गिरावट देखने को मिलती है, क्योंकि सरकारें इसकी भरपाई करदाताओं से मिले राजस्व से करती हैं। इसका दूसरा पहलू भी है जो अधिक घातक मालूम पड़ता है।

छोटे किसानों को नुकसान

  • कर्ज माफी की आस में ऋण लेने वाले भुगतान करने की क्षमता होते हुए भी पैसा चुकाने से बचना शुरू कर देते हैं। यही वजह है कि एक अध्ययन में पाया गया कि कर्ज माफी की घोषणा के बाद भारतीय स्टेट बैंक के कृषि ऋण पोर्टफोलियो में फंसे कर्जो का आकार काफी तेजी से बढ़ा है। इसके अलावा छोटे किसानों को तीन अलग तरह के नुकसान भी उठाने पड़ते हैं। पहला बैंक कृषि ऋण देने में कोताही बरतना शुरू कर देते हैं, दूसरा किसानों को अनौपचारिक क्षेत्रों यानी सेठों और साहूकारों से कर्जा लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है जिससे उनकी लागत बढ़ जाती है। तीसरा और सीधा असर उनकी उत्पादकता पर पड़ता है। स्पष्ट है कि चुनिंदा ताकतवर लोगों को छोड़ दिया जाए तो ये कर्ज माफी लंबी अवधि में जरूरतमंद किसानों के लिए नुकसानदायक ही साबित होती है। साथ ही मुश्किलों से जूझ रहे बैंकों के लिए भी यह कवायद दोहरी मार वाली साबित होती है। बेहतर है कि किसानों के लिए ऐसे फौरी उपाय अपनाने के बजाय दीर्घावधिक लाभ वाली ठोस नीतियां बनाने पर विचार किया जाए।
  • देश की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी लगातार गिरावट के साथ औसतन 15 फीसद है जो करीब छह फीसद के वैश्विक औसत से काफी अधिक है। देश की जीडीपी लगातार करीब सात फीसद दर से वृद्धि कर रही है, जबकि जीडीपी में कृषि की भागीदारी में सतत गिरावट का रुख है। स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था में योगदान देने वाले उद्योग और सेवा जैसे अन्य क्षेत्रों की वृद्धि दर के मुकाबले कृषि क्षेत्र वृद्धि के मामले में पिछड़ रहा है। यानी एक बात तो बिलकुल साफ है कि कृषि क्षेत्र संकटों से घिरा हुआ है और इसमें सुधार के प्रयास अत्यंत आवश्यक हैं। लेकिन सुधार का उपाय कर्ज माफी तो कतई नहीं है।

रैयत बंधु योजना

  • किसानों की आय में वृद्धि एक अहम उपाय है। इस लिहाज से तेलंगाना ने अपनी रैयत बंधु योजना के माध्यम से नई राह दिखाई है। राज्य ने दो फसल सीजन के दौरान चालू वित्त वर्ष के लिए अनुमानित 58.33 लाख किसानों तक 8,000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से वितरित करने के लिए 12,000 करोड़ रुपये आवंटित कर दिए और राजनीतिक लाभ भी लिया। भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में राजनीतिक दलों की मजबूरियों को दरकिनार किया जाए और जरूरतमंद किसानों की परिस्थितियों से मुंह मोड़ा जाए तो भी एसबीआइ रिसर्च के आंकड़ों के मुताबिक प्रत्यक्ष आय समर्थन मुहैया कराना कहीं अधिक प्रभावी और किफायती विकल्प हो सकता है जिसके तहत 21.6 करोड़ छोटे एवं सीमांत किसान परिवारों को 12,000 रुपये प्रति वर्ष प्रति परिवार मुहैया कराया जा सकता है जिसका खर्च 50,000 करोड़ रुपये होगा।
  • देश भर में किसानों की आय बढ़ाने के लिए सरकार को उनके लिए अन्य सहायक विकल्पों की ओर ध्यान देना होगा और उसे प्रोत्साहित करना होगा। किसानों की आय बढ़ाने के लिए नए कोल्ड स्टोरेज बनाने और भंडारण क्षमता का विस्तार करने, घरेलू बाजारों को अंतरराष्ट्रीय बाजारों से जोड़ने, भूमिहीन छोटे किसानों के लिए मनरेगा जैसी योजनाओं को विस्तार देने, आपूर्ति चेन से जुड़े पहलुओं पर गंभीरता से विचार करने, -मंडियों को नया स्वरूप देने और उनसे ज्यादा से ज्यादा किसानों को जोड़ने जैसे अनेक प्रयास किए जा सकते हैं जिससे अपने खून-पसीने और मेहनत से देश के खेतों में अन्न उपजाने और 130 करोड़ लोगों का पेट भरने वाला किसान तो कम से कम चैन की नींद सो सके।
  • राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि सिर्फ सत्ता पाने के मामूली लोभ के लिए देश के आर्थिक हितों से समझौता करें और मिलजुलकर समस्याओं के स्थाई समाधान की दिशा में

