आपदाओं का आना : पर्यावरण और पारिस्थितिकी क्षरण

- आपदाओं का आना धरती के अस्तित्व के साथ ही शुरू है। यह भी कहा जा सकता है कि हमारी पृथ्वी का जन्म ऐसी ही किसी एक घटना के चलते ही हुआ था। लिहाजा प्राकृतिक आपदाओं का आना जैसे कोई रहस्य की बात नहीं रही है वैसे इन आपदाओं में व्यापक पैमाने पर होने वाला नुकसान भी किसी से छिपा नहीं है।

- यह बात और है कि जान-माल के नुकसान को हम तुरंत देख लेते हैं, लेकिन आपदाओं के चलते होने वाली पारिस्थितिकीय तबाही और पर्यावरणीय असंतुलन को हम अनदेखा करते चले आ रहे हैं। यह अनदेखी बाद में विस्फोटक रुख तस्वीर के रूप में सामने आती है।

- कुछ सदी पहले आने वाली आपदाओं और आज की आपदाओं की प्रकृति और प्रवृत्ति में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है। तब जो प्राकृतिक आपदाएं आती थीं, उसमें जान-माल का कम नुकसान होता था।

- चूंकि उन आपदाओं में इंसानी कारगुजारियों का सहयोग नहीं होता था, लिहाजा पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय की क्षतिपूर्ति हो जाती थी।

- अपने नुकसान की स्वत: भरपाई प्रकृति का सहज गुण है। दुखद यह है कि अब ऐसा नहीं हो रहा है। प्रकृति से बढ़ती इंसानी छेड़छाड़ के चलते आपदाएं कहर ढाने से परहेज नहीं कर रही हैं। इनकी आने की संख्या तो बढ़ी ही है, भयावहता भी बढ़ गई है।

- लिहाजा अब जान-माल के साथ पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय तबाही व्यापक स्तर पर हो रही है। घटना के तुरंत बाद जान-मान का नुकसान तो हमें दिख जाता है लेकिन पारिस्थितिकीय तबाही से हम अनभिज्ञ रहते हैं। जो कुछ महीनों, साल, दशक बाद विकराल रूप धर कर हमारे सामने चुनौती पेश करती है।

- जब कोई घटना किसी पारिस्थितिकी तंत्र की मौजूदा स्थिति बिगाड़ देती है तो उसे पारिस्थितिकी में गड़बड़ी होना कहते हैं। यह गड़बड़ी किसी सीमित दायरे में हो सकती है या फिर व्यापक स्तर पर भी इसका असर देखा जा सकता है। इसके नतीजे अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों हो सकते हैं। कभी गड़बड़ हुई पारिस्थितिकी तंत्र को सुधरने में महीनों लगते हैं तो कभी यह समयावधि दशकों तक पहुंच जाती है।

=>प्रमुख कारक:-
प्राकृतिक गड़बड़ियों की वजह प्राकृतिक ताकतें होती हैं। इनमें मौसम, भूविज्ञान और जैविक उठापटक शामिल होते हैं। आग, बाढ़, वायु, बीमारी, भयावह तूफान, कीटों को हमला, ज्वालामुखीय गतिविधियां, सूखा, लंबे समय तक हिमयुग और भूकंप इसके प्रमुख प्रकार हैं।

=>उदाहरण:-
कल्पना कीजिए किसी पारिस्थितिकी में मौजूद सभी चूहे एक संक्रामक बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। ऐसे में यह बीमारी उनकी संख्या को या तो एकदम कम कर देती है या फिर उस क्षेत्र से उनका नामोनिशान मिट जाता है। इस गड़बड़ी का परिणाम पूरे पारिस्थितिकी तंत्र में महसूस होता है। चूहे को अपना खुराक बनाने वाले जीव और चूहों की खुराक बनने वाले जीवों को नई दशाओं को अपनाने पर विवश होना पड़ता है। बाज और सांप चूहे की जगह किसी और को अपनी खुराक के स्नोत के रूप में खोजना होता है। साथ ही चूहे की खुराक बनने वाली घास चहुंमुखी विकास करती है। ऐसे में चूहों की संख्या फिर से कभी न बढ़ सके तो भी पारिस्थितिकी तंत्र नई दशाओं से संतुलन साध लेता है।

=>कैसे होता है नुकसान:-
जब किसी पारिस्थितिकी तंत्र में कोई आपदा आती है तो वहां तबाही मचती है। पौधे खत्म हो जाते हैं। जीव- जंतुओं को अपने पुराने आवास से दरबदर होना पड़ता है। ऐसी भी स्थिति आती है कि जब उस क्षेत्र या भूखंड पर कोई वन्य जीव न हो। हालांकि यह स्थिति अस्थायी होती हैं। अगर बारीकी से निरीक्षण किया जाए तो आपदा के बाद किसी पारिस्थितिकी तंत्र में खुशहाली के फूल भी खिलते दिखते हैं।
किसी स्वस्थ पारिस्थितिकी में यह गुण निहित होता है कि वह किसी गड़बड़ी का खुद शीघ्रता से उपचार कर लेती है। लिहाजा कुछ समय बाद उस पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिति पहले जैसी हो जाती है। वही पादप और जीव प्रजातियां वहां फिर से आशियाना बना लेते हैं।

- किसी पारिस्थितिकी के लिए प्राकृतिक रूप से होने वाली गड़बड़ी नई चीज नहीं है। धरती के अस्तित्व के साथ ही यह पारिस्थितिकी और प्रजातियों को आकार देती रही है। गड़बड़ियों का होना तो अपरिहार्य है और किसी आकस्मिक गड़बड़ी को अपने में ढालना पारिस्थितिकी की खूबी है।
सभी गड़बड़ियां प्राकृतिक नहीं होती हैं। आज किसी पारिस्थितिकी में दिखने वाली अधिकांश गड़बड़ी इंसानी कारगुजारियों के चलते है। ऐसे में जब कभी प्राकृतिक गड़बड़ी सामने आती है तो पारिस्थितिकी पर दोहरी मार पड़ती है।

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