जून, 2014 से कच्चे तेल की कीमतों में शुरू हुई गिरावट अभी भी जारी है। अनुमान था कि 40 डॉलर प्रति बैरल तक जाने के बाद कच्चा तेल फिर से उठना शुरू करेगा, लेकिन अब वह इस मनोवैज्ञानिक सीमा को भी पार कर गया है। अब तो इसके 20 डॉलर तक गिरने के अनुमान व्यक्त किए जा रहे हैं।
- सस्ता कच्चा तेल भले ही तेल आयातक देशों का खजाना भर रहा हो लेकिन अब इसके कई पर्यावरणीय व आर्थिक दुष्परिणाम निकलने की संभावनाएं व्यक्त की जाने लगी हैं।
=>पेट्रोलियम तेल के कच्चे होने के कारण :-
- पहले कच्चे तेल की कीमतें मांग और आपूर्ति से निर्धारित होती थीं वहीं अब बहुआयामी कारकों का प्रभाव पड़ रहा है।
1.अमेरिका का तेल आयातक से निर्यातक बनना,
2.चीन की विकास दर में धीमापन,
3.शेल गैस क्रांति,
4.नई तकनीक,
5.ऊर्जा दक्ष वाहनों का विकास और
6.सबसे बढ़कर बैटरी तकनीक में लगातार आ रहे सुधार।
- इन कारणों से कच्चे तेल की कीमत तय करने में तेल निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) की अहमियत घटती जा रही है।
=>तेल की भू राजनीतिक स्थिति :-
✓✓ गौरतलब है कि 1973 में ओपेक द्वारा तेल उत्पादन में कटौती किए जाने से कच्चे तेल की कीमतें सालभर के भीतर 3 डॉलर से चार गुना बढ़कर 12 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थीं।
✓ इससे अमेरिका, यूरोप व जापान की आर्थिक वृद्धि दर को झटका लगा और दुनिया में ऊर्जा शक्ति की धुरी मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका की ओर झुक गई।
✓ तेल की ऊंची कीमतों ने सऊदी अरब व कई अन्य खाड़ी देशों को निवेशकों के लिए काफी आकर्षक बना दिया। इससे दुनिया की भूराजनीतिक स्थिति में भी बदलाव आया और इस इलाके में अमेरिकी दखलअंदाजी तेजी से बढ़ी।
✓ ✓ अमेरिका की देखादेखी दूसरे शक्तिशाली देश भी खाड़ी देशों में अपनी पैठ बनाने में जुट गए। इससे तेल उत्पादक देशों ने अपने संगठन ओपेक को और मजबूत बनाया। लेकिन विश्व का लगभग आधा तेल उत्पादित करने वाला ओपेक अब बिखर रहा है।
1. ओपेक का प्रमुख सदस्य सऊदी अरब तेल की कीमतें इसलिए गिरने दे रहा है ताकि अमेरिका के लिए शेल गैस की खोज और उत्पादन एक महंगा सौदा हो जाए।
2. सऊदी अरब तेल की कम कीमत के जरिए ईरान को नियंत्रित करने की रणनीति पर काम कर रहा है।
3.परमाणु बम के साथ-साथ सऊदी अरब लेबनान, सीरिया, यमन में ईरान के बढ़ते प्रभाव को भी रोकना चाहता है।
✓✓ गोता लगाते कच्चे तेल की कीमतों का एक कारण अमेरिका और रूस के बीच चल रहा शह और मात का खेल भी है। आज रूस की कुल निर्यात आय का 68 फीसदी हिस्सा तेल-गैस से आ रहा है।
✓दिवालिया होने की कगार पर पहुंच चुके रूस को महंगे होते कच्चे तेल-गैस ने सुधरने का जो मौका दिया था अमेरिका उसकी जड़ काटने में जुटा है।
✓ दरअसल, यूक्रेन मामले में रूस के हस्तक्षेप से कुपित पश्चिमी देशों ने रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगा रखा है। इससे रूसी अर्थव्यवस्था बुरे हाल में है।
- इन्हीं परिस्थितियों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की गिरती कीमतें रूस को दिवालिया बनाने की ओर धकेल रही हैं। यही कारण है कि रूसी मुद्रा रूबल लगातार कमजोर हो रही है। मुद्रा के अवमूल्यन से विदेशी निवेशक रूस में बिकवाली करके अपनी पूंजी को वापस घर ले जा रहे हैं।
- सस्ते कच्चे तेल के कारण तेल आयातक देशों को अब आयात पर खर्च कम करना पड़ रहा है। यूरोप की अर्थव्यवस्था में सुधार आ रहा है। भारत जैसे भारी-भरकम आयातक देशों का राजकोषीय असंतुलन संभलने लगा है।
=>नकारात्मक नतीजे :-
- लेकिन यदि कच्चे तेल की कीमतें लंबे समय तक न्यूनतम स्तर पर बनी रहती हैं तो इसके नकारात्मक नतीजे आने शुरू हो जाएंगे।
1. गौरतलब है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा मनीऑर्डर प्राप्तकर्ता देश बन चुका है और इसमें खाड़ी देशों में कार्यरत 65 लाख प्रवासी भारतीयों की अहम भूमिका है।
- ऐसे में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से खाड़ी देशों में आर्थिक गतिविधियां मंद पड़ेंगी जिससे भारतीय कामगारों की आमदनी घटेगी जिसका असर भारत के राजस्व पर भी पड़ेगा।
2.सस्ते कच्चे तेल की सबसे बड़ी मार पर्यावरण पर पड़ने वाली है। महंगे कच्चे तेल से बचने के लिए नई तकनीक से ऊर्जा दक्ष वाहनों के निर्माण की जो मुहिम शुरू हुई थी वह अब थमती नजर आ रही है।
3.इसका दूसरा परिणाम अपरंपरागत ऊर्जा में निवेश में कमी के रूप में आ रहा है। दुनियाभर की अग्रणी कंपनियां शेल गैस के उत्खनन-विकास से हाथ पीछे खींच रही हैं।
- उदाहरण के लिए रूसी गैस पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से यूक्रेन ने 10 अरब डॉलर लागत वाली अपनी शेल गैस विकास की परियोजना रोक दी है।
- इसी तरह अमेरिका, ब्रिटेन, चीन भी शेल गैस में निवेश के प्रति अरुचि दिखाने लगे हैं।
- दीर्घकालिक रूप से यह प्रवृत्ति घातक है क्योंकि इसका नतीजा कच्चे तेल की कीमतों में तेजी के रूप में आ सकता है।