3.आरबीआई गवर्नर के नाम एक खुला पत्र

प्रिय गवर्नर,

  • भारत के मुख्य मौद्रिक अधिकारी के तौर पर अपना पद संभालने के दिन ही आपने ट्वीट किया था: 'भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर का पदभार संभाल लिया। आप सबकी शुभकामनाओं के लिए शुक्रिया।' इसके कुछ दिन बाद ही बोर्ड बैठक के बाद आपने फिर ट्वीट कर कहा 'आरबीआई के सेंट्रल बोर्ड की बैठक अच्छी रही। इसमें तमाम मुद्दों पर चर्चा की गई।' दुनिया के अन्य केंद्रीय बैंक प्रमुखों के बारे में तो मुझे मालूम नहीं है लेकिन यह पहला मौका है जब आरबीआई का कोई गवर्नर सोशल मीडिया में अपनी बात रख रहा है। आपने मिंट रोड स्थित आरबीआई मुख्यालय में ग्लासनोस्त लाने की पहल की है। इसके लिए धन्यवाद।

  • अगर आरबीआई के इतिहास में ऐसा सुना नहीं गया है तो केंद्रीय बैंक में आपके आगमन के पहले की कई घटनाएं भी अभूतपूर्व हैं। असल में, आरबीआई गवर्नर के इस्तीफा देने की घटना पहले भी हुई है लेकिन इससे पहले कभी भी वह कड़वाहट के खुलेआम प्रदर्शन का विषय नहीं बनीं। आप पहले भी आरबीआई बोर्ड का हिस्सा रह चुके हैं और यह आपको बढ़त देता है। वर्ष 1997 में विमल जालान पूर्वी एशियाई वित्तीय संकट के दौर में आरबीआई गवर्नर बने थे। सितंबर 2008 में डी सुब्बाराव के मिंट रोड दफ्तर आने के एक हफ्ते बाद ही अमेरिका का दिग्गज निवेश बैंक लीमन ब्रदर्स धराशायी हो गया और उसके बाद पूरी दुनिया सबसे बड़े आर्थिक संकट की गिरफ्त में गई थी। रघुराम राजन ने जब अपना पद संभाला था तो विदेशी निवेशक भारत से फंड निकासी में काफी तेजी दिखा रहे थे।

  • आरबीआई मुख्यालय के कॉर्नर रूम स्थित दफ्तर में आपका प्रवेश भी इसी तरह घटना-प्रधान है लेकिन थोड़ा जटिल है। इसका बाहरी परिवेश से कोई लेना-देना नहीं है। वृहद आर्थिक संकेतक भी बहुत खराब नहीं हैं। मुद्रास्फीति नीचे है, स्थानीय मुद्रा स्थिर बनी हुई है और कच्चे तेल के दाम में तीव्र गिरावट से चालू खाता घाटा बढऩे का खतरा भी कम हो चुका है। लेकिन सरकार और आरबीआई के बीच अविश्वास की खाई गहरी हो चुकी है। मैंने भी बैंकिंग नियामक और बैंकों एवं अन्य बाजार हिस्सेदारों के बीच ऐसा अविश्वास कभी नहीं देखा है।

