- आपदाओं का समाज, पर्यावरण व पारिस्थितिकी पर कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य होता है। यह प्रभाव आपदा की प्रकृति के अनुसार कभी कम और कभी बहुत अधिक हो सकता है।
- भूकंप के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय नुकसान होते हैं। ये प्रभाव तुरंत और दूरगामी दो श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं। सामाजिक और आर्थिक दुष्परिणाम तो हम सभी समझ सकते हैं लेकिन पर्यावरणीय प्रभाव समझने में काफी अध्ययन और समय लगता है।
- कई बार तमाम प्राकृतिक आपदाओं के परिणामस्वरूप प्रकृति पुन: पारिस्थितिकीय संतुलन स्थापित भी करती है। 2012 में जापान में भीषण सुनामी आई। इसने वहां भारी तांडव व विनाशलीला दिखाई। हालांकि इस भयावह सुनामी के बाद समुद्री क्षेत्र में बहुत से ऐसे जीव दिखाई दिए जो कि काफी पहले मानवीय कारणों से विलुप्त मान लिए गए थे।
- भूकंप विशुद्ध प्राकृतिक घटना है तथा इससे होने वाले सभी प्रकार के दुष्प्रभावों को हम एक झटके में दैवीय कहकर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं। लेकिन यह आधी सच्चाई है। यह कहना ठीक है कि भूकंप के बारे में पूर्वानुमान अभी तक संभव नहीं हो पाया है और इससे होने वाले नुकसान का पूर्वानुमान तो और भी कठिन काम है क्योंकि पूर्व में ऐसा भी हुआ है कि भूकंप की तीव्रता किसी क्षेत्र विशेष के सीस्मिक जोन से कहीं अधिक थी। जैसाकि 1993 के लातूर भूकंप में हुआ। लातूर जोन-2 में था और वहां भूकंप जोन-4 की तीव्रता का आया।
- भूकंप से जान और माल का सबसे अधिक नुकसान भवनों के गिरने से होता है और इसका सबसे बड़ा कारण भूकंप नहीं बल्कि कमजोर संरचना होती है जो कि भूकंपरोधी प्रावधानों की अनदेखी करके बनाई गयी होती है। अब भूकंपरोधी संरचना के प्रावधानों की अनदेखी तो प्राकृतिक नहीं हो सकती।
- आज आपदाओं की संख्या और उनकी पुनरावृत्ति में इजाफा हो चुका है। इनकी जड़े अंतत: जाकर जलवायु परिवर्तन से जुड़ती हैं। लगभग अस्सी प्रतिशत आपदाएं हाइड्रो मेटोरोलॉजिकल हैं अर्थात उनका संबंध जलवायु परिवर्तन से है और जलवायु परिवर्तन के लिए मानव जिम्मेदार है। अत: हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इन आपदाओं और इससे होने वाले नुकसानों के पीछे कहीं न कहीं मानव जिम्मेदार है। भूकंप जलवायु परिवर्तन से संबंधित नहीं है लेकिन उसके नुकसानों की भयावहता के पीछे काफी हद तक मानवीय कारण हैं।
हमारी संस्कृति में प्रकृति को मां का दर्जा दिया गया है। हम जो इसके विभिन्न रूपों की पूजा करते हैं दरअसल उसके पीछे के वैज्ञानिक कारणों को हमने सरस्वती नदी की तरह ही विलुप्त कर दिया और उसके दुष्परिणामों को देखकर एक बार पुन: बड़े जोर-शोर से यह स्थापित करने में लगे हैं। प्रदूषित होने से बचाने के पीछे की अवधारणा ही इन सब की पूजा करना थी जो कि धीरे-धीरे दकियानूसी विचारधारा कहकर पीछे छोड़ दी गयी। यह सभी जानते और करते हैं कि जिसकी या जिस स्थान की पूजा की जाती है उसे स्वच्छ रखा जाता है और उसका आदर किया जाता है। पर्यावरण और पारिस्थिकी को बचाने का फार्मूला भी तो यही है।
- हमें अपनी जरूरतों को पूरी करने के साथ पारिस्थितिकी और पर्यावरण में संतुलन स्थापित करने की दरकार है। विलासिता वाली जरूरतों को पूरी करने के लिए प्रकृति के दोहन से बचना होगा। हम प्रकृति का ध्यान रखेंगे तो प्रकृति हमारा ख्याल रखेगी। प्रकृति को भावी पीढ़ियों के लिए सहेजने के लिए कुछ उद्यम करना होगा। यानी जरूरत पड़ने पर यदि पेड़ काटे जाते हैं तो साथ ही दोगुने पेड़ लगाए भी जाने चाहिए।