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देश की सबसे बड़ी अदालत ग्रीष्मकालीन अवकाश के बाद खुलेगी तो वह कागज रहित हो चुकी होगी। यह घोषणा स्वयं मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहड़ ने हाल ही में की। वह नए सूचना तंत्र का उद्घाटन कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार ने वर्ष 2016-17 में ई-कोर्ट मिशन के लिए 2,130 करोड़ रुपये मंजूर किए थे लेकिन दिसंबर तक महज 88 करोड़ रुपये खर्च हुए। जाहिर है इस क्षेत्र में खर्च करने के लिए बहुत सारी धनराशि उपलब्ध है।
अधीनस्थ न्यायालयों की स्थिति
- अधीनस्थ न्यायालयों की दिक्कत को तो मीडिया भी सामने लाता रहा है और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में भी वह झलकता है। गत वर्ष प्रधानमंत्री के समक्ष अधीनस्थ न्यायालयों की स्थिति का ब्योरा देते हुए मुख्य न्यायाधीश के आंसू निकल पड़े थे। गत वर्ष अक्टूबर में अधिवक्ताओं ने संसद भवन से कुछ ही दूरी पर स्थित ऋण वसूली पंचाट में जाना बंद कर दिया था क्योंकि वहां बिजली और पानी की व्यवस्था तक नहीं थी। सरकार उसका किराया नहीं चुका रही थी।
- हाल ही मे बंबई उच्च न्यायालय ने 220 पन्नों का एक फैसला लिखा जिसमें राज्य की विभिन्न अदालतों और पंचाटों की हालत का जिक्र था। उसने इन समस्याओं को हल करने के लिए विभिन्न उपायों की सूची तैयार कराई। मामले की सुनवाई अदालत ने स्वत: संज्ञान लेकर शुरू की थी। फैसले की शुरुआत में ही यह टिप्पणी की गई थी कि राज्य के कमोबेश सभी न्यायालय और पंचाट मूलभूत बुनियादी ढांचे तक के अभाव में काम कर रहे हैं। इसके बाद उसने कुछ अदालतों, पंचाटों और उपभोक्ता अदालतों से हताश करने वाले ब्योरे पेश किए। अगर महाराष्टï्र की अदालतें इतनी हताश करने वाली स्थिति में हैं, अन्य स्थानों पर उनकी समकक्ष अदालतों की हालत की कल्पना ही की जा सकती है।
- उच्च न्यायालय ने 30 निर्देश जारी किए। इनका संबंध पेय जल, पर्याप्त फर्नीचर और कंप्यूटर, वादियों के लिए कुर्सियां, लिफ्ट की मरम्मत (पुणे में लंबे समय से लिफ्ट खराब थीं) तथा इमारतों के रखरखाव के लिए फंड जारी करने से था। ठाणे और मझगांव में कुछ पुरानी इमारतें वर्षों पहले ही इस्तेमाल की दृष्टिï से नाकाम घोषित की जा चुकी थीं जिन्हें खाली करा दिया जाना चाहिए था। अगर वहां कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना नहीं घटी तो यह पूरी तरह किस्मत की बात थी। स्वच्छ भारत अभियान का उल्लेख करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा, 'महाराष्टï्र के विभिन्न अदालती परिसरों में शौचालयों और स्नानागारों से बदबू आना आम बात है। इतना ही नहीं अदालत परिसर तथा कक्षों के भीतर भी सही ढंग से साफ-सफाई नहीं की जाती है।'
- सर्वोच्च न्यायालय ने गत वर्ष एक अध्ययन किया था जो उच्च न्यायालय के पर्यवेक्षण के अनुरूप ही निकलता है। उसने यह भी कहा कि भौगोलिक औसत के मुताबिक देखा जाए तो 157 वर्ग किलोमीटर इलाके में एक न्यायाधीश की उपलब्धता है, हालांकि पुलिस अधिकारी हर 61 वर्ग किमी के दायरे में उपलब्ध हैं। मौजूदा अदालती कक्षों का बुनियादी ढांचा ऐसा है कि वहां करीब 15,540 न्यायिक अधिकारी बैठ सकते हैं जबकि अखिल भारतीय मंजूरी 20,558 अधिकारियों की है। रिपोर्ट से यह बात साफ होती है कि कमजोर बुनियादी ढांचा न्यायपालिका को प्रभावित करता है।
क्या वित्तीय सहायता पर्याप्त
वर्ष 2017-18 के केंद्रीय बजट में भी न्यायपालिका के प्रति पक्षपात बरकरार रहा। कुल बजट का महज 0.2 फीसदी ही इसके लिए जारी किया गया। बजट बनाने वालों ने न्यायिक प्रशासन के लिए 1,744 करोड़ रुपये का प्रावधान किया जबकि अकेले एयर इंडिया को 1,800 करोड़ रुपये दिए गए थे। न्याय विभाग में ढेर सारे प्रमुख थे मसलन राष्ट्रीय न्याय आपूर्ति एवं विधिक सुधार मिशन, ई-कोर्ट का दूसरा चरण, देश में न्याय तक पहुंच मजबूत करना, इन सबको मिलाकर 432 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। यह फिल्म बाहुबली के कुल बजट से भी कम राशि थी। जाहिर सी बात है कि केंद्र और राज्य के बजट निर्माता भी अदालती इमारतों में मची गंदगी के लिए जिम्मेदार हैं।
निष्कर्ष
जाहिर सी बात है कि जिन लोगों का पाला निचले स्तर पर काम करने वाली अदालतों से पड़ता है वे सर्वोच्च न्यायालय में डिजिटल युग या फिर कहें कृत्रिम बुद्घिमता की संभावनाओं को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं। उनके मन में वही पुरानी और निरंतर चली आ रही धारणा बनी रहेगी कि कि अदालतें भले ही सबके लिए खुली हैं लेकिन तकनीकी उन्नति तक वही पहुंच पाएगा जिसकी जेब ज्यादा भारी होगी। जाहिर सी बात है अदालती क्षेत्र में सुधार की शुरुआत ढांचागत और भौतिक स्थिति से होनी चाहिए, न कि साइबर क्षेत्र में।