#Dainik_Jagaran
रासायनिक खाद के लगातार उपयोग से जमीन की सेहत कमजोर होती जा रही है। कहीं-कहीं तो हालात बहुत ही खराब हैं। अधिक उपज लेने की कोशिश में किसान भविष्य के लिए पैदा हो रहे संकट को नहीं समझ पा रहे हैं। किसानों के बीच जागरूकता जरूरी है।
- कृषि के यांत्रिकीकरण का यह एक स्याह पहलू है कि छोटे और सीमांत किसानों ने भी पशुपालन को त्याग दिया। इन्हीं पशुओं के गोबर से बनी खाद खेतों की सेहत के लिए ताकत थी। अब ऐसे किसान बैल की जोड़ी नहीं रखते।
- किराए के टैक्टर से जुताई का काम ले लेते हैं। गिने चुने किसानों ने ही वर्मी कम्पोस्ट का प्रशिक्षण लिया है
- ऐसी स्थिति में रासायनिक खाद पर निर्भरता बढ़ गई है।
- वर्षो से ऐसी खाद के उपयोग से मिट्टी की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है। हालात यही रहे तो मिट्टी को रेत बनते देर नहीं।
जैविक खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से चालू वित्तीय वर्ष में 130 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना है। किसानों को इस योजना का लाभ उठाना चाहिए। सरकार का मानना है कि इन उपायों से फसलों के उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि होगी, जिसका लाभ किसानों को मिलेगा। कृषि विश्वविद्यालयों को भी संसाधन संपन्न बनाने की कवायद जारी है, ताकि बिहार की कृषि को लाभ मिल सके। हाल ही में कृषि विश्वविद्यालय सबौर ने गेहूं का ऐसा प्रभेद विकसित किया है, जो कम सिंचाई में भी किसानों के लिए लाभदायक सिद्ध होगा। राज्य का बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में आ जाता है। पर्याप्त सिंचाई की व्यवस्था न होने से इन क्षेत्रों के किसान साल में एक ही फसल ले पाते हैं। यदि पर्यावरणीय परिवर्तन को देखते हुए फसलों के नए प्रभेद विकसित होते रहे तो इसका सीधा लाभ राज्य की कृषि और किसानों को मिलेगा। इन सब उपायों के बीच जरूरी है कि किसानों के बीच जागरूकता पैदा की जाए। उन्हें लाभ-हानि का गणित समझाया जाए। साथ ही पशुपालन के प्रति जागरूक किया जाए, ताकि जैविक खेती को और बल मिले