  • आपने आरबीआई की स्वायत्तता बनाए रखने और हरेक अहम मसले पर सहमति बनाने का वादा कर लोगों को सुकून पहुंचाया है। आपने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकरों से भी संपर्क साधा है। आपका एक ट्वीट केंद्रीय बैंक के प्रति आपके नजरिये का भी आभास देता है जिसमें आपने कहा था: 'तमाम केंद्रीय बैंकों की मौजूदा दौर में बेहद अहम भूमिका है। उनके सामने यह हालात समझने और अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए निर्णायक कदम उठाने की चुनौती है।' आपकी तात्कालिक चुनौती वैश्विक बाजार को यह बात मनाने की होगी कि आरबीआई अपनी स्वायत्तता नहीं गंवाएगा। दरअसल आरबीआई की स्वायत्तता बनाए रखने के साथ ही स्वायत्तता के बारे में सार्वजनिक राय भी अहम है। इसका मतलब है कि स्वायत्तता के प्रति केवल आपका विश्वास ही काफी नहीं है, आपको अपने क्रियाकलाप से भी इसे दिखाना होगा।

  • निस्संदेह, स्वायत्तता का जिम्मेदारी के साथ गहरा नाता है। इस संदर्भ में, मैं कुछ मुद्दों पर रोशनी डालना चाहता हूं। मैं आपको सलाह या सुझाव देने का साहस नहीं कर सकता। ये मुद्दे लंबे समय से आरबीआई पर नजर रख रहे व्यक्ति के आकलन भर हैं। आरबीआई ने हाल ही में एक प्रवर्तन प्रकोष्ठ गठित किया है जो संगठनात्मक ढांचे में हुआ एक बड़ा बदलाव है। लेकिन विकसित देशों के अधिकांश केंद्रीय बैंकों की तुलना में आरबीआई की बाजार खुफिया गतिविधि खराब है। संभवत: एक समर्पित प्रकोष्ठ होने से यह काम बेहतर हो पाएगा।

  • वित्तीय बाजारों के लिए एक तकनीकी समिति है लेकिन मुझे नहीं पता कि पिछले कुछ वर्षों में इसकी कितनी बैठकें हुई हैं? आपका बाजार में सक्रिय लोगों से सहमत होना जरूरी नहीं है लेकिन उनकी बात सुनने में क्या खराबी है? केंद्रीय बैंक के वरिष्ठ अधिकारियों ने बाजार एवं डेरिवेटिव संगठन फिम्मडा और विदेशी मुद्रा कारोबारियों के संगठन फेडाई की बैठकों में हिस्सा लेना भी बंद कर दिया है। भुगतान पर जारी आरबीआई के दृष्टि पत्र (2015-18) में भुगतान पर एक बाह्य समिति गठित करने की बात की गई थी। लेकिन इस बारे में शायद ही किसी ने कुछ सुना होगा?

  • शायद आपको नियमों एवं शासन संबंधी मामलों पर गौर करने के लिए एक पैनल बनाने की भी जरूरत पड़ेगी जिसमें बेदाग छवि एवं विशेषज्ञता वाले बाहरी सदस्यों को भी जगह दी जाए। फिलहाल वित्तीय पर्यवेक्षण बोर्ड वित्तीय नियमों एवं पर्यवेक्षण पर नजर रखता है लेकिन इसका ध्यान मूलत: निरीक्षण एवं अंकेक्षण पर ही होता है। विभिन्न सहभागियों से मिले फीडबैक के आधार पर नियमों के लिए एक ढांचा भी बनाया जा सकता है। आप तीन अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदुओं- मुद्रास्फीति पूर्वानुमान, तरलता प्रबंधन और विदेशी मुद्रा बाजार में आरबीआई का दखल के लिए भी एक ढांचा बनाने के बारे में सोच सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कई बार आरबीआई का मुद्रास्फीति पूर्वानुमान गलत साबित हुआ है। इससे आरबीआई की विश्वसनीयता कम होती है और नीतिगत दरों पर मौद्रिक नीति समिति के नजरिये को भी प्रभावित करती है।

