प्रगति और वैज्ञानिक चेतना के तमाम दावों के बावजूद भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी अंधविश्वास, टोने-टोटके और जहालत में डूबा हुआ है।
- ताजा उदाहरण है, दिल्ली से सटे राज्यों में महिलाओं की चोटी काटने की कथित घटनाएं।
- उत्तर प्रदेश के आगरा में तो वहशी भीड़ ने पैंसठ साल की एक दलित महिला को पीट-पीट कर मारा डाला। पीटने वालों का कहना था कि यह महिला उनके मुहल्ले में किसी की चोटी काटने के इरादे से घूम रही थी, जबकि हकीकत यह थी कि वह अंधेरे में रास्ता भटक गई थी। चोटी काटने की पहली घटना पिछले सप्ताह राजस्थान के भरतपुर में सुनाई पड़ी थी। उसके बाद हरियाणा, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के कई जिलों में ऐसे वाकये सुनने में आए।
- तीनों राज्यों में पचहत्तर से ज्यादा वारदातें हो चुकी हैं, जिनमें सर्वाधिक घटनाएं हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम और पलवल की हैं। जिन महिलाओं की चोटी कटने की बात सामने आ रही है, उनके बयानों में कोई समानता नहीं है। किसी ने बताया कि उसने पहले काली बिल्ली देखी और बेहोश हो गई, फिर होश आया तो चोटी कटी थी।
- किसी ने कहा कि कुत्ता देखने के बाद बेहोश हुई तो किसी ने कहा कि उसे किसी ने अंधेरे में धक्का दिया, जिसके कारण वह गिर पड़ी और बेहोश हो गई।
जो बात समान रूप से सही है, वह यह कि चोटी काटे जाने से पहले पीड़ित महिला का बेहोश होना। हालांकि फिलहाल दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि यही सच है। एक बात यह भी समझने की है कि जिन महिलाओं की चोटी कटने की बातें सामने आई हैं, वे बेहद गरीब और अशिक्षित हैं। इसी तरह की घटनाएं 2001 में दिल्ली व नोएडा क्षेत्र में ‘मंकीमैन’ और 2002 में पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘मुंहनोचवा’ के नाम से सुनाई पड़ी थीं।
उन दिनों यह अफवाह आम रही कि मंकी मैन किसी को घायल कर भाग जाता है और मुंहनोचवा मुंह नोच कर फरार हो जाता है। दोनों में कोई पकड़ा नहीं गया था। मौजूदा दौर में इस तरह की घटनाएं हमारे समूचे विकास और तरक्की पर तीखा सवालिया निशान लगाती हैं।
आज भी नरबलि और डायन-हत्या जैसी घटनाएं घट रही हैं। पिछले साल झारखंड में पांच महिलाओं की डायन बता कर हत्या कर दी गई थी और उत्तर प्रदेश के सीतापुर में एक परिवार ने तांत्रिक की सलाह पर अपनी ही बच्ची की बलि चढ़ा दी थी। चोटी काटने की घटनाओं के बारे में स्थानीय प्रशासन भी कुछ साफ बोलने की स्थिति में नहीं है।
In conclusion
बस यही कहा जा रहा है कि अफवाहों पर ध्यान न दिया जाए। मनोवैज्ञानिक इसे सामूहिक उन्माद या सामूहिक विभ्रम बता रहे हैं। लेकिन इसका समाधान क्या है, इस बारे में उनके पास भी कोई सटीक उत्तर नहीं है। इस नजरिए से भी जांच की जरूरत है कि कहीं कोई समूह या संगठन तो इसके पीछे नहीं है, जिसका कि कोई निहित स्वार्थ हो? बहुत सारे लोग तांत्रिकों और ढोंगी ओझा-गुनियों की शरण में जा रहे हैं। दुर्भाग्य यह भी है कि हमारी सरकारें एक तरफ वैज्ञानिक चेतना विकसित करने का दम भरती हैं और दूसरी तरफ आज भी अखबारों, चैनलों से लेकर सड़कों, चौराहों, गलियों में तांत्रिकों-ओझाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन छाए रहते हैं। इनमें मनचाहा प्रेम विवाह कराने, गृहक्लेश से मुक्ति दिलाने, सौतन का नाश करने, शत्रुमर्दन, गड़े धन की प्राप्ति जैसे तमाम दावे किए जाते हैं। अशिक्षा और परेशानियों में जकड़े हुए लोग इनके पास ‘राहत’ पाने जाते हैं और ठगी के शिकार होते हैं। सरकार हो या नागरिक समाज, सभी को मिलकर यह सोचने की जरूरत है कि आखिर बदहाली में जी रहा हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा कब तक इस तरह की मुसीबतों में फंसता रहेगा