- बढ़ती आबादी से उपजने वाली चिंताओं पर दुनिया को जागरूक करने के उद्देश्य के साथ आज विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जा रहा है. जनसंख्या वृद्धि एक मुख्य समस्या के तौर पर विमर्श और नीतियों का आधार बनी हुई है. लेकिन, इसके बरक्स आदिवासियों की घट रही जनसंख्या पर न के बराबर बात हो रही है.
- संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि आज दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में 37 करोड़ आदिवासी रह रहे हैं. भारत में भी लगभग 705 जनजातीय समूह हैं जिनकी कुल संख्या 2011 में 10 करोड़ से थोड़ा ज्यादा दर्ज की गई थी.
- चिंता की बात यह है कि इनमें कई ऐसे जनजातीय समूह हैं जो अब विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गए हैं. अंडमान में जारवा जनजाति की जनसंख्या तो लगभग 400 के आंकड़े तक सिमट गई है.
- भारत के जिन राज्यों में एक बड़ी संख्या में आदिवासी आबादी रहती है उनमें छत्तीसगढ़ प्रमुख है. 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि राज्य के सात जिलों जशपुर, सुकमा, बीजापुर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, कांकेर और कोरिया में आदिवासी आबादी काफी गिरी है.
- करीब 30 फीसदी आदिवासी आबादी वाले इस राज्य में नक्सल प्रभावित इलाकों को देखें तो वहां आबादी की वृद्धि दर तेजी से घटी है. 2001 की जनगणना में यह दर 19.30 फीसदी थी जो 2011 में घटकर 8.76 फीसदी रह गई. इन आंकड़ों के सार्वजनिक होने के बाद तमाम आदिवासी संगठनों ने राज्य सरकार से इस मुद्दे की तरफ ध्यान देने की मांग की थी लेकिन, उसका कोई खास नतीजा देखने में नहीं आया.
- छत्तीसगढ़ की पांच संरक्षित जनजातियों-बिरहोर, पहाड़ी, अबूझमाड़िया, बैगा, कोरवा और कमार- की आबादी लगातार कम हो रही है. राज्य में लुप्त प्राय बिरहोर आदिवासियों की आबादी का आंकड़ा 401 तक सिमट गया है. जशपुर जिले में बसने वाली असुर जाति के तो अब सिर्फ 305 लोग बचे हैं।
- कुछ विशेषज्ञ स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी को इसकी वजह मानते हैं. वे कहते हैं कि नक्सल प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में 95 फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर काबिल डॉक्टर नहीं हैं.
- आदिवासी इलाकों में परिवार नियोजन बंद करा दिया था लेकिन, अब टारगेट पूरा करने के लिए यह अभियान चोरी-छिपे चलाया जा रहा है.
★ हजारों साल से अपनी दुनिया में मस्त और अपनी कम ज़रूरतों में खुश रहने वाले आदिवासियों पर आधुनिकीकरण की मार भी पड़ रही है. जानकारों के मुताबिक उनके परिवेश में दूसरे समुदायों के दखल से उनका विस्थापन तो हो ही रहा है, उनमें कई आधुनिक बीमारियों का संक्रमण भी तेजी से फैलता जा रहा है.
★ लंबे समय से अपने परिवेश तक सीमित रहे आदिवासियों की प्रतिरोधक क्षमता इन बीमारियों के आगे बेहद कमजोर पड़ जाती है इसलिए उनकी मृत्यु दर में बढ़ोतरी हो रही है.
★ भोजन के मोर्चे पर सिमटते संसाधन इस समस्या को और बढ़ा रहे हैं. बाजरा, कोदों, कुटकी जैसे अनाजों की घटती खेती के साथ आदिवासियों का परंपरागत भोजन खत्म होने के कगार पर पहुंच रहा है.
★एक रिपोर्ट के मुताबिक इसके चलते 54 फीसदी आदिवासी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. तीन साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का एक बड़ा कारण डायरिया होता है. आयरन की भरपूर मात्रा के चलते बाजरा न सिर्फ शरीर के लिए पोषक होता है बल्कि डायरिया से लड़ने में भी यह बहुत प्रभावी होता है.
★यह तथ्य सामने आने के बाद सरकार ने कई जगहों पर बच्चों को आंगनबाड़ी में जिंक और आयरन की गोलियां देने का उपाय खोजा है. लेकिन इसी तरह की आपात कोशिशें इस दिशा में नहीं दिखतीं कि आदिवासी समुदाय को फिर उसकी परंपरागत फसलों से जोड़ा जाए.
★ अक्सर यह भी कहा जाता है कि आदिवासियों की आबादी पर मुख्यधारा के दूसरे समुदायों की आबादी बढ़ने का दुष्प्रभाव पड़ रहा है. कहा जाता है कि जंगलों में आम शहरी और ग्रामीण समुदाय का दखल बढ़ने से ऐसे चिंताजनक हालात पैदा हो रहे हैं. इसे सही ठहराने के लिए कई उदाहरण भी दिए जाते हैं.
★जैसे अंडमान द्वीप में रहने वाली जारवा जनजाति को पर्यटकों के लिए अघोषित रूप में ह्यूमन सफारी की तरह इस्तेमाल किया जाता है. इसी तरह अबूझमाड़ में रहने वाले माड़िया आदिवासियों को भी अजूबे की तरह देखने आने वालों की संख्या कम नहीं रहती.
★लेकिन इस तर्क में यह बात छिपाने की कोशिश की जाती है कि वे कौन हैं जो वहां दखल देकर आदिवासियों के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं, उनके वनों, रीति-रिवाजों,पेड़-पौधों, भोजन और भाषा को नष्ट करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं.
★ ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इसकी जिम्मेदार भी हमारी बढ़ती आबादी यानी आम जनता है. एकबारगी तो यही लगता है क्योंकि अक्सर हवाला दिया जाता है कि हमारी ज़रूरतें बढ़ रही हैं इसलिए जंगलों का भी सफाया हो रहा है और आदिवासियों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है.
★ आबादी का बढ़ना चिंता की बात नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता. लेकिन किसी समुदाय का अस्तित्व खत्म होना भी कम चिंताजनक नहीं है. ‘कथित विकास के नाम पर विकास का बाहरी मॉडल आदिवासियों पर थोपा जा रहा है जिससे इनके अस्तित्व के लिए संकट पैदा हो रहा है. इनकी घटती आबादी को लेकर किसी को कोई परवाह नहीं है.
★ आदिवासी समाज की सेहत हमारे पर्यावरण के स्वास्थ्य की भी सूचक है. उनकी खुशहाली का मतलब है कि हमारे जंगल और बड़े अर्थों में देखें तो हमारा पर्यावरण सुरक्षित है. इसलिए दुनिया की आबादी बढ़ना जितना चिंताजनक है उससे कम चिंताजनक आदिवासियों की आबादी घटना नहीं है
Q. आप उन आंकड़ो को किस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं , जो दर्शाते है की भारत में जनजातीय लिंगानुपात , अनुसूचित जातियों के बीच लिंगानुपात के मुकाबले , महिलाओं के अधिक अनुकूल है| UPSC 2015