आजादी के 70 वर्षों बाद भी कुछ अनसुलझे सवाल

कैसा लगता है यह जानकर कि बांग्लादेश तो छोड़िए, पाकिस्तान और इराक भी लिंग-भेद यानी नारी-सशक्तीकरण के स्तर पर हमसे काफी बेहतर हैं?

? अगर हमें बताया जाए कि 70 साल के स्व-शासन के बाद भी अमीर-गरीब के बीच बढ़ती असमानता में हम दुनिया के 188 देशों में 150वें नंबर पर हैं और यह खाई लगातार बढ़ती जा रही है, गलती किसकी है? हम हर पांच साल में सरकार चुनते हैं, लेकिन अपनी समस्याएं नहीं समझ पाते।

 पिछले सात दशकों में या फिर जबसे (1990 से) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी यूएनडीपी मानव विकास सूचकांक बनाने लगा है, तबसे एक बार भी यह मुद्दा सतह पर नहीं आया कि अगर देश का आर्थिक विकास हो रहा है तो अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब क्यों हो रहा है? हमने कभी भी इस बात पर जनमत तैयार कर मतदान नहीं किया कि जब सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था तो मानव विकास क्यों ठहरा रहा?

 

- यूएनडीपी की ओर से जारी ताजा रिपोर्ट ने एक बार फिर मायूस किया। पिछले 24 साल में हम मानव विकास के मामले में करीब-करीब वहीं के वहीं है।

? जहां 2000 में देश के एक प्रतिशत धनी लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 37 प्रतिशत होता था, वहीं 2014 में 70 प्रतिशत हो गया यानी अगर विकास हुआ है तो केवल एक प्रतिशत धनी वर्ग का ही। 

? आज 99 प्रतिशत के पास मात्र 30 प्रतिशत संपत्ति है और यह संपत्ति भी साल-दर-साल अमीरों के पास एकत्रित होती जा रही है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि आम जनता ने इन वर्षों में जिन मुद्दों को लेकर मतदान किया, उनमें कहीं भी यह मुद्दा नहीं था कि यदि हम जीडीपी में दुनिया के शीर्ष दस देशों में हैं तो मानव विकास में 185 देशों में पिछले 24 सालों में 130वें या 135वें स्थान पर क्यों हैं?
? अगर मानव विकास को लेकर तीन साल पहले शुरू किया गया नया पैमाना देखा जाए तो हम और फिसलकर 151वें स्थान पर चले जाते हैं।

? भारत के इतना पीछे रहने का एक बड़ा कारण है शिक्षा को लेकर भयानक खाई है। 
- वर्तमान शिक्षा इतनी महंगी हो गई है कि अन्य देशों के मुकाबले भारत में औसत वयस्क शिक्षा 5-4 साल की है, जो तमाम मध्यम आयवर्ग के देशों से काफी कम है, किंतु आज तक शिक्षा को लेकर आंदोलन नहीं हुआ, क्योंकि मंत्री से लेकर सरकारी कर्मचारी तक अपने बच्चों को शहरों के स्कूल में भेजने में सक्षम हैं, जबकि किसान का बेटा 5वीं तक पढ़ने के बाद खेती या मजदूरी की दुनिया में रोटी कमाने में लग जाता है।

? जबसे आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ, देश में आर्थिक विकास तो हुआ लेकिन उसका लाभ मात्र कुछ लोगों तक सिमटकर रह गया। देश में आर्थिक विकास और मानव विकास का सीधा रिश्ता है और इस रिश्ते को बरकरार रखने में मात्र राजनीतिक वर्ग की सोच, सत्ताधारी दलों के प्रयास और जनोन्मुखी शासकीय अभिकरणों की भूमिका होती है।

- प्रजातंत्र में इन सबको सही रास्ते पर रखने का काम करता है सचेत और तार्किक जनमत। वैसे तो पिछले 70 साल से देश का शासक वर्ग जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया है, लेकिन गरीबी हटाने, समाजवाद लाने, गरीब-अमीर के बीच की खाई पाटने के नाम पर हुए धोखे का अहसास तबसे अधिक हुआ है, जबसे इस विश्व संगठन ने हर साल तमाम मुल्कों के बारे में यह तथ्य बताना शुरू किया कि मानव विकास के पैमाने पर वे कहां हैं।

- यह पैमाना तीन तत्वों पर आधारित होता है - प्रति व्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता। चूंकि इस पैमाने से यह नहीं पता चलता था कि फोर्ब्स सूची में शामिल किसी उद्योगपति और किसी मजदूर के बीच कितना अंतर है, इसलिए पिछले कुछ वर्षों से असमानता-संयोजित सूचकांक बनाया जाने लगा है। 
- इससे पता चल रहा है कि 2000 में ऊपरी वर्ग के एक प्रतिशत की कुल संपत्ति नीचे के 99 प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति का 58 गुना थी। 2005 में यह 75 गुना, 2010 में 94 गुना और 2014 में 95 गुना हो गई। औसत प्रति व्यक्ति आय जो 1980 में 1255 डॉलर थी, 34 साल में मात्र 3.4 गुना बढ़ी।

- आज देश में चर्चा जिन मुद्दों को लेकर हो रही है, उनका दरअसल जनसरोकार से कोई लेना-देना नहीं। राजनीतिक वर्ग, मीडिया के एक बड़े हिस्से और बाजारी ताकतों ने यह सुनिश्चित-सा किया हुआ है कि लोगों को सतही मुद्दों में उलझाए रखो ताकि वे एक सीमित दायरे में ही सोचें।

- राजनीतिक वर्ग को भी इससे लाभ है कि जनता सड़क-पानी या बेटे-बेटी की नौकरी के बारे में नहीं पूछेगी।

- देश में ताजमहल के नीचे शिवालय है या नहीं, इस पर जबरदस्त चर्चा होती है ,किंतु क्यों हर 35 मिनट पर एक किसान खुदकुशी कर रहा है, यह न तो किसी पार्टी का मुद्दा बनता है, न ही जनता का।

*** समाजशास्त्रीय अवधारणा के अनुसार जन-विमर्श में सही मुद्दे आएं और उन पर जनमत तैयार हो, ताकि सत्ता वर्ग उन पर नीति बनाकर कार्रवाई करे, इसके लिए जनता में शिक्षा, तर्कशक्ति और सार्थक सामूहिक सोच की जरूरत होती है। 
- हमने पिछले 70 सालों में इतनी तरक्की तो की है कि आज चुनाव में 65 फीसद तक मतदान करते हैं, लेकिन इसके बावजूद हम अपने मूल मुद्दों को नहीं जान पाते।

 

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