- हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘Turning Promises in to action : Gender equality in 2030 agenda’ नाम की एक रिपोर्ट आई है.
- इसके अनुसार देश में दलित वर्ग की महिलाओं की औसत उम्र ऊंची जाति की महिलाओं की तुलना में 14.6 साल कम है. रिपोर्ट के मुताबिक कमजोर साफ-सफाई, पानी की अपर्याप्त आपूर्ति और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी जैसी वजहों के कारण जाति का भेद और भी ज्यादा गहरा जाता है.
- रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि सामान्य आर्थिक स्थिति वाले घरों में महिलाओं का 12 प्रतिशत समय, पानी और जलावन का इंतजाम करने में ही निकल जाता है. जबकि गरीब और दलित महिलाओं को इसी काम में दोगुना यानी 24 प्रतिशत समय लग जाता है. यानी सामान्य वर्ग की महिलाओं की तो हालत खराब है ही, दलित और गरीब वर्ग की महिलाओं के मामले में हाल और बुरा हो जाता है. उदाहरण के तौर पर स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच के मामले में दलित और गरीब महिलाएं हमारे यहां सबसे नीचे पायदान पर हैं. वैसे इस मामले में खाते-पीते घरों की स्थिति भी बस गरीब परिवार के पुरुषों के बराबर ही है.
- शिक्षा के क्षेत्र की बात करें तो भारत में पुरुषों की साक्षरता दर 85 प्रतिशत है और महिलाओं की सिर्फ 65 प्रतिशत. लेकिन दलित महिलाओं की शिक्षा दर इससे भी आठ प्रतिशत कम यानी 57 प्रतिशत ही है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था में उनकी हैसियत ही यह भी तय करती है कि कार्यस्थल पर उनका कितना शोषण हो सकता है.
- समाजशास्त्रियों का कहना है कि भारतीय समाज में आज भी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है.
- यह फर्क खाने-पीने से लेकर शिक्षा, चिकित्सा, बुनियादी सुविधाओं और व्यक्तिगत आजादी तक हर क्षेत्र में देखा जा सकता है. घरों में खाने की ज्यादा मात्रा और पौष्टिक चीजें सिर्फ पुरुषों को ही दी जाती हैं. यहां तक कि घर में खाने के लिए उपलब्ध हर चीज पर पहला हक पुरुषों का ही होता है. महिलाओं को अक्सर बचे हुए खाने में ही काम चलाना होता है. यही वजह है कि शरीर की पौष्टिकता की जरूरतें सारी जिंदगी ही पूरी नहीं हो पातीं. इस कारण शरीर कमजोर ही रहता है और जल्दी-जल्दी बीमारियों की चपेट में आता है.
- हमारे समाज में अक्सर ही महिलाओं की बीमारियों की लंबे समय तक पूरी तक अनदेखी की जाती है. वे किसी तरह बिना डाॅक्टर के पास जाए ही ठीक हो जाएं या काम चल जाए, इस बात का ही इंतजार किया जाता है. इस कारण अक्सर ही साध्य बीमारी भी सही समय पर इलाज न होने से लाइलाज बन जाती हैं. कभी-कभी टीबी जैसी साध्य बीमारी भी महिलाओं की मौत का कारण बन जाती है. ये सारी स्थितियां वैसे सामान्य महिलाओं पर भी लागू होती हैं, लेकिन दलित और वंचित तबके की महिलाओं के मामले में स्थिति और भी खराब हो जाती है क्योंकि पहले ही इस तबके तक खाने, साफ पानी और चिकित्सा की बुनियादी सुविधाएं सबसे कम पहुंचती हैं. और जितनी पहुंचती हैं, उनमें से भी बची-खुची ही दलित महिलाओं तक पहुंचती हैं.
- पारिवारिक उपेक्षा के साथ-साथ दलित महिलाएं सीधे तौर पर भी सामाजिक हिंसा के निशाने पर भी सबसे ऊपर होती हैं. एक तरफ वे सार्वजनिक रूप से सीधे तौर पर यौन शोषण और अपमान की सबसे ज्यादा शिकार होती हैं. दूसरी तरफ सामाजिक उपेक्षा और अपमान सहने के कारण अक्सर ही दलित पुरुष ज्यादा कुंठाग्रस्त रहते हैं. यह कुंठा भी दलित महिलाओं के खिलाफ शारीरिक और मानसिक घरेलू हिंसा का कारण बनती हैं. आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं. नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार पिछले एक साल में घरेलू हिंसा के जो मामले दर्ज किए गए उनमें दलित महिलाओं से जुड़े मामलों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा (24.6 प्रतिशत) है. जानकारों के मुताबिक यह दोहरी हिंसा, उपेक्षा, अपमान और घोर अभाव आदि सब मिलकर दलित महिलाओं की उम्र कम करने का एक अहम कारण बन जाते हैं.
- दलित महिलाओं की उम्र अन्य महिलाओं की औसत उम्र से कम होने का मामला असल में जहां एक तरफ जाति व्यवस्था के बुरे परिणाम का मसला है, वहीं दूसरी तरफ यह लिंगभेद से भी गहराई से जुड़ा है. इंटरनेशनल दलित साॅलिडैरिटी नेटवर्क ने दलित स्त्रियों से जुड़ी हिंसा को नौ हिस्सों में बांटा था. इनमें से छह जाति आधारित पहचान के कारण होती हैं और तीन लिंगभेद के चलते. जाति के चलते पर जहां दलित महिलाओं को यौन हिंसा, गाली-गलौज, मारपीट, अन्य तरह के हमलों का शिकार होना पड़ता है. दूसरी तरफ, लिंगभेद के कारण उन्हें कन्या भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा और कम उम्र में विवाह के कारण होने वाले कई स्तरों के अत्याचार झेलने पड़ते हैं.
- लिंगभेद के कारण हमारे समाज में महिलाओं की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक स्थिति पुरुषों की अपेक्षा काफी दोयम दर्जे की है. ऐसे में जाति व्यवस्था के कारण जो तबका सामाजिक रूप से और भी ज्यादा वंचित स्थिति में है, वहां की महिलाओं के लिए यह उपेक्षा बढ़कर चौहरी हो जाती है. जानकारों का मानना है कि समाज में लैंगिक (जेंडर) संवेदनशीलता बढ़ाने और जातिवाद को घटाने की सख्त जरूरत है. उसके बिना कितनी भी ऊंची विकास दर महिलाओं के जीवन में सकारात्मक बदलाव नहीं ला सकेगी.