Increase instances of flood (s) in recent times are not just due to natural reason but cause lies in human developmental activities.
#Hindustan
Twin disasters of Water
हम हर साल पानी को लेकर दो तरह की त्रासदियों की चपेट में आते हैं। गरमियों के आते ही पानी के संकट का हो-हल्ला बढ़ जाता है और बारिश के साथ ही बाढ़ का खतरा गहरा जाता है।
- मौसम में बदलाव के कारण अब यह अनिश्चितता ज्यादा ही बढ़ गई है।
- कहां बारिश का जोर रहेगा और कहां सूखे की मार रहेगी, इन परिस्थितियों का अनुमान लगाना बड़ा ही मुश्किल हो चुका है।
- उत्तराखंड की 2013 की त्रासदी के बाद 2014 में श्रीनगर में दो बार आई बाढ़ इसका उदाहरण है।
- 2005 के बाद लगातार किसी न किसी रूप में मुंबई डूबने की स्थिति में आ जाता है, तब 900 मिमी की बारिश ने 450 लोगों की जान ली थी।
- ऐसी ही स्थिति कई राज्यों की बनी रहती है।
- हमारे गांव हों या फिर शहर, हमने जल-निकासी पर समुचित ध्यान नहीं दिया है।
Traditional structure and Flood
पहले गांवों में एक जल-निकासी की व्यवस्था होती थी। पानी के रास्तों को तो बाधारहित रखा जाता था, पर साथ में जल-संरक्षण के भी बेहतर तरीके थे। देश के तालाब, वे पहाड़ में हो या फिर मैदान में, वर्षा के पानी के संरक्षण के बड़े उदाहरण थे। पहाड़ों में ताल व खाल इसी अवधारणा के उदाहरण रहे हैं। मैदानी इलाकों में, जैसे कि दिल्ली का हौजखास या भोपाल, आदिलाबाद व हैदराबाद के बड़े तालाब, सब वर्षा के पानी का ही संरक्षण करते रहे हैं। ये आज भी आबादी के बड़े हिस्से की पानी की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
Negligence of Water drainage & Flood
- सारे देश में बढ़ते ढांचागत विकास में सबसे ज्यादा अनदेखी जल-निकासी की ही हुई है।
- हाई-वे व फ्लाईओवर पर नजर डालिए, जहां-जहां ये गांवों से होकर गए, वहां-वहां गांव पानी में डूब गए।
- ये हाई-वे गांवों के स्तर से ऊपर उठाकर बना दिए गए, जो पानी के बहाव को रोक देते हैं।
- आज बिहार, उत्तर प्रदेश और अन्य कई राज्यों के गांव इसी कारण वर्षा में जलमग्न हो जाते हैं। बस गाड़ियों की निकासी में कोई दिक्कत नहीं होती है, चाहे गांवों में वर्षा जल की निकासी खटाई में पड़ जाए।
- इस तरह के जल-जमाव गांवों को तो डुबोते ही हैं, अपने साथ-साथ कई तरह की बीमारियों को भी लाते हैं। आज शायद ही कोई कस्बा या शहर ऐसा दिखे, जहां जल-निकासी की व्यवस्था पर्याप्त हो। दिल्ली, मुंबई या चेन्नई जैसे महानगरों में चंद घंटे की बारिश हुई नहीं कि सब कुछ ठहर जाता है। ढांचागत विकास की योजना बनाते समय जल-निकासी को कभी प्राथमिकता नहीं मिलती।
- प्रकृति के विज्ञान के प्रति हमारी नामसझी: हम इस विज्ञान को समझने के लिए पूरी तरह असफल हो गए। हम यह भूल गए कि प्रकृति करोड़ों वर्षों के मंथन का अमूल्य उपहार है। पृथ्वी में जलवायु की संरचना हुई है, जिसे हमने मात्र गत 100 वर्षों में ही विकास की बलि चढ़ा दिया। पृथ्वी पर जल, वायु, जमीन और जंगल की नियंत्रक प्रकृति है। और ये सब कुछ महीन आपसी रिश्तों के समन्वय का बेहतर उदाहरण है। किसी एक से की गई छेड़छाड़ दूसरे को भी सीधा प्रभावित करती है। वैसे तो करोड़ों वर्षों के इस संतुलन को मिटा देना संभव ही नहीं, क्योंकि इसके पूरी तरह मिटने से पहले ही जीवन की परिस्थितियां समाप्त हो जाएंगी। यह समझने का वक्त भी आ चुका है।
Concluding mark
हम जल के संदर्भ में दुनिया को एक बड़ा उदाहरण दे सकते हैं। वर्षा जल के संरक्षण के प्राकृतिक व परंपराओं का मान करते हुए नदियों के जलागमों को, जो आज वन-विहिन हो चुके हैं, उन्हें वनाच्छादित कर दोहन का काम कर सकते हैं। ये प्राकृतिक बांधों का कार्य करेंगे। नदियों को तूफानी नहीं, बल्कि शांत रखते हुए नियंत्रित जलबहावी रखेंगे। तालाबों को पुनर्जीवित कर प्रकृति के जल संरक्षण के रास्तों को साफ रखें। नदी, तालाबों के अतिक्रमण पर गंभीरता ही हमें सूखे और जलभराव के कष्टों से मुक्त रखेगी। पानी के प्राकृतिक रास्तों की स्वतंत्रता ही हमें बाढ़-मुक्त व जल-युक्त बनाकर रखेगी। इससे किसी भी तरह की छेड़छाड़ अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। अभी वह समय बहुत दूर नहीं गया है, जब हम न सिर्फ मानसून का इंतजार करते थे, बल्कि इसका हर जगह स्वागत होता था। पर अब अच्छे मानसून की भविष्यवाणी से ही हमें डर लगने लगता है।
Attempt this Qs:
floods are not just an extreme weather event but partly natural and partly anthropogenic. While discussing this issue bring out relevance of the statement “ Flood governance’s Focus should shift from relief measures to building resilience in flood-prone areas”
http://indianexpress.com/article/opinion/columns/living-with-the-deluge-northeast-flood-