  • अभी ओवरनाइट कॉल मनी रेट प्रणालीगत तरलता का मुख्य पैमाना है। लेकिन कॉल मनी समूची वित्तीय प्रणाली का बेहद छोटा हिस्सा है। हमें अस्थायी एवं टिकाऊ तरलता के प्रबंधन के लिए क्या एक ढांचा नहीं रखना चाहिए? सवाल है कि स्थानीय मुद्रा का सही स्तर क्या है? हम विदेशी मुद्रा बाजार में उठापटक को किस तरह आंकते हैं? आरबीआई को रुपया-डॉलर विनिमय की वरीय दर बाजार को बताने की जरूरत नहीं है लेकिन यह तय करने के लिए एक ढांचा तो होना ही चाहिए। आरबीआई को निवेश बैंंकरों, निजी इक्विटी प्रबंधकों और ट्रेजरी विशेषज्ञों का वरिष्ठ स्तर पर स्वागत करना चाहिए। दुनिया भर में केंद्रीय बैंकर अपनी विशेषज्ञता बढ़ाने के लिए ऐसा करते हैं। इसी तरह अपनी दक्षता बढ़ाने के लिए कुछ समय निजी क्षेत्र में बिताने के लिए आरबीआई अधिकारियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। लोकतांत्रिक स्थानांतरण नीति अपनाने के बजाय कुछ अधिकारियों को खास भूमिकाओं में बनाए रखने से भी विशेषज्ञता हासिल की जा सकती है।

  • आरबीआई को बैंकरों की नाखुशी से निपटने के लिए एक अपील निकाय बनाने के बारे में भी सोचना चाहिए। यह निकाय सेबी के आदेशों के खिलाफ अपील अधिकरण के तौर पर गठित सैट की तरह होकर ब्रिटेन की नियामकीय निर्णय समिति की तर्ज पर बनाया जा सकता है। यह समिति ब्रिटिश बैंकिंग नियामक का हिस्सा होते हुए भी परिचालन के मामले में अलग है। अंत में, अगर आप सलाहकारी बोर्ड को पर्यवेक्षक बोर्ड बनाना चाहते हैं तो आपको भारत के लगभग निष्क्रिय स्थानीय बोर्डों को पुनर्जीवित करने और सेंट्रल बोर्ड के पुनर्गठन की जरूरत होगी। इसमें सरकार की प्रमुख भूमिका होगी और नॉर्थ ब्लॉक से मेलजोल इस काम में मददगार होगा।

  • केंद्रीय बैंक का संचालन एक विज्ञान है, कि कला। अतीत के अधिकतर गवर्नरों ने अपने अनुभव, विशेषज्ञता और अंतर्दृष्टि से बेहतरीन काम किया है। फीडबैक के लिए तारीफ, सहमति बनाने की कोशिश और विभिन्न नीतियों के लिए अलग ढांचा तैयार करना इस विज्ञान को मुकम्मल बनाएगा।

