बिना सेहत आर्थिक तरक्की बेमानी

SDG को पूर्ण के लिए क्या आवश्यक

  • 2030 तक एसडीजी-3.1 नामक कार्यक्रम का उद्देश्य जननी मृत्यु दर में काफी कमी लाते हुए इसे प्रति 1 लाख पर 70 की मृत्यु दर तक लाने का है।
  • इसके अलावा एसडीजी-2.1 कार्यक्रम का ध्येय भी उस साल तक सभी तरह के कुपोषण को खत्म करने का है। इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को स्वास्थ्य-आधारभूत ढांचे और स्वास्थ्य-सेवाओं में बड़े पैमाने पर प्रयास करके इनका स्तर ऊंचा करने की जरूरत है।

क्या मात्र आर्थिक तरक्की से स्वास्थ्य सुधरेगा

नीति आयोग के अनुसार  भारत की आर्थिक विकास दर आने वाले सालों में 10 प्रतिशत तक बढ़ सकती है और वार्षिक आर्थिकी 10 ट्रिलियन डॉलर मूल्य की हो जाएगी, परंतु अनेक मानव संसाधन सूचकांक बताते हैं कि स्वास्थ्य क्षेत्र पर सबसे पहले ध्यान देने की फौरी जरूरत है।

  •  बेशक ऊंची आर्थिक वृद्धि दर पाना एक शानदार उपलब्धि मानी जा सकती है लेकिन अगर इसकी एवज में लोगों की सेहत खराब अवस्था में रहे तो इस तरक्की से उनकी भलाई पर ज्यादा असर नहीं होने वाला।
  • 10 प्रतिशत आर्थिक वृद्धि दर प्राप्त करके अगर अन्य क्षेत्रों के स्तर में इसका असर ज्यादा नहीं होता तो इससे लोगों की आय में असमानता ही बढ़ेगी और स्वास्थ्य-सेवाओं के मामले में यह स्थिति अपनी जेब से खर्च करने जैसी बड़ी समस्या का सबब बनेगी, इसमें निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य सेवाओं में होने वाले खर्चे भी शामिल हैं।
  • विश्व बैंक के अनुसार 2011-15 की अवधि में भारत के लगभग 89 प्रतिशत परिवारों को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अपनी जेब से खर्च करना पड़ा है।

स्वास्थ्य क्षेत्र के कुछ concern

  • निजी अस्पतालों पर निर्भरता : भारत के शहरी इलाकों की 70 प्रतिशत और ग्रामीण अंचल की 63 प्रतिशत आबादी निजी अस्पतालों पर निर्भर है।
  • भारत में प्रति 10,000 लोगों के पीछे औसतन 6.5 डॉक्टर होना एक शोचनीय स्थिति है।
  • इसी तरह प्रति 10,000 लोगों के लिए अस्पतालों में सिर्फ 9 बिस्तरों का अनुपात है। 
  • वर्ष 2011-13 के आकड़ों के अनुसार प्रति 1,00,000 प्रसूतियों पर 167 मौतों के साथ भारत का स्थान देशों की फेहरिस्त में काफी ऊपर है और काफी प्रयास करने के बावजूद हम संयुक्त राष्ट्र द्वारा तय किए सहस्राब्दी प्रगति लक्ष्य को पाने में नाकामयाब रहे हैं। इन मानकों के मुताबिक मृत्यु दर प्रति 1 लाख आबादी पर 140 मौतें होनी चाहिए। इस असामनता का बड़ा कारण गांवों में आपात स्थिति होने पर प्रभावी स्वास्थ्य सहायता समयानुसार न मिलने की समस्या है। 

निजी अस्पतालों पर लगाम जरुरी

  • निजी  अस्पताल अकसर गैर-जरूरी टेस्ट करवाते और सर्जिकल आइटमें मंगवाते हैं, जिससे कि उनके बिलों में बढ़ोतरी हो सके, ऐसा करके वे लोगों की जेब में काफी बड़ा सुराख कर डालते हैं।
  •  फंसे हुए अधिकांश गरीबों की मदद उनके रिश्तेदार कर देते हैं या उन्हें अपनी संपत्ति बेचनी पड़ती है या फिर उन्हें अनौपचारिक स्रोतों से उधार पकड़ना पड़ता है।
  • जिनके पास स्वास्थ्य-बीमा होता है, उन्हें भी उन सेवाओं पर होने वाले भारी खर्च का डर सताता रहता है, जिनका मुआवजा बीमे की नियम-शर्तों की श्रेणी में नहीं आता।
  • हर साल लगभग 5.5 करोड़ भारतीय स्वास्थ्य संबंधी खर्चों की वजह से भारी गरीबी की चपेट में आ जाते हैं।
  • साफ है कि जरूरत इस बात है कि ऐसे नियम-कायदे बनाए जाएं, जिससे कि निजी स्वास्थ्य सेवाओं को सरकारी क्षेत्र के अस्पतालों के विकल्प के तौर पर न लेकर बल्कि इनके साथ तालमेल करके काम करने वाला बनाया जाना चाहिए। इसके साथ ही निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाएं एक निश्चित अनुपात में गरीबों को बिल्कुल मुफ्त मुहैया करवाई जानी चाहिए।

क्या उपाय लिए जाए

  • केंद्रीय सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि राजस्व की उगाही समुचित की जाए ताकि बेहतर स्वास्थ्य ढांचे के विकास के लिए यथेष्ट धन मुहैया करवाया जा सके।
  • स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेवारी राज्य सरकारों पर डाल देना काफी नहीं होगा क्योंकि कालांतर में भी अनेक कारकों जैसे कि स्वास्थ्य संबंधी आधारभूत ढांचे की कमी या सीधे आलस्य के चलते बहुत से राज्यों ने इस मद में दिए जाने वाले धन का पूरा उपयोग नहीं किया था।
    •  लंबे समय से मशहूर डॉक्टरों की ओर से यह मांग होती आई है कि स्वास्थ्य पर खर्च किए जाने वाले सरकारी पैसे की मात्रा सकल घरेलू उत्पाद के 1.3 प्रतिशत से बढ़ाकर 3 प्रतिशत कर देनी चाहिए।                                                                                                                   प्रश्न :सार्विक स्वास्थ्य सरंक्षण प्रदान करने में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की अपनी परिसिमाए है | क्या आपके विचार में खाई को पाटने में निजी क्षेत्रक सहायक हो सकता है | आप अन्य कौनसे व्यवहार्य विकल्प चुनेंगे | UPSC: 2015 source:: दैनिक ट्रिब्यून 

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