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Empowered Daughters
बेटियां आज हर क्षेत्र में बेटों के मुकाबले मैदान में डटी हैं। सेना हो या प्रशासनिक सेवा या खेल का मैदान या फिर अंतरिक्ष, बेटियां अब हर क्षेत्र में नाम रोशन कर रही हैं। यह बदलाव तेजी से दिख भी रहा है। समाज का नजरिया भी बदला है और परिवार अब बेटियों को पराया धन नहीं समझते। आर्थिक स्वावलंबन ने बेटियों को न केवल समृद्ध बनाया है, बल्कि उन्होंने परिवार की बागडोर भी अपने हाथ में ले ली है।
लेकिन समाज के एक तबके के लिए बेटियां अभी भी शायद बोझ हैं। उनके जन्म पर शोक मनाया जाता है। बेटे की चाह में बेटियों पर जुल्म ढहाते हैं। कुछ ऐसी ही मनोदशा को साबित करता है सिरसा की घटना।
Recent context
- यहां दादी ने पौत्र की चाह में बच्ची को चिमटों से दाग दिया।
- इतना ही नहीं परिवार ने भी इस पर उसका ठीक से इलाज कराना जरूरी नहीं समझा।
- बाल कल्याण समिति ने गांव पहुंचकर बच्ची को अस्पताल पहुंचाया। बावजूद इसके परिवार न मनोदशा में बदलाव लाने को तैयार है, न ही कोई सबक ही ले रहा है।
- निश्चित तौर पर एक घटना से पूरे समाज की छवि को परिभाषित नहीं किया जा सकता, लेकिन ऐसी घटनाएं आज के युग में हमारी संकुचित मानसिकता को उजागर जरूर कर रही हैं। ऐसी विकृति को बदलने के लिए आखिर क्या किया जाए? कोई भी सरकारी नीति या परियोजना इस सोच में बदलाव नहीं ला सकती। आज भी घर से बाहर व कार्यक्षेत्र के दौरान महिलाओं को बहुत कुछ ङोलना सहना पड़ता है।
Need of family support
महिलाएं इस चुनौती से निपटने के लिए स्वयं सक्षम भी हो जाएं, बशर्ते परिवार उनके साथ खड़ा हो। सिरसा का घटनाक्रम साबित करता है कि सबसे पहले बदलाव परिवार को अपनी सोच में लाना होगा। इसमें समाज को भी मददगार बनना होगा। सामाजिक संस्थाएं व खापें महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए आगे आ रही हैं, पर आवश्यकता यह है कि समाज के भीतर ऐसी सोच के खिलाफ भी जंग छेड़ें। बेटियों से नाइंसाफी करने वालों को समाज में अलग-थलग कर दिया जाए और उनके लिए सामाजिक दंड तय हों। एक बार समाज इन कुरीतियों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ तो ऐसी सोच स्वयं ही दफन हो जाएगी। फिर किसी बेटी को यूं अपनों के ही हाथों उत्पीड़न नहीं ङोलना पड़ेगा।