चिंताजनक है लड़कियों को समग्र शिक्षा नहीं मिलना
हालिया जारी क्राई की एक रिपोर्ट बताती है कि समाज में लड़कियों को शिक्षा मुहैया कराने के मामले में भेदभाव पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। रिपोर्ट में बताया गया है कि स्कूल छोड़ने वाली हर चार लड़कियों में से एक घर के लिए पैसे कमाती है। हर दस में से एक लड़की घर में छोटे बच्चों का ख्याल रखती है। नतीजन आज भी ऐसी लड़कियों की तादाद काफी है जो मुश्किल से प्राइमरी स्कूल तक ही जा पाती हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक 14 वर्ष की उम्र से पहले ही दो तिहाई बच्चियां स्कूल छोड़ देती हैं और आज भी महज 58 प्रतिशत बच्चियां उच्च प्राथमिक स्तर तक जा पाती हैं। सवाल यह है कि कम उम्र में ही ऐसी जिम्मेदारियों का बोझ बच्चियों के हिस्से क्यों? आखिर शिक्षित होने और सबल बनने के मोर्चे पर बेटियां कब तक जूझती रहेंगीं? वो भी तब जबकि हमारे देश में स्त्रियों के जीवन से जुड़ी कई समस्याओं की वजह उनका शिक्षित न होना ही रहा है।
शिक्षा, जीवन में बदलाव व बेहतरी का सवरेत्तम माध्यम है। सोच बदलने से लेकर सजग और सशक्त व्यक्तित्व गढ़ने तक शिक्षा की महती भूमिका है। भारत जैसे देश में तो महिलाओं की शिक्षा के आंकड़ों की अहमियत और बढ़ जाती है, जहां आधी आबादी को शिक्षित होने का बुनियादी हक पाने के लिए भी अनगिनत उलझनों से जूझना पड़ता है। स्कूल जाने और उच्च शिक्षा पाने तक, कितने ही पड़ावों पर भेदभाव भरा व्यवहार बच्चियों के हिस्से आता है। घर-परिवार के कामकाज का दायित्व भी उनकी पढ़ाई में बड़ी रुकावट बनता है। घर की कमजोर आर्थिक स्थिति, सामाजिक असुरक्षा के चलते कम उम्र में शादी या छोटे भाई-बहनों की देखभाल जैसे कई कारणों से बेटियां समुचित शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। हमारे सामाजिक ढांचे में आज भी ऐसी ऐसी जिम्मेदारियां और बंधन बिना सोचे-समङो बेटियों की झोली में डाल दिए जाते हैं। घर के कमजोर आर्थिक हालातों के कारण सबसे पहले बेटियों की पढ़ाई छूटती है। इस अध्ययन के मुताबिक 21 फीसद बच्चियों को पैसे की कमी के कारण स्कूल छोड़ना पड़ा है।
उल्लेखनीय है कि हमारे यहां स्कूल जाने वाली बच्चियों में से 49.4 फीसद उन परिवारों से हैं जिनकी आय पांच हजार रुपये प्रति माह या उससे कम है। ऐसे घरों में अधिकतर अभिभावक मजदूरी या खेती कर परिवार चलाते हैं। इसीलिए बेटियों को छोटे भाई-बहनों की देखभाल और दूसरे घरेलू कामों में लगा देते हैं। रिपोर्ट बताती है कि गुजरात में स्कूल छोड़ने वाली बच्चियों में से 95.4 प्रतिशत, हरियाणा में 81.7, आंध्र प्रदेश में 72.7 और बिहार में 60 फीसद अभिभावक बच्चियों को घर के कामों में व्यस्त कर देते हैं। देश भर में पढ़ाई छोड़ने वाली लड़कियों में से 55 प्रतिशत लड़कियों को छोटे भाई-बहनों का ख्याल रखने के लिए स्कूल से दूरी बनानी पड़ती है। आंध्र प्रदेश में 69.7 फीसद, गुजरात में 67.7 प्रतिशत, हरियाणा में 33.3 प्रतिशत और बिहार में 31.5 प्रतिशत लड़कियां इसी वजह से स्कूल छोड़ देती हैं। बचपन में ही बच्चों को संभलाने का दायित्व उन्हें घर की चहारदीवारी तक समेट देता है। यह वाकई चिंतनीय है कि घर-परिवार के ऐसे हालात बेटियों को स्कूल से दूर कर देते हैं।
