किसानों को चाहिए साहसिक सुधार

Recent context

Indian agriculture is facing a severe crisis and complexity of market , Monsoon are giving tough life to farmers. India need a bold and historic reforms to revive farmers interest in agriculture.

#Editorial

देश के ज्यादातर राज्य गंभीर कृषि संकट की गिरफ्त में हैं। किसानों (Farmers) का असंतोष व उनकी बेचैनी दिनोंदिन आक्रामक होती जा रही है। मध्य प्रदेश के मंदसौर में जो कुछ हुआ, वह हमारे नीति-नियंताओं के लिए एक झकझोर देने वाला वाकया था।

  •  कोई छिपी हुई बात नहीं है कि किसानों को उनकी फसलों का सही मूल्य नहीं मिल पा रहा है।
  • उनकी आमदनी नहीं बढ़ रही है।
  • दालों और बागवानी उपज की बंपर पैदावार से इनकी कीमतों में भारी गिरावट आई है और किसानों के हक में मूल्यों के स्थिरीकरण की दिशा में कोई सांस्थानिक तंत्र काम नहीं कर रहा।

Solution found in loan waiver

कर्ज-माफी का कदम इस संकट का सुविधाजनक सियासी समाधान बनकर उभरा है। पर यह न सिर्फ आधा-अधूरा हल है, बल्कि गलत भी है।

  • इससे फौरी राहत भले मिल जाए, मगर कृषि क्षेत्र में व्याप्त संकट का दीर्घकालिक समाधान यह कतई नहीं है।
  • आखिर साल 2008-09 में भी किसानों के कर्ज माफ हुए थे।
  • इसके बावजूद हम अब भी एक बड़े संकट के बीच हैं।
  • यदि हम किसानों की पूर्ण कर्ज-माफी के लिए अभी किसी तरह से संसाधन जुटा भी लें, तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि कुछ वर्षों बाद हम फिर से उसी मुहाने पर नहीं खड़े होंगे।
  • इसलिए कर्ज-माफी मर्ज की ठीक-ठीक पहचान किए बगैर दवा देने जैसी बात है।
  • यह दर्द-निवारक दवा की तरह है, जो फौरी राहत देती है, जड़ से उपचार नहीं करती।
    असली मसला यह है कि जब किसानों की उत्पादन लागत लगातार बढ़ रही है, तब तमाम रियायतों (सब्सिडी) के बावजूद वे अपने उत्पादन का वाजिब मूल्य नहीं हासिल कर पा रहे।

Solution lies in Agri Marketing

 जवाब कृषि बाजारों के सुधार में निहित है। सरकार के भीतर कृषि विभाग का मुख्य फोकस खेती-किसानी के इनपुट पर रहा है। हम मुख्य रूप से बीज, खाद, कीटनाशक व जल की उपलब्धता को संभालते रहे हैं। यह जरूरी भी है, क्योंकि जैसी कि कहावत है- सब कुछ इंतजार कर सकता है, मगर खेती में यदि चीजें वक्त पर नहीं हुईं, तो फिर उसका कोई अर्थ नहीं रहता, यानी ‘का वर्षा जब कृषि सुखाने?’ वक्त पर बीज, खाद, कीटनाशक और पानी की जो यह जरूरत है, वह एक भारी कवायद की मांग करती है और दैनिक रूप से उसकी निगरानी करनी पड़ती है। हालांकि, तकनीकी तरक्की के कारण आज ‘इनपुट मैनेजमेंट’ बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं रह गया है। असली मसला यह सुनिश्चित करना है कि किसानों को उनकी पैदावार के सही दाम मिलें।

Fault lies in Minimum Support Price

औद्योगिक क्षेत्र के उदारीकरण की शुरुआत 1991 में ही हो गई थी, मगर इन सुधारों ने कृषि क्षेत्र की अनदेखी कर दी। पुरानी APMC (कृषि उत्पाद बाजार समिति) ही यह तय करती है कि एक किसान कहां और कैसे अपनी उपज को बेचेगा? आज भी किसानों की फसल का दाम तय करने का एकमात्र साधन एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) तंत्र ही है।

