आर्थिक रणनीति ज्यादा जरूरी

देश में 24 मार्च से #LOCKDOWN है, जिसे केंद्रीय गृह मंत्रालय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत मिली शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए तय कर रहा है। मंत्रालय इसके लिए अभी तक प्रशासनिक रास्ता अपना रहा है, जिसका पहला उद्देश्य महामारी के प्रसार को कम से कम करना है। इस अहम उद्देश्य के तहत ही कृषि को बचाने, विनिर्माण गतिविधियां दोबारा शुरू करने और आपूर्ति शृंखला की आवाजाही के लिए प्रशासनिक रियायतें धीरे-धीरे बढ़ाई गई हैं।

यह उचित एवं आवश्यक संस्थागत कदम था, मगर यह जरूरी हो गया कि अब देश गृह मंत्रालय नियंत्रित प्रशासनिक तरीके को छोड़कर आर्थिक तरीका अपनाए ताकि आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू की जा सकें और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में नुकसान के स्तर को कम किया जा सके।

  • मुख्य आर्थिक सलाहकार का अनुमान है कि इस साल वृद्धि घटकर दो फीसदी पर आ जाएगी। यह विदेशी एजेंसियों के अनुमानों से बेहतर है। मगर ऐसा अपने आप नहीं होगा। इसके लिए स्पष्ट आर्थिक रणनीति अपनानी होगी।
  • ऐसी रणनीति के लिए केंद्र सरकार की भूमिका राजस्व नुकसान के लिए कदम उठाने और आवश्यकता पडऩे पर छिटपुट राहत मुहैया कराने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। अब तक ऐसा ही हो रहा है और इससे प्रशासनिक तरीका अपनाए जाने का पता चलता है। इसमें बदलाव होना चाहिए।

ऐसे पांच कार्य हैं, जो सरकार को करने चाहिए क्योंकि इन्हें अन्य कोई नहीं कर सकता है।

  • पहला, सरकार को इस समय बन रहे वृहद आर्थिक हालात के बारे में अपना नजरिया पेश करना चाहिए। इसमें न केवल जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान पेश करना बल्कि इसकी ढांचागत संरचना और पूरक चालू खाते परिदृश्य का ब्योरा शामिल करना भी शामिल है। सरकार को यह भी बताना होगा कि सतत वृद्धि हासिल करने के लिए कैसे राजकोषीय और मौद्रिक नीति तैयार की जाएगी