हमारा सामाजिक ढांचा भी बेटियों की शिक्षा में बाधा बनता है। जो परिवार आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं, वे भी कहीं न कहीं बेटियों की पढ़ाई से ज्यादा उनके विवाह को लेकर चिंतित रहते हैं। गांवों-कस्बों में आज भी सामाजिक रूप से लड़कियों पर जल्द से जल्द घर बसाने का दबाव होता है। खासकर गरीब परिवारों के अभिभावक उनकी शादी कर एक बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त होने की सोचते हैं। क्राई की इस रिपोर्ट में बिहार से सामने आए आंकड़ों के मुताबिक स्कूल छोड़ने वाली सभी बच्चियों में से 20 फीसद बच्चियों के माता-पिता उनकी जल्दी शादी कराने के इच्छुक हैं। साथ ही गुजरात में 3.9, आंध्र प्रदेश में 21.2 और हरियाणा में 11.7 प्रतिशत माता-पिता बच्चियों की शादी जल्द करना चाहते हैं। कहना गलत नहीं होगा कि इसकी एक बड़ी वजह असुरक्षा के हालात भी हैं। दूर-दराज के इलाकों में स्कूल आते-जाते लड़कियों के साथ छेड़छाड़, और यहां तक कि दुष्कर्म की घटनाएं भी आए दिन सामने आती हैं। ऐसे मामले भी सामने आए हैं जिनमें बच्चियों के साथ बर्बर हादसे हुए हैं। देश भर में स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 25.2 फीसद लड़कियां स्कूल दूर होने की वजह से पढ़ाई छोड़ देती हैं। अनहोनी का भय लड़कियों के स्कूल तक पहुंचने की हिम्मत पर भारी पड़ता है, जबकि अपने सपने साकार करने का अधिकार मिलना बेटियों के भावी जीवन की बेहतरी के लिए ही नहीं, व्यक्तित्व विकास के लिए भी जरूरी है। शिक्षित बेटियां अपने अधिकारों को लेकर भी सजग बन पाती हैं।
हालांकि बीते कुछ बरसों में महिला साक्षरता के आंकड़े बदले हैं और उच्च शिक्षा में उनकी भागीदारी का ग्राफ बढ़ा है। हर क्षेत्र में शिक्षित बेटियों के बढ़ते आंकड़ों ने देश की अर्थव्यवस्था में भी उनकी भागीदारी सुनिश्चित की है। सुखद है कि मौजूदा समय में बेटियां शिक्षित हो रही हैं और आत्मनिर्भर भी। तकरीबन हर क्षेत्र में अपना दखल भी रखती हैं। पर बुनियादी स्तर पर उन्हें आज भी ऐसे कई मोर्चो पर लड़ाई लड़नी पड़ रही है, जो सामाजिक- पारिवारिक ढांचे में बदलाव आए बिना नहीं जीती जा सकती।
निस्संदेह इस बदलाव में हर परिवार की भूमिका तो अहम है ही, समग्र रूप से समाज की भागीदारी भी जरूरी है। इससे ज्यादा अफसोसनाक बात क्या होगी कि बेटियों की शिक्षा अपने ही घर के हालातों से जूझते हुए हाशिये पर चली जाय। बड़ों की जिम्मेदारियां निभाने में उन्हें शिक्षित होकर सम्मान और पहचान पाने का हक भी ना मिले, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने का सपना पूरा ना हो पाए। इसीलिए बच्चियों के सर्वागीण विकास के लिए जरूरी है कि घर के भीतर उनको ऐसे दायित्वों से मुक्त रखा जाय जो उनकी जिम्मेदारी है ही नहीं। साथ ही समाज में भी समानता और सुरक्षा का माहौल बने, शैक्षणिक संस्थाओं में बुनियादी सुविधाओं का इंतजाम किया जाय, ताकि बच्चियों की शिक्षा में कोई रुकावट ना आए। हमें यह भी समझना होगा कि देश को महिला शिक्षा का लाभ केवल आर्थिक मोर्चे पर ही नहीं मिलता, सामाजिक और पारिवारिक उन्नति में भी बेटियों की शिक्षा का बड़ा योगदान होता है।
देश भर में शिक्षा के मामले में लड़कियों के साथ भेदभाव का व्यवहार अब भी कायम है। हालांकि इसके कई कारण हैं, लेकिन आर्थिक और सामाजिक पहलू इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। हाल ही में आई एक गैर सरकारी संगठन क्राई (चाइल्ड राइट्स एंड यू) की एक रिपोर्ट ‘एजुकेटिंग द गर्ल चाइल्ड’ के मुताबिक घरेलू जिम्मेदारियां भी बेटियों की शिक्षा में बड़ी बाधा बन रही हैं। देश के चार हिस्सों से चुने गए चार राज्यों- बिहार, आंध्र प्रदेश, गुजरात और हरियाणा से 20-20 गांवों का अध्ययन करने पर सामने आया है कि देश में स्कूल जाने वाली बच्चियों में से 76 प्रतिशत और स्कूल छोड़ने वाली बच्चियों में से 90 प्रतिशत बच्चियां घरेलू कार्यो में शामिल होती हैं जिस कारण उन्हें समुचित शिक्षा नहीं हासिल हो पाती है
आर्थिक भेदभाव से मुक्त हो शिक्षा
इसी वर्ष प्रकाशित नीति आयोग की स्कूली शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक के अनुसार सरकारी स्कूलों के नामांकन अनुपात में भारी गिरावट आई है। इंस्टिट्यूट ऑफ एजुकेशन लंदन द्वारा जारी वर्ष 2017 की एक शोध रिपोर्ट के अनुसार भारत के सरकारी स्कूलों में नामांकन दर में गिरावट आई है। यहां पिछले पांच वर्षो में यह आंकड़ा 122 से 108 छात्र प्रति विद्यालय की दर से घटा है। इसके विपरीत निजी स्कूलों में यह संख्या 202 से बढ़कर 208 पहुंच गई है।