  • पिछले वर्षों से APMC में सुधार की बातें होती रही हैं, मगर इसके लिए निर्णायक कदम आज तक नहीं उठाया जा सका है।
  • किसानों को मुनाफा दिलाने में मंडियां बड़ी भूमिका निभाती हैं।
  • पूर्व में गल्ला कारोबारियों के बिचौलिए बेरोक-टोक किसानों का शोषण करते रहते थे, लेकिन मंडी-व्यवस्था ने बिचौलियों की भूमिका खत्म करने की कोशिश की। इस काम में वह कामयाब भी हुई है, पर अब पूरा आर्थिक परिदृश्य ही बदल गया है, इसलिए गतिशील समाधान की आवयश्यकता है।
  • कृषि क्षेत्र का उदारीकरण वक्त की मांग है।

What to be done

  • कृषि उत्पादों को अब एक राज्य से दूसरे राज्य, बल्कि दूसरे देश में निर्बाध रूप से ले जाने और लाने की अनुमति दी जानी चाहिए।
  • इस कार्य की आजादी की राह में खड़ी रुकावटों को खत्म करने की जरूरत है। यही एकमात्र उपाय कृषि फसलों के मूल्यों में स्थिरता ला देगा।
  • आधुनिक संचार माध्यमों के कारण किसानों (Farmers) के लिए यह पता लगाना अब मुश्किल नहीं है कि कहां किस फसल का क्या दाम है, और इस तरह वे जहां चाहें, अपनी फसल बेच सकेंगे।
  • सीधे उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद बेचने को लेकर किसानों पर कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिए। खासकर बागवानी उपज की बिक्री के मामले में।
  • दरअसल, एपीएमसी में सुधार को लेकर इसलिए सफलता नहीं मिल रही है, क्योंकि राज्य सरकारें ‘कांट्रेक्ट फार्मिंग’ यानी अनुबंधित खेती की अवधारणा का विरोध कर रही हैं। असल में सरकारें अनुबंधित खेती की अनुमति देने के राजनीतिक नतीजों से डरती हैं, इसीलिए वे किसानों के सीधे कृषि प्रसंस्करण क्षेत्र से जुड़ने की राह में बड़ी बाधाएं खड़ी कर रही हैं। हालांकि, अनुबंधित खेती में किसानों के शोषण के डर को खत्म करने के लिए एक संस्थागत तंत्र खड़ा किया जा सकता है।
  • न्यूनतम समर्थन मूल्य का तंत्र मूलत: धान और गेहूं जैसे अनाज के मामले में ही काम करता है। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) इनकी खरीद करता है। सच्चाई यह है कि निगम सिर्फ पंजाब व हरियाणा के खरीद लक्ष्य को पूरा करने में ही सक्षम है। उसके पास न तो संसाधन हैं और न ही यह इच्छा कि वह पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार जैसी जगहों से खरीद करे, जबकि इन्हीं इलाकों में नई हरित क्रांति शुरू करने की बातें की जा रही हैं। जाहिर है, पिछड़े इलाकों को एमएसपी तंत्र से कोई फायदा नहीं मिल रहा।
  • छोटी जोत वाले किसानों की तादाद देखें, तो उन्हें संगठित करने का कोई विकल्प नहीं है। देश के कॉरपोरेशन राजनीतिकरण के कारण अपने मकसद में नाकाम हो चुके हैं। इसलिए जरूरी है कि किसानों के संगठन बनें, क्योंकि छोटे किसान अपने तईं मोल-तोल नहीं कर सकते। संगठन कर सकते हैं। साफ है, मौजूदा संकट का इलाज कृषि बाजार में साहसिक सुधार के भीतर है, न कि सब्सिडी व कर्ज-माफी जैसे कदमों में।
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