गौरतलब है कि वाराणसी में भीड़भाड़ वाले इलाके में व्यस्त सड़क यातायात को सहज बनाने के मकसद से पुल का निर्माण संभवत: उस क्षेत्र में चल रहे विकास कार्यक्रमों का ही हिस्सा होगा। लेकिन हैरानी की बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र होने के बावजूद संबंधित अधिकारियों ने सुरक्षा के लिहाज से निर्माण से संबंधित कार्यों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना और सावधानी बरतना जरूरी नहीं समझा। इस तरह के किसी भी निर्माण के दौरान हर समय एक तरह के जोखिम की स्थिति बनी रहती है, लेकिन इस काम का निर्देशन और देखरेख कर रहे अधिकारियों की लापरवाहियों का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि न केवल व्यस्त समय में पुल के एक स्लैब को जोड़ने का काम जारी था, बल्कि उसके नीचे से वाहनों की आवाजाही पर कोई रोक भी नहीं थी और न ही सुरक्षा घेरे को लेकर सख्ती बरती गई। जबकि सेतु निगम की ओर से कहा गया है कि हमारे अधिकारियों ने यातायात का मार्ग बदलने के लिए प्रशासन को कई बार चिट्ठी लिखी थी। अगर यह सही है तो इस हादसे में सेतु निगम से लेकर प्रशासन से जुड़े सभी संबंधित अधिकारियों की जिम्मेदारी बनती है।
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जाहिर है, अगर निर्माण कार्य के दौरान सुरक्षा संबंधी मामूली सावधानी बरती जाती तो पुल के एक हिस्से के ढहने के बावजूद इतनी बड़ी तादाद में लोगों की जान नहीं जाती। वाराणसी का यह हादसा इस तरह की अकेली घटना नहीं है। करीब दो साल पहले कोलकाता में एक निर्माणाधीन पुल के ढह जाने की ऐसी ही घटना हुई थी, जिसमें कई लोगों की जान चली गई थी। अमूमन इस तरह की हर घटना के बाद जांच के लिए समिति बना दी जाती है, लेकिन यह शायद ही कभी पता चलता है कि उसकी रिपोर्ट के आधार पर क्या कदम उठाए गए। जबकि किसी भी हादसे का सबसे बड़ा सबक यह होना चाहिए कि भविष्य में वे सारे इंतजाम किए जाएं, हर मोर्चे पर सावधानी बरती जाए, ताकि वैसी घटना दोबारा नहीं हो। मगर आमतौर पर देखा गया है कि जब तक कोई हादसा नहीं हो जाता, तब तक उससे बचने के इंतजामों पर बात शुरू नहीं होती।