परवरिश की बढ़ती मुश्किलें

#जनसत्ता

वर्तमान सन्दर्भ

हाल ही में मुंबई में एक पुलिसकर्मी के अठारह वर्षीय बेटे ने अपनी मां की बेरहमी से हत्या कर दी। कैमरे के सामने अपनी मां की हत्या की बात कबूल करते हुए लड़के ने कहा, ‘मम्मी-पापा आपस में बहुत झगड़ा करते थे। मैं इस वजह से तनाव में रहने लगा था। मुझे मां पर बहुत गुस्सा आता था। वह बहुत स्वार्थी थी। मां बस अपने बारे में ही सोचती थी। हम सब पर झूठे आरोप लगाती रहती थी।’ अब इस मामले में जांच जारी है, पर रिश्तों और आपसी समझ के विडंबना भरे हालात देखिए कि इस बेटे ने अपनी मां के शव के पास फर्श पर अंग्रेजी में खून से लिखा है ‘आई एम टायर्ड आॅफ हर, कैच एंड हैंग मी।’ उसने इसके नीचे खून से ही एक स्माइली भी बनाया।

प्रश्न जो लाजमी है

सवाल यह है कि वो मां जो कुछ भी कहती थी, क्या केवल स्वार्थपरक बात ही होती थी? क्या आज के दौर के बच्चों में इतनी सहनशीलता भी नहीं बची कि अपने अभिभावकों की बात के मायने समझ सकें, जो कहीं न कहीं उनके भले के लिए ही होती है। ऐसे में जब आज की पीढ़ी बड़ों का कहा सुनना-समझना ही नहीं चाहती तो उन्हें अच्छे-बुरे का ज्ञान भी कौन कराए? बड़ा सवाल यह भी है कि इन बच्चों से परिवार, समाज या हमारी व्यवस्था के लिए समझ और सहयोग की क्या उम्मीद की जाए? छोटी-सी उम्र में अपराधी बन रही भावी पीढ़ी के मन में आखिर कैसी दिशाहीनता आ रही है कि वे अपनों को लेकर भी इस कदर संवेदनहीन हो चले हैं?

समाज कहाँ  जा रहा है ?

Ø   ये सभी प्रश्न एक विखंडित होते समाज की बानगी हमारे सामने रख रहे हैं।

Ø  इन सवालों के उत्तर तलाशते हुए यही जाहिर होता है कि संवेदना और सहनशीलता के मोर्चे पर हम बुरी पिछड़ रहे हैं। आज हर उम्र के लोग एक अजीब-सी उधेड़बुन में जी रहे हैं। यही वजह है कि कम उम्र में छोटी-छोटी बातों से आहत हो, ऐसी आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने के मामले देश के हर हिस्से से सुनने को मिल रहे हैं।

Ø   यह वाकई चिंतनीय है क्योंकि ज्यादातर मामलों में वजह बहुत बड़ी भी नहीं होती। पारिवारिक संवाद में इतनी नकारात्मकता कैसे हो सकती है कि किसी सदस्य की जान ही ले ली जाए!

Ø  बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी माता-पिता समेत परिवार पर ही होती है। एकल परिवारों के इस दौर में यह जवाबदेही अब पूरी तरह माता-पिता पर ही आ गई है। ऐसे में इन दो इंसानों का हक भी है और उत्तरदायित्व भी कि वे बच्चों को सही व गलत का फर्क समझाएं। गलती पर रोकें-टोकें। जरूरी हो तो कुछ बदिशें भी लगाएं। नैतिक ज्ञान और भविष्य को बेहतर बनाने की बातें भी सुनाएं।

आज का दौर

लेकिन आज के बच्चों को यह क्या हुआ है? न कुछ सुनना चाहते हैं और न ही समझना। वे जोर-जबर्दस्ती से परे, सही-गलत का भेद बताने वाली किसी बात को भी गंभीरता से नहीं लेते। उनके भले के लिए समझाई गई बातों पर भी गौर नहीं करते। यह वाकई चिंता का विषय है। परिवार के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी। क्योंकि उनके विचार और व्यवहार को दिशा देने वाले इस समय में वे अच्छे-बुरे का फर्क समझाने वाले बड़ों की हर कोशिश को नकारात्मक ढंग से लेते हैं। नतीजतन, कभी न कभी ऐसे दुखद वाकयों को भी अंजाम दे बैठते हैं।

 

अभिभावकों के लिए अब बच्चों की परवरिश दुधारी तलवार-सी हो गई है। खुलेपन के इस दौर में बच्चों को बांधना तो मुश्किल है ही, भावनात्मक समझाइश देते हुए उन्हें थामना भी कठिन होता जा रहा है। अब जबकि बच्चे छोटी-छोटी बातों में ही आपराधिक राह पकड़ रहे हैं, अभिभावक भी डरे-डरे से रहते हैं। साथ ही बड़ों के मन में इस बात का भय भी हावी रहता है कि अपनी जिम्मेदारियां निभाने में कहीं चूक न हो जाए।

ऐसे में अभिभावक करें तो क्या करें?

