अगले सात साल में हम जनसंख्या में दुनिया में नंबर एक हो जाएंगे

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संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक मामलों की कमेटी की हालिया रिपोर्ट चिंता बढ़ाने वाली है, जिसमें कहा गया है कि अगले सात साल में हम जनसंख्या में दुनिया में नंबर एक हो जाएंगे। यानी हम चीन को जनसंख्या के मामले में पीछे छोड़ देंगे। कु

छ लोग खुश हो सकते हैं कि भारत जनसंख्या के मामले में दुनिया में सबसे बड़ा देश बन जायेगा। मगर असली सवाल ?

  • यह है कि क्या हमारे पास इस आबादी को देने के लिये पर्याप्त भोजन-पानी होगा?
  • आबादी तो बढ़ जायेगी पर भूगोल तो वही पुराना रहेगा?
  •  संसाधन सीमित हैं।
  • शासन की तमाम नाकामियां यथावत रहने वाली हैं। सबसे ज्यादा युवाओं के देश में हर हाथ को हम काम नहीं दे पाये हैं। देश में तमाम तरह के हिंसक प्रतिरोधों में ये बेरोजगार धर्म, प्रांत व वाद के बहाने इस्तेमाल किये जा रहे हैं।
  • यदि इनके पास काम होता तो ये स्थिति नहीं पैदा होती। इसके साथ ही आने वाले समय में बूढ़ी होती पीढ़ी की जिम्मेदारी भी हमारी होगी, जिसे हम सामाजिक सुरक्षा अभी तक नहीं दे पाये हैं। इस मायने में यह बढ़ती आबादी सामाजिक असंतोष का वाहक बन सकती है। रोटी, कपड़ा और मकान की कमी हिंसक प्रतिरोध को जन्म दे सकती है।

दरअसल, आजादी के सात दशक बाद देश में जो अथाह गरीबी है, उसके मूल में सामाजिक अन्याय भी निहित है। समाज में सुविधाओं का न्यायपूर्ण वितरण न हो पाना भी इसकी बड़ी वजह है। वैश्वीकरण व उदारीकरण के दौर में अर्थव्यवस्था का जो ढांचा सामने आया है, उसने अमीरी-गरीबी की खाई को और चौड़ा किया है। बदलते वक्त के साथ अब बुनियादी जरूरतों के सिवाय जीवनशैली से जुड़ी आवश्यकताओं का स्वरूप भी बदला है। लोगों में संतोष का भाव अब पहले जैसा नहीं रहा। बदलती जीवनशैली के साथ हमारी आवश्यकताएं भी बदली हैं और शौक भी। क्या हम इतनी बड़ी आबादी की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिये योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन बदली आवश्यकताओं को पूरा करने का दबाव इस धरती को भी झेलना होगा। क्या वह यह दबाव सहने की स्थिति में है? धीरे-धीरे हमारी जैव विविधता सिमटती जा रही है। जंगलों में कंक्रीट के जंगलों के विस्तार ने कई दुर्लभ जीव प्रजातियों व वनस्पतियों को लील लिया है। जो परोक्ष रूप से हमारे जलवायु परिवर्तन का वाहक बन रहे हैं,जिसका खमियाजा हमें भी गहरे तक भुगतना होगा। ऐसे में परिवार कल्याण की नीतियों पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है।

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