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राज्य सभा(upper house) की तीन सीटों के लिए गुजरात विधानसभा में बीते मंगलवार को हुआ मतदान हाल के समय की शायद सबसे अनोखी राजनीतिक घटनाओं में से है. यहीं से एक सवाल उठता है. सवाल यह कि जो राज्य सभा राज्यों के प्रतिनिधियों का सदन हुआ करती थी वह पार्टी हाईकमानों का सदन तो नहीं बनती जा रही है.
राज्य सभा(upper house), यानी मूल रूप से सिर्फ राज्यों के प्रतिनिधियों का सदन
- भाजपा हमेशा राज्य सभा को लोक सभा की तुलना में कमतर आंकती रही है. साल 2015 में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो यहां तक कह दिया था कि सीधे तौर पर चुने गए ‘लोक सभा सदस्यों की बुद्धिमत्ता’ पर ‘अप्रत्यक्ष रूप से चुन कर आए राज्य सभा सदस्यों’ की ओर से सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए
- लेकिन गुजरात के उदाहरण से ही संकेत मिलता है कि शायद भाजपा भी राज्य सभा की अहमियत को महसूस करने लगी है.
- उसे अहसास होने लगा है कि ‘अप्रत्यक्ष रूप से चुने गए लोगों का यह उच्च सदन’ भी मायने रखता है. तभी तो शायद वह राज्य सभा की एक-एक सीट के लिए संघर्ष करते हुए नज़र आ रही है. गुजरात से पहले मध्य प्रदेश, हरियाणा उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में हो चुके राज्य सभा चुनाव के दौरान हर सीट जीतने की पार्टी की कोशिश इसका पुख्ता और प्रत्यक्ष प्रमाण मानी जा सकती है.
- राज्य सभा का पहला ज़िक्र भारत सरकार कानून- 1935 में मिलता है. इस कानून को अंग्रेजों ने बनाया था जिसके तहत भारत को पहली बार कानूनी तौर पर राज्यों का संघ माना गया. जैसा कि इसके नाम ‘राज्य सभा’ से ही स्पष्ट है, यह मूल रूप से देश के विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों की ही परिषद है, उनका सदन है. कानून में इस सदन की परिकल्पना भी कुछ इसी तरह से की गई थी.
लेकिन समय के साथ इसे संसद में पहुंचने का ‘पिछला दरवाज़ा’ मान लिया गया
- यानी शुरुआती कानून से लेकर आगे बढ़ने वाली परंपराओं तक राज्य सभा के बारे में भावना यही रही है कि इसमें राज्यों के वे प्रतिनिधि आएं जो संबंधित राज्य से ही हों.
- यानी उसी के मूल निवासी हों जिसके वे राज्य सभा में प्रतिनिधि हैं. हालांकि आगे चलकर यह नियम छिन्न-भिन्न होता दिखा. पार्टी के बड़े नेताओं को तुरत-फुरत संसद में पहुंचाने के लिए इस उच्च सदन को ‘पिछला दरवाज़ा’ मान लिया गया.
- विभिन्न दलों ने अपने लिए इस सुविधाजनक स्थिति को हासिल करने के लिए 2003 में जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन भी किया. इसके ज़रिए राज्य सभा के सदस्यों के लिए राज्यों का मूल निवासी होने का प्रावधान पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया.
- यहीं से शायद राज्य सभा में आने के लिए या लाए जाने के लिए धनबल और धनबलियों की सीधी दख़लंदाज़ी भी शुरू हो गई. इसके कुछेक उदाहरणों पर गौर भी किया जा सकता है. मसलन झाारखंड से राज्य सभा सदस्य परिमल नाथवानी गुजरात के बड़े कारोबारी हैं जबकि उच्च सदन में इसी राज्य के एक अन्य प्रतिनिधि केडी सिंह चंडीगढ़ के उद्योगपति हैं. उनके जैसे और भी कई बड़े कारोबारी उच्च सदन में मौज़ूद हैं.
तो किसी तरह इस स्थिति से निज़ात मिल सकती है?
कुल मिलाकर आज स्थिति यह है कि दिल्ली में राज्यों की आवाज़ कमज़ोर पड़ती जा रही है क्योंकि संसद में राज्यों के प्रतिनिधियों के सदन में जो लोग हैं उनका संबंधित प्रदेशों से लेना-देना भी कम ही होता है. उधर, राज्यों से निकल रहे असंतोष के सुर बुलंद हैं. उदाहरण के लिए कर्नाटक में हिंदी के विरोध में चल रहे आंदोलन की आवाज़ पूरे देश में सुनी जा रही है. तमिलनाडु में जल्लीकट्टू के आयोजन को लेकर जिस तरह से जनांदोलन को पुनर्जीवन मिला उसे भी देशभर ने देखा. इसी तरह पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार इन दिनों राज्य गान काे सुर-संगीत देने में लगी है. ऐसे और भी तमाम प्रयास विभिन्न राज्यों में देखे जा सकते हैं.
