- NSSO यानी नैशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन की ताजा सर्वे रिपोर्ट देशवासियों की स्वास्थ्य संबंधी स्थितियों के बारे में गंभीर खुलासा करती है। इसके मुताबिक देश की ग्रामीण आबादी का 86 फीसदी और शहरी आबादी का 82 फीसदी हिस्सा ऐसा है जिसे किसी भी तरह का स्वास्थ्य बीमा कवर हासिल नहीं है
- आबादी के इस विशाल हिस्से तक न तो प्राइवेट बीमा कंपनियां पहुंच पाई हैं और न सरकारी। लिहाजा आबादी का यह हिस्सा बीमारी और इलाज के मामले में पूरी तरह असुरक्षित है।
- सरकार की स्वास्थ्य संबंधी नीतियों का जोर इलाज को सस्ता बनाने के बजाय उसकी गुणवत्ता बनाये रखने पर होता है। नीति निर्माताओं के बीच इस बात पर करीब-करीब आम राय बन गई लगती है कि इलाज या तो सस्ता होगा या अच्छा।
- लिहाजा सरकार अपना ध्यान प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप यानी पीपीपी के जरिए अत्याधुनिक हॉस्पिटल खोलने, चिकित्सा के नए-नए केंद्र बनाने और वहां इलाज की आधुनिकतम व्यवस्था मुहैया कराने पर देती है। स्वाभाविक रूप से इन अस्पतालों का इलाज काफी महंगा होता है जो आम लोगों की पहुंच से बाहर हो सकता है।
- इसका हल यह निकाला जाता है कि सब्सिडी आदि के जरिए इलाज को कृत्रिम तौर पर सस्ता बनाने के बजाय मरीजों को इंश्योरेंस की सुविधा मुहैया करा दी जाए ताकि अधिक से अधिक लोगों तक इलाज की यह स्तरीय व्यवस्था पहुंचे और वे इसका लाभ उठा सकें।
- इसका नतीजा यह हुआ है कि प्राइवेट अस्पतालों की डिमांड बढ़ी है। ताजा सर्वे के आंकड़े भी बताते हैं कि बीमारियों इलाज के मामले में देशव्यापी प्रवृत्ति सरकारी से निजी अस्पतालों की ओर जाने की है। - बीमा की भाषा में कहें तो स्पेल्स ऑफ़ एलमेंट (बीमारी की अवधि) का 70 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा प्राइवेट सेक्टर में जाता है। इसका परिणाम यह है कि इनमें से ज्यादातर परिवार बीमारियों के चक्कर से जब निकलते हैं तब तक आर्थिक तौर पर टूट चुके होते हैं।
★इंश्योरेंस कंपनियां अपना कवर आबादी के उसी हिस्से को देने में दिलचस्पी रखती हैं जो आर्थिक तौर पर मजबूत दिखता है। इसीलिए कमजोर हिस्से आज भी इंश्योरेंस कवर से बाहर हैं। - मगर बात यहीं खत्म नहीं होती। किए गए वादे को पूरा करने के मामले में भी ये कंपनियां फिसड्डी साबित हो रही हैं।
- Survey रिपोर्ट के मुताबिक जो किसी न किसी स्कीम के तहत इंश्योरेंस कवर हासिल कर चुके हैं उनके लिए भी क्लेम हासिल करना मुश्किल होता है।
- इस NSSO रिपोर्ट की मानें तो शहरी क्षेत्रों में मात्र छह फीसदी मामलों में ही बीमा कंपनियों से पुनर्भुगतान (रीइंबर्समेंट) होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह आंकड़ा महज एक फीसदी है।
- साफ है कि देशवासियों के स्वास्थ्य को बीमा कंपनियों की मर्जी के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता। अगर सरकारी चिकित्सा व्यवस्था को सर्वसुलभ नहीं बनाया जा सकता तो कम से कम बीमा की विश्वसनीय, भरोसेमंद और पारदर्शी व्यवस्था करनी ही होगी।