खेती से होने वाली आमदनी को टैक्‍स

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Some Question which needs to be answered:

पिछले महीने नीति आयोग के सदस्‍य बिबेक देबराय ने सुझाव दिया कि मौसमी उतार-चढ़ाव को समायोजित करने के बाद किसानों की आय पर अन्‍य नागरिकों के समान कर लगना चाहिए। उनके बयान आते ही देश भर में किसानों के तथाकथित रहनुमाओं की बाढ़ आ गई। सुझाव का विरोध करने वालों ने तनिक भी नहीं सोचा कि अब तक खेती से होने वाली आमदनी टैक्‍स के दायरे से बाहर रही है, फिर भी किसान खुशहाल क्‍यों नहीं है?

A look on figures:

Ø  देश के 12 करोड़ किसानों में से 10 हेक्‍टेयर से ज्‍यादा जमीन रखने वाले किसान मात्र चार फीसदी (48 लाख) हैं।

Ø  इनमें से 4 लाख किसान हर साल हजारों करोड़ रुपये की आयकर छूट का लाभ उठाते हैं जो कि कुल किसान आबादी का महज 0.33 फीसदी हैं।

Ø  इन चार लाख किसानों में अधिकांश कागजी किसान हैं जो पेशे से चिकित्‍सक, फिल्‍मी कलाकार, चार्टर्ड एकाउंटेंट, व्‍यापारी, नौकरशाह हैं। ये नकली किसान अपनी काली कमाई को सुरक्षित ठिकाने लगाने के लिए किसान बने बैठे हैं।

जिस समय नेता से लेकर उद्योगपति तक कृषि आय पर कर लगाने के सुझाव का विरोध कर रहे थे, उसी समय महाराष्‍ट्र के किसान मुंबई स्थित कृषि विभाग के मुख्‍य द्वार पर प्‍याज और अरहर फेंककर अपना विरोध जता रहे थे क्‍योंकि उन्‍हें इन फसलों की वाजिब कीमत नहीं मिल रही थी। गौरतलब है कि इस साल महाराष्‍ट्र में अरहर की बंपर पैदावार हुई है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सरकार ने पूरे देश में 11 लाख टन अरहर खरीदी है, उसमें चार लाख टन अरहर अकेले महाराष्‍ट्र में खरीदी गई है। यद्यपि सरकार ने अरहर का समर्थन मूल्‍य 5050 रुपये प्रति क्विंटल निर्धारित किया है लेकिन सरकारी खरीद के कमजोर नेटवर्क के चलते अधिकांश किसानों को 4200 रुपये प्रति क्विंटल से ज्‍यादा की कीमत नहीं मिल पा रही है। दूसरी विडंबना यह है कि इस साल सरकार ने 10114 रुपये प्रति क्विंटल की दर से 27.8 लाख टन अरहर दाल का आयात किया।

कमोबेश यही हालात दूसरी दालों की भी है। जिस देश की आधे से अधिक कार्यशील आबादी खेती पर निर्भर हो वहां विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की ऊंची विकास दर के बल पर देश का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता। उदारीकरण के दौर में खेती-किसानी की बदहाली और बढ़ती असमानता इसका ज्‍वलंत प्रमाण है।

Need Visionary farm Policy:

 स्‍पष्‍ट है विकास का लक्ष्‍य तभी पूरा होगा जब विकास नीति को दूरगामी नतीजे देने वाले सड़क, सिंचाई और सरकारी खरीद पर केंद्रित किया जाए। उल्‍लेखनीय है कि सिंचित रकबे और सड़कों की लंबाई में एक-एक फीसदी की बढ़ोत्‍तरी से कृषि विकास दर में क्रमश: 0.98 फीसदी और 0.94 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी होती है। कृषि उपज के कारोबार में एक फीसदी के इजाफे से कृषि विकास दर में 1.7 फीसदी का इजाफा होता है। इन्‍हीं सुविधाओं के बल पर गुजरात ने एक दशक से अधिक समय तक 10 फीसदी से अधिक कृषि विकास दर हासिल की।

समस्‍या यह है कि इक्‍का-दुक्‍का राज्‍यों को छोड़कर अधिकांश राज्‍य इन दूरगामी उपायों को अपनाने के बजाय सस्‍ते कर्ज और सब्सिडी के जाल में उलझे हुए हैं। नतीजन कृषि ऋणों में अभूतपूर्व बढ़ोत्‍तरी के बावजूद किसानों की बदहाली बढ़ती जा रही है। दरअसल, जितना अधिक कर्ज बंटता है किसान उतने ही ज्‍यादा कर्ज में डूबते जाते हैं। राष्‍ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 59वें सर्वे के मुताबिक 2003 में देश के 48 फीसदी किसान ऋणग्रस्‍त थे।

खेती से जुड़े कई अध्ययन बताते हैं कि किसानों की ऋणग्रस्‍तता व आत्‍महत्‍या की मुख्‍य वजह उपज की वाजिब कीमत न मिलना है। कृषि ऋण पर राधाकृष्‍णन समिति (2007) और 2006 में गठित राष्‍ट्रीय किसान आयोग ने भी यही बताया था। कृषि लागत एवं मूल्‍य आयोग 23 फसलों के लिए न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य तय करता है लेकिन खरीद होती हो मुख्‍यत: गेहूं और धान की। इनकी सरकारी खरीद भी केवल अग्रणी उत्‍पादक राज्‍यों तक सीमित रहती है। यही कारण है कि देश के महज 6 फीसदी किसान समर्थन मूल्‍य का लाभ पाते हैं और 94 फीसदी किसान अपनी उपज की बिक्री हेतु स्‍थानीय साहूकारों पर निर्भर रहते हैं। इस साल उत्‍तर प्रदेश में योगी सरकार ने पूरे प्रदेश में पांच हजार गेहूं खरीद केंद्र के जरिए 80 लाख टन गेहूं खरीदने का लक्ष्‍य रखा है। यह एक प्रगतिशील कदम है। स्‍पष्‍ट है संपन्‍न किसानों को टैक्‍स के दायरे में लाने का विरोध करने मात्र से खेती फायदे का सौदा नहीं बनेगी। किसानों की आमदनी तभी बढ़ेगी जब सस्‍ते कर्ज बांटने से आगे बढ़कर सड़क, बिजली, सिंचाई जैसी मूलभूत सुविधाओं के साथ-साथ कृषि उपजों के कारोबार को बढ़ावा दिया जाए।

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