Ø  यह चिंता गांवों-कस्बों से लेकर महानगरों तक, सभी अभिभावकों की है।

Ø  बच्चे देश का भविष्य होते हैं। इन भावी नागरिकों के जीवन को सही दिशा देने के लिए समाज, परिवार और सरकार, सभी को अपने दायित्व निभाने होते हैं। लेकिन बीते कुछ बरसों में भारत में बाल अपराध का आंकड़ा जिस तेजी से बढ़ा है, कहीं न कहीं चूक तो हो रही है। हर तरह के अपराध में बच्चों की लिप्तता दर्शाने वाले बाल अपराध के आंकड़े चौंकाते ही नहीं बल्कि भयभीत भी करते हैं। हमारे देश में लैंगिक उत्पीड़न से लेकर बलात्कार, हत्या, चोरी, डकैती और लूटमार तक बच्चों की भागीदारी देखने को मिल रही है। यह अफसोसनाक ही है कि देश भर में सत्रह लाख किशोर अपराधी किसी न किसी आपराधिक मामले में नामजद हैं। यह संख्या वाकई भयभीत करने वाली है, जो दिनोंदिन बढ़ रही है।

Ø  जिस तरह हमारे समाज में कम उम्र के अपराधियों की संख्या बढ़ रही है, निश्चित रूप से अब मासूमियत के मापदंड ही बदल गए हैं। यही कारण है कि कुछ समय पहले महिला सशक्तीकरण के मामलों को लेकर गठित संसदीय समिति ने भी सिफारिश की थी कि (पुरुष) किशोर माने जाने की आयु घटा कर अठारह से सोलह साल कर दी जाए। मासूमियत के गुम होने का यह ग्राफ हमारे पूरे पारिवारिक-सामाजिक ताने-बाने के लिए ही नहीं, बल्कि प्रशासनिक और कानूनी व्यवस्था के लिए भी विचारणीय विषय बन गया है। बीते कुछ बरसों में हमारे पारिवारिक परिवेश और रिश्तों में आए खुलेपन ने बच्चों और बड़ों के बीच की दूरी भी मिटा दी है। अब आम घरों में भी बच्चों की जरूरतों को ही नहीं, उनकी चाहतों को भी पूरा करने की कोशिश की जाती है।

घर के इन छोटे सदस्यों का नजरिया समझने की कोशिश बड़े भी पूरे मन से करते हैं। बच्चों पर बढ़ते मनोवैज्ञानिक दबाव को भी आज के अभिभावक समझने और उनके सहयोगी बनने की कोशिश करते हैं। पर जाने क्यों मासूम मन का विरोधी स्वर तेज होता जा रहा है। बात-बात पर जिद और तर्क-कुतर्क, अब बालमन के विचार-व्यवहार का आम हिस्सा बन गया है। आजकल बच्चे बात-बात पर गुस्सा हो जाते हैं। कभी बेवजह डर जाते हैं तो कभी घरवालों को डराते हैं। ऐसे में अभिभावक नहीं समझ पा रहे कि उनके पालन-पोषण को कैसे संतुलित बनाएं। एक तरफ स्मार्ट गैजेट्स के जरिए उन तक निर्बाध पहुंच रहीं चाही-अनचाही सूचनाएं और चीजें निगरानी चाहती हैं, तो दूसरी तरफ आज की उलझन और दबाव भरी जिंदगी मार्गदर्शन भी मांगती है।

निष्कर्ष

इसमें कोई शक नहीं कि बीते कुछ सालों में इंटरनेट पर छाए इस खुलेपन ने समाज के ताने-बाने और रिश्तों की गरिमा को धूल में मिलाने में अहम भूमिका निभाई है, जिससे मासूम बच्चे भी नहीं बचे हैं। लेकिन यह कटु सच भी जीवन का हिस्सा बन रहा है कि अब बच्चों को कोई रहनुमाई नहीं चाहिए। अब न केवल उनकी सहनशीलता खो गई है बल्कि तकलीफों से जूझने की उनकी क्षमता भी कम हो रही है। यही वजह है कि कई तरह की आपराधिक घटनाओं में उनकी भागीदारी देखने को मिल रही है। लिहाजा, आज के समय में बच्चों की परवरिश भी एक मुश्किल भरी डगर बन गई है, जिस पर संतुलन साधने की कोशिश अभिभावकों और बच्चों को मिल कर ही करनी होगी। सहज संवाद और एक दूसरे को समझने से ही मुश्किलें दूर होंगी।

 

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