CONTEXT
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के स्कूली बच्चों के सोशल मीडिया ग्रुप बॉयज लॉकर रूम और गर्ल्स लॉकर रूम के चैट के खुलासे से शिक्षा जगत तो सदमे में है
दिल्ली महिला आयोग ने दिल्ली पुलिस और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को नोटिस जारी कर दिया है। देर-सवेर दिल्ली पुलिस बाल अश्लीलता कानून (चाइल्ड पोर्नोग्राफी) के तहत आरोपी बच्चों पर कार्रवाई भी करेगी। बहरहाल इस मामले को सिर्फ कानूनी उल्लंघन के मामले के दौर पर देखा जा रहा है। क्या यह सिर्फ कानून-व्यवस्था का ही मामला है? आधुनिक दौर में दुनिया भर में राज व्यवस्था ने जीवन के हर क्षेत्र में इतनी पैठ बना ली है कि हमारी सोच हर व्यवस्था को राज्य के जिम्मे सौंपकर निश्चिंत हो जाना चाहती है।
WHY? From where we can find root of Problem
इस प्रक्रिया में हम भूल गए हैं कि परिवार और समाज व्यवस्था लगातार कमजोर हुई है। इसी कारण स्कूलों तक से शर्मनाक घटनाएं सामने आ रही हैं। यह ऐसी पहली घटना नहीं है। कुछ साल पहले दिल्ली के नामी डीपीएस स्कूल की बच्ची की अश्लील एमएमएस की घटना भी सामने आई थी। ऐसी शर्मनाक घटनाओं में स्कूली बच्चों के शामिल होने के कई कारण हैं।
- दुनिया भर के शिक्षा और समाजशास्त्री मानते हैं कि बच्चे सबसे ज्यादा अपने परिवार और अध्यापकों से सीखते हैं। भारतीय परंपरा में जिसे संस्कार कहाजाता है, वह बच्चे के नैतिक शिक्षण की पारिवारिक स्तर पर शरुआत है। दुर्भाग्यवश, उदारवादी व्यवस्था में जैसे-जैसे जिंदगी की आपाधापी बढ़ती गई, परिवार ने बच्चों को संस्कारित करने की अपनी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ा लिया।
- परिवारों के पास जैसे-जैसे समृद्धि आती गई, बच्चों को आधुनिक और महंगी सुविधाएं मुहैया कराने के बाद अभिभावक अपना दायित्व खत्म मानते रहे। लेकिन स्कूलों की भी अपनी सीमाएं हैं। बच्चे उनके साथ जब तक रहते हैं, तब तक तो वे बच्चों पर निगाह रखते हैं। उसके बाद उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। स्कूल से मुक्ति के बाद बच्चा खुद को मुक्त मानने लगता है। सूचना क्रांति के दौर में उसके पास भी लगातार सूचनाएं बरस रही हैं। पर उसमें यह समझ विकसित ही नहीं हो पाती कि कौन-सी जानकारी उचित है, कौन अनुचित।
- चूंकि वह भी उपभोक्तावादी संस्कृति में जी रहा होता है, लिहाजा उसे आधुनिकता के नाम पर उच्छृंखलताएं ही जिंदगी का असली उद्देश्य नजर आने लगती हैं। भारतीय शिक्षा व्यवस्था शुरू से भौतिकता के दुष्प्रभावों को समझती रही है। चूंकि बच्चा अपने माता-पिता के बाद शिक्षक से ही सबसे ज्यादा प्रभावित होता था, लिहाजा शिक्षक की सच्चरित्रता पर जोर था। इसे पूर्व राष्ट्रपति और महान शिक्षा शास्त्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी समझा था। आजादी के फौरन बादशिक्षा के लिए गठित आयोग में उन्होंने स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक मूल्य पढ़ाने के लिए जरूरी पाठ्यक्रम तैयार करने का सुझाव दिया था।
- उनकी अध्यक्षता वाले विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन में भी कहा गया, 'यदि हम अपनी शिक्षा संस्थाओं से आध्यात्मिक प्रशिक्षण को निकाल देंगे, तो अपने संपूर्ण ऐतिहासिक विकास के विरुद्ध कार्य करेंगे।'
- वर्ष 1937 में बुनियादी शिक्षा को लेकर वर्धा की बैठक में गांधी जी ने जो पुस्तिका लिखी, उसमें उन्होंने लिखा, 'शिक्षा ऐसी हो, जो आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके, बालक आत्मनिर्भर बन सके तथा बेरोजगारी से मुक्त हो सके। इसके साथ ही मानव के व्यवहार में संस्कृति परिलक्षित होनी चाहिए। सच्ची शिक्षा वह है, जिसके द्वारा बालकों का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास हो सके।'
गांधी और राधाकृष्णन के इन विचारों को बाद में कोठारी आयोग और राममूर्ति समिति ने भी स्वीकार किया। राष्ट्रीय पुनश्चर्या पाठ्यक्रम में भी नैतिक शिक्षा पर जोर था। पर उदारीकरण के दौर में वैज्ञानिक शिक्षा के नाम पर स्कूलों से नैतिक शिक्षा का लोप होने लगा। चूंकि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची का विषय है, लिहाजा राज्य अपनी-अपनी योजनाएं लागू करते रहे। जब वैश्विक स्तर पर यौन शिक्षा देने की चर्चा शुरू हुई, तब भी शिक्षाविदों के एक वर्ग ने छात्रों में यौनिकता के प्रति दूषित जिज्ञासा बढ़ने का अंदेशा जताया था, जिसे खारिज कर दिया गया था। सोशल मीडिया पर बच्चों की विद्रूप मौजदूगी ने जाहिर किया है कि इस समस्या को लेकर राज व्यवस्था से कहीं ज्यादा समाज और परिवार को जागना होगा।
Reference: Amar Ujala