इसके अलावा यूडीआइएसई यानी यूनीफाइड डिस्टिक्ट इन्फोर्मेशन ऑन स्कूल एजुकेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 तक सरकारी स्कूलों में कुल नामांकन नौ प्रतिशत तक गिर गया है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 से 2015 की अवधि में कुल छात्र नामांकन में गिरावट नहीं हुई, वरन निजी स्कूलों के नामांकन में 36 प्रतिशत वृद्धि हुई है जो सरकारी स्कूल में घटी है। पिछले एक दशक में स्कूलों के स्वामित्व में भारी बदलाव हुआ है। निजी स्कूलों की वैसे तो विभिन्न श्रेणियां हैं, परंतु एक श्रेणी ग्रामीण और शहरी भारत में तेजी से बढ़ रही है, और वह है बजट निजी स्कूलों की। ऐसे स्कूलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसके साथ उत्कृष्ट निजी स्कूल हैं जहां समुचित आधारभूत संरचनाएं, अच्छे शिक्षक, कम शिक्षक-शिष्य अनुपात जैसे प्रबंधन होते हैं, परंतु यहां के शुल्कों का भुगतान करना हर किसी के बस की बात नहीं है।
इसके विपरीत सामाजिक बदलावों पर अध्ययन करने वाली एक संस्था एफएसजी की बजट प्राइवेट स्कूल की एक रिपोर्ट बताती है कि ऐसे अधिकांश स्कूल एक मालिक या एक परिवार द्वारा चलाए जा रहे हैं, जो आज भी शुल्क संग्रह, शिक्षक भर्ती एवं आधारभूत संरचना जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। इसके बावजूद एफएसजी की रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार ये बजट स्कूल निकटतम भविष्य में 60 लाख से एक करोड़ बच्चों को शिक्षा मुहैया करा सकते हैं। इस बदलाव के व्यापक कारणों में भिन्नता है, लेकिन इसकी गहरी समझ हासिल करना भी आवश्यक है। सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी द्वारा वर्ष 2018 की बजट प्राइवेट स्कूल पर की गई एक शोध रिपोर्ट बताती है कि इन स्कूलों की जगह-जगह पर पहुंच, अंग्रेजी पर जोर, कम शिक्षक अनुपस्थिति और स्कूलों की अधिक जवाबदेही, इन स्कूलों की प्रसिद्धि का कारण है। भारत जैसे देश में जहां 2.6 करोड़ बच्चे 15 लाख विद्यालयों में पढ़ने के लिए जाते हैं, वहां शिक्षा गहन रूप से व्यक्तिगत हो चुकी है।
ऐसे में क्या हम इस बजट प्राइवेट स्कूलों को विकसित करने में निवेश करेंगे या सरकारी स्कूलों पर ध्यान केंद्रित करेंगे? मुफ्त शिक्षा देने वाले सरकारी स्कूल निजी स्कूलों की तुलना में कमतर होते जा रहे हैं। ऐसी ही स्थिति समाज में बड़े पैमाने पर भेदभाव और शोषण को जन्म देती है। इससे समाज में एक विभाजक रेखा बन रही है जो पूरे समाज को विभाजित कर रही है। ऐसे में जहां एक साधन संपन्न अमीर वर्ग अच्छी गुणवत्ता को शिक्षा को ‘खरीदने’ में सक्षम है तो वहीं निम्न या मजदूर वर्ग किफायती स्कूलों पर शिक्षा के लिए निर्भर है।
हालांकि सरकारी ढांचे की मौजूदा दशा के लिए अनेक कारक जिम्मेदार हैं। अब तो क्षेत्रीय सरकारी स्कूल केवल हाशिये के समुदाय के लिए ही बचे हैं, जहां के अभिभावक आर्थिक रूप से अधिक सक्षम नहीं हैं। ऐसे में हमें सरकारी ढांचे की जवाबदेही को मजबूत बनाना होगा जो कि इन सरकारी स्कूलों के ढांचे को कमजोर करता है। एक संबंधित विशेषज्ञ का कहना है कि निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले माता-पिता को यह एहसास होना चाहिए कि सरकारी तंत्र उनके बिना कभी अपनी पूरी क्षमता हासिल नहीं करेगा।
फिनलैंड जैसा देश जो स्कूली शिक्षा प्रणाली में विश्व में अग्रणी माना जाता है, उसने इस तथ्य को समझ लिया था कि विषम शिक्षा प्रणाली पीढ़ी दर पीढ़ी राष्ट्र के समानता के धागे को कमजोर कर देती है। शायद यही कारण है कि फिनलैंड ने इस संबंध में अपना नजरिया बदला और शिक्षा व्यवस्था में बड़ा बदलाव किया। हमें भी इस विषय पर गौर करना चाहिए।