Context:
अमेरिका में दो अश्वेत नागरिकों की मौत और दुनिया में जारी आंदोलनों के बीच भारत की ओर भी ध्यान गया है जहां ये भेदभाव अलग अलग ढंग से दिखता है. भारत में व्याप्त भेदभाव पर भी बहस उठने लगी है लेकिन बदलाव की राह आसान नहीं.
Position in India
- अमेरिका के नस्लभेद और रंगभेद की तरह ही भारत का जाति आधारित सामाजिक यथार्थ दमन और शोषण से बना है. एक प्रमुख फर्क यही है कि भारतीय स्थिति ज्यादा पेचीदा, परतदार, बहुआयामी और व्यापक हताशा वाली है. सवर्णवादी और ब्राह्मणवादी विभाजन ने गरीबों, आदिवासियों और दलितों को बराबरी से हमेशा वंचित रखा.
- ये बंटवारा न सिर्फ धर्मों और जातियों के भीतर है बल्कि उनमें परस्पर भी है. ये विभाजन अमीर-गरीब, छोटे-बड़े और स्त्री-पुरुष का भी है. यहां तक कि कोरोना महामारी की आड़ में भी भेदभाव पनप चुका है, गैर-मरीजों का मरीजों से!
Has Constitutional Rights has transformed lives in Big way?
आंकड़े बताते हैं कि दलितों पर क्रूरता और उनसे भेदभाव की घटनाओं में कमी आती नहीं दिखती. ये बात सही है कि संविधान-प्रदत्त अधिकार और कानूनी प्रावधान भी जातीय भेदभाव, उत्पीड़न और अन्याय को खत्म करने में बहुत सफल नहीं रह पाते हैं. क्योंकि सत्ता राजनीति को संचालित करने वाली शक्तियां उन अधिकारों और दमित जातियों के बीच में अवरोध की तरह बनी रहती है. यही वजह है कि आईएएस जैसी सर्वोच्च सिविल सेवा में पहुंच जाने के बाद भी अनुसूचित जाति के उम्मीदवार को ताने सहने पड़ते हैं, उच्च शिक्षा हासिल करने का सामाजिक दंश झेलना होता है, समाज में अपनी आर्थिक हैसियत बना लेना एक गंभीर अपराध समझा जाता है और उच्च जाति में प्रेम और विवाह जैसी कोशिश तो मौत के मुंह में धकेल सकती है.
Discrimination in new form:
हिंदी पट्टी हो या देश के गैर हिंदी-भाषी अन्य राज्य, ये सामाजिक बुराई सदियों से और पीढ़ियों से चली आ रही है.
- एक अदृश्य सवर्णवादी नियंत्रण समाज में स्थापित है और उच्च जातियों के दबंगों को प्रश्रय देता है. जातीय नरसंहार का दौर पीछे छूट चुका है
- अब एक नयी तरह की हिंसा पनप चुकी है, लिंचिग की शक्ल में या सरेराह दिनदहाड़े सजा सुना देने को तत्पर एक हिंसक दबंगता में या फिर अपमानजनक हालात में घेरे रखने की साजिश के रूप में. मंदिरों में प्रवेश से लेकर, खाना छू लेने या सार्वजनिक समारोहों में भागीदारी कर लेने भर से गरीबों और दलितों की जिंदगी पर बन आती है. छुआछूत का बोलबाला है और आम जनजीवन में उनकी भूमिका होने के बावजूद उनसे दास की तरह व्यवहार किया जाता है.
- जातीय, लैंगिक, क्षेत्रीय, वर्गीय, धार्मिक और भाषायी भेदभाव से पगी हुई ऐसी धारणाएं अपनी प्रगाढ़ता में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हिस्सा बनने लगती हैं.
भारत में ये कह देना कि जातीय भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है, एक ईमानदार पुकार हो सकती है या ये सत्ता राजनीति का एक आकर्षक नारा भी हो सकता है लेकिन ऐसा वास्तव में संभव हो पाएगा ये एक कठिन सवाल बना हुआ है जिसका कोई फौरी जवाब देना कठिन है. सब जगह धंसा हुआ ये भेदभाव कोई सीधी रेखा या एकरेखीय समस्या नहीं है. ऊंची या अगड़ी जात, गोरी चमड़ी, रईसी और ठाठबाट के प्रति आकर्षण, भारतीय पूर्वाग्रह के कुछ उदाहरण हैं. रंग, रूप, देह के आधार पर मजाक उड़ाने और अपमानित करने वाले नाम रखने की मानसिकता मिटी नहीं हैं. इसी रंगभेदी धारणा का फायदा उठाने के लिए बाजार भी है जहां काले रंग को तौहीन की तरह पेश किया जाता है. भारत में अफ्रीकी मूल के छात्रों के साथ हिंसा और बदसलूकी की घटनाएं भी हाल के वर्षों में दिल्ली से लेकर बंगलुरू जैसे ‘संभ्रांत' महानगरों में घटित हो चुकी हैं. पूर्वोत्तर राज्य के नागरिकों ने भी ऐसी ही शर्मनाक हरकतें और क्रूरताएं देश के विभिन्न हिस्सों में भुगती हैं. हाल में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई युवा फिल्मकार निकोलस खारकोन्गोर की फिल्म "अखुनी” इस यातना की झलक दिखाती है.
Reference: https://www.dw.com/