विवाह नामक संस्था में नारी गरिमा की रक्षा का सवाल

#Dainik_bhaskar

संभव है नारीवादी संगठन वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध बनाने की मांग करने वाली दिल्ली हाई कोर्ट में दायर याचिका पर केंद्र सरकार के हलफनामे को पुरुषवादी कहें लेकिन, तटस्थ होकर देखने पर वह व्यावहारिक लगेगा।

Are government arguments objective and valid

  • सरकार ने जिन बातों की ओर ध्यान दिलाया है वह समाज की वस्तुस्थिति को नज़र में रखते हुए कही गई हैं।
  •  एक तो सरकार का कहना है कि वैवाहिक दुष्कर्म की परिभाषा दी जानी चाहिए।
  • उसके बाद ही धारा 375 के तहत उसे अपराध घोषित किया जाना चाहिए।
  • सरकार की दूसरी दलील यह है कि चूंकि आपराधिक कानून संविधान की समवर्ती सूची में हैं इसलिए, समाज की विविधताओं प्रतिनिधित्व करने वाले राज्यों की भी इस बारे में दलील आनी चाहिए।
  • इसी के साथ सरकार ने दहेज उत्पीड़न से संबंधित आईपीसी की धारा 498 का भी हवाला देते हुए कहा है कि उस कानून के दुरुपयोग के बहुत सारे मामले सामने आए हैं इसलिए सोचा जाना चाहिए कि कहीं इससे पतियों के उत्पीड़न की समस्या तो नहीं उपस्थिति होगी।

अभी तक विधि आयोग ने ऐसा कोई सुझाव नहीं दिया है, इसलिए इस बारे में जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि आमतौर पर सरकारें अनुदार होती हैं और मौजूदा सरकार पर यह आरोप कुछ ज्यादा लगता है, इसके बावजूद यह गंभीर और लंबी बहस का विषय है कि विवाह नाम की संस्था की आज कितनी सार्थकता है।

तमाम नारीवादियों ने भी घूम फिर कर उपभोक्तावाद के मौजूदा उथल-पुथल भरे दौर में विवाह नाम की संस्था की जरूरत को खारिज नहीं किया है। अब सवाल यह है कि विवाह नाम की वह संस्था कैसे गरिमापूर्ण और लोकतांत्रिक बने? 2012 में निर्भया कांड के बाद बनी न्यायमूर्ति वर्मा कमेटी और महिलाओं की स्थिति पर बनी राजपूत कमेटी ने तो साफ तौर पर सुझाव दिया है कि वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध की श्रेणी में डालना चाहिए। हाल में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यों की पीठ से जिस तरह निजता को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखा गया है उसे देखते हुए भी यह दलील मजबूती से खड़ी होती है नारी की गरिमा की हर हाल में रक्षा होनी चाहिए। है। वैसे स्त्री-पुरुष संबंधों के बारे में आदर्श स्थिति कानूनी नियंत्रण के बजाय आपसी सहमति से संचालन की ही है।

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