बेहतरीन पारी की शुभकामनाओं के साथ,

भवदीय

तमाल बंद्योपाध्याय

  • धैर्य आवश्यक
  • ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) की दूसरी वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसकी प्रक्रिया का बचाव किया। उन्होंने यह सुझाव दिया कि आईबीसी में कोई भी बड़ा बदलाव करने से पहले हमें इस बात की प्रतीक्षा करनी चाहिए कि दिवालियापन की प्रक्रिया को लेकर शुरुआती हड़बड़ी पूरी तरह समाप्त हो जाए। उन्होंने इस बात पर भी अपनी सहमति जताई कि अगर अदालती मंजूरी वाले ऋणशोधन मामलों और अदालत के बाहर होने वाले निपटारे का उचित मिश्रण सुनिश्चित किया जाए तो संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकेगा। परंतु उनका यह कहना भी सही था कि आईबीसी के शुरुआती वर्ष यह दिखाने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे कि विधिक व्यवस्था में अब गड़बड़ी करने वालों के बचाव की बहुत अधिक गुंजाइश नहीं है। अब जबकि कई मामले इस प्रक्रिया से गुजर चुके हैं और नजीरें स्थापित हो चुकी हैं तो आशा की जानी चाहिए कि ऋणदाताओं और कर्जदारों के व्यवहार में भी कुछ बदलाव देखने को मिलेगा। ऐसे में यह देखना उचित होगा कि अदालत के बाहर होने वाले कौन से समझौते आईबीसी के लिहाज से सटीक बैठते हैं।
  • जेटली ने बताया कि बीते वर्षों में अदालत के बाहर समझौतों की प्रक्रिया की कोई कमी नहीं रही है। उनमें से कुछ प्रभावी भी साबित हुए हैं। परंतु अधिकांश मामलों में पूंजी लंबे समय तक फंसी रही या फिर कई मामलों में दिक्कतदेह व्यवहार को छिपाने का प्रयास भी किया गया। इस वर्ष के आरंभ में भारतीय रिजर्व बैंक ने ऐसी तमाम योजनाओं पर रोक लगा दी और यह सुनिश्चित किया कि दोषी ऋण के मामलों में आईबीसी की प्रक्रिया को तत्काल और अनिवार्य तौर पर लागू किया जाएगा। ऐसे में अगर अन्य योजनाओं की वापसी हुई तो यह केवल आरबीआई बल्कि आईबीसी के लिए भी उचित नहीं होगा। फिलहाल 800 से अधिक मामले ऋणशोधन की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और इनमें से आधे से अधिक अभी शुरुआती 180 दिन की अवधि वाले चरण को भी पूरा नहीं कर सके हैं। ऐसे में कुछ मायनों में राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट जरूर एक अस्वाभाविक अवधि से गुजर रहा है जहां ऋणशोधन की संपूर्ण रुकी हुई मांग से निपटना है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि ऋणशोधन की नियमित दर क्या होगी और क्या पंचाट को उससे निपटने के लिए अधिक क्षमता की आवश्यकता होगी।

  • जेटली के हस्तक्षेप के लिए ताजा उत्प्रेरक का काम वित्त मंत्रालय के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के एक पर्चे ने किया जो ऋणशोधन प्रक्रिया पर आधारित है। राजन तथा उनके कुछ सहयोगियों ने यह पर्चा अगले पांच वर्षों के आर्थिक एजेंडे को ध्यान में रखते हुए जारी किया है। राजन ने दलील दी थी कि पंचाट का अतिशय इस्तेमाल हो रहा है और आदर्श स्थिति में उसे केवल बड़े मामलों के लिए आरक्षित रखा जाना चाहिए। उनकी बात सही है। एक सुव्यवस्थित तंत्र में केवल सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मामले ही अदालत तक जाने चाहिए। अन्य मामलों को बिना अदालती क्षमता पर बोझ डाले निपटाया जा सकता है। बहरहाल, यह मानना ठीक नहीं होगा कि हमारे देश में व्यवस्था इतनी परिपक्व हो चुकी है। ऐसा केवल व्यवहार के स्तर पर आने वाले बदलाव और नजीरों से ही हो सकेगा। अगर अंत में केवल सबसे महत्त्वपूर्ण मामले ही अदालत तक जाएं तभी उचित होगा। वित्त मंत्री की यह सलाह उचित है कि आईबीसी की प्रक्रिया में कोई भी संशोधन तभी किया जाना चाहिए जब शुरुआती हड़बड़ी पूरी तरह दूर हो चुकी हो।

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