देश में सामाजिक अशांति

Context

गृह मंत्रालय द्वारा संसद में दिये गये नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े देश में सामाजिक अशांति की तस्वीर उकेरते हैं। रिपोर्ट के अनुसार :

  • बीते तीन सालों में धर्म, जाति व जन्मस्थान को लेकर हुई हिंसा में इकतालीस फीसदी की वृद्धि हुई है।
  • वर्ष 2014 में जहां ऐसी 318 घटनाएं हुई थीं वहीं वर्ष 2016 में इनकी संख्या बढ़कर 474 हो गई है।
  • दूसरी तरफ राजधानी व केंद्रशासित प्रदेशों में इसमें गिरावट दर्ज की गई है। जहां वर्ष 2014 में ऐसी 18 घटनाएं हुई थीं, वहीं वर्ष 2016 में केवल एक घटना हुई है।
  • उल्लेखनीय पक्ष यह है कि ये घटनाएं भाजपा शासित राज्यों में बढ़ी हैं। उत्तर प्रदेश में जहां वर्ष 2014 में ऐसी 26 घटनाएं घटी थीं वहीं 2016 में इनकी संख्या बढ़कर 116 हुई।
  • यद्यपि यह चुनाव वर्ष था मगर घटनाओं में वृद्धि बढ़ते सामाजिक असंतोष का परिचायक ही है। ऐसे ही शांत माने जाने वाले उत्तराखंड में वर्ष 2014 की चार घटनाओं के मुकाबले वर्ष 2016 में 22 घटनाएं दर्ज की

बहरहाल, ये आंकड़े हमें सोचने को बाध्य करते हैं कि सामाजिक सौहार्द की स्थितियां बिगड़ी हैं। जिन्हें दुरुस्त करने के लिये शासन-प्रशासन के स्तर पर चौकसी की जरूरत है।
 

Way forward

अगर कोई कानून हाथ में लेता है तो पुलिस-प्रशासन का दायित्व बनता है कि ऐसे तत्वों से सख्ती से निपटा जाये। देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को पलीता लगाने वाले तत्वों की पहचान की जानी चाहिए तथा सख्त सजा दिलाई जानी चाहिए। राष्ट्रीयता के प्रतीकों का सम्मान करना हर भारतीय का दायित्व है मगर किसी को इसके लिये बाध्य करना उसकी निजता व आजादी का अतिक्रमण ही है। ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई में पुलिस-प्रशासन को हिचकना नहीं चाहिए। साथ ही भाजपा नेतृत्व को भी राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देकर सौहार्दपूर्ण समाज की स्थापना के लिये प्रयास करना चाहिए। यदि समय रहते ऐसा नहीं होता है तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ऐसे आंकड़ों में इजाफा ही होगा

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