सो ऐसे में अगर यह कहा जाए कि राज्यों की ये प्रतिक्रियाएं दिल्ली में उनकी कमज़ोर पड़ती आवाज का परिणाम हैं तो शायद ज्यादा ग़लत नहीं होगा. लिहाज़ा इस माहौल में स्थिति नियंत्रित-संतुलित करने की गरज से राज्य सभा को उसका मूल स्वरूप लौटाने की ज़रूरत भी उतनी ही शिद्दत से महसूस की जा रही है. ऐसे में सवाल है कि क्या इसके कोई तरीके हो सकते हैं. तो इसका ज़वाब यह है कि ‘हां’, जरूर हो सकते हैं. इसके लिए ख़ास तौर पर तीन तरीकों को अपनाया जा सकता है जिनसे राज्य सभा मज़बूत तो होगी ही राज्यों की छटपटाहट भी शांत होगी क्योंकि केंद्र में उनकी आवाज़ें दमदार तरीके से फिर सुनी जाने लगेंगी.
1. राज्य के मूल निवासी वाली शर्त फिर जोड़ी जाए
- राज्य सभा (upper house) को मज़बूत करने का सबसे प्रभावी तरीका यह हो सकता है कि उसकी सदस्यता के लिए किसी राज्य के मूल निवासी वाली शर्त फिर जोड़ी जाए. यानी सदस्य जिस राज्य का प्रतिनिधित्व करें वे वहीं के मूल निवासी हों.
- इस प्रावधान को हटाने से राज्य सभा विभिन्न पार्टियों की हाईकमान के प्रतिनिधियों का सदन बनकर रह गई है.
2. राज्य सभा में सभी राज्यों के प्रतिनिधियों की संख्या समान हो
- राज्य सभा (upper house) में सभी राज्यों के प्रतिनिधियों की सदस्य संख्या बराबर हो.
- इस सिलसिले में दुनिया के अन्य देशों से सीखा जा सकता है वे कैसे अपने सभी राज्यों को संघीय संसद में संतुलित प्रतिनिधित्व देते हैं. मिसाल के तौर पर अमेरिका में सभी राज्यों के दो-दो सदस्य अमेरिकी कांग्रेस के उच्च सदन सीनेट के सदस्य होते हैं. यहां यह मायने नहीं रखता कि कौन सा राज्य जनसंख्या के लिहाज़ से कितना बड़ा है या छोटा. दो सदियों से वहां यह व्यवस्था चली आ रही है. इससे किसी तरह के विवाद या असंतोष की स्थिति नहीं बनती.
- यह विकल्प भारत में भी आज़माए जाने की ज़रूरत है. विशेष रूप से यह देखते हुए कि देश में कई राज्य ऐसे हैं ख़ास तौर पर हिंदी भाषी राज्य जहां जनसंख्या विस्फोट की स्थिति बनी हुई है. इससे यह धारणा भी बन रही है कि केंद्र में ज़्यादा आबादी वाले राज्यों का प्रभुत्व है. यह विकल्प आज़माकर यह धारणा तोड़ी जा सकती है.
3. राज्य सभा को लोक सभा की तरह शक्तियां दी जाएं
- राज्य सभा को लोकसभा के समान शक्तियां देने की भी ज़रूरत है. अभी स्थिति यह है कि धन विधेयक पर राज्य सभा की राय को ज़्यादा तवज़्ज़ो नहीं दी जाती. उसमें आख़िरी मर्ज़ी लोक सभा की ही चलती है.
- संसद का संयुक्त सत्र बुलाकार भी राज्य सभा को दरकिनार किया जा सकता है जबकि फिर अमेरिका का उदाहरण देखें तो वहां ऐसा नहीं किया जा सकता. अमेरिकी संसद में निचले सदन प्रतिनिधि सभा को जितनी शक्तियां मिली हुई हैं उतनी ही उच्च सदन सीनेट को भी हैं. इससे वहां शक्ति संतुलन की स्थिति रहती है.
- बल्कि अमेरिका में तो सीनेट के सदस्य को ज्यादा प्रतिष्ठा प्राप्त है क्योंकि वह किसी एक संसदीय क्षेत्र नहीं बल्कि पूरे राज्य का प्रतिनिधित्व करती है. इसी तरह भारत में भी राज्य सभा और उसके सदस्यों काे शक्ति संपन्न बनाकर उसे सही मायने में राज्याें के प्रतिनिधियों का सदन बनाया जा सकता है़, एक तरह शक्ति संतुलन स्थापित किया जा सकता है और राज्यों को यह भरोसा दिया जा सकता है कि उनकी आवाज़ें संसद में अनसुनी नहीं की जाएंगी
QUESTION:
राज्यसभा राज्यों को सचमुच सदन बनाने के लिए कैसे सशक्त होना चाहिए?
How rajyasabha should be empowered to make it truly house of states?
https://gshindi.com/category/hindu-analysis/upper-house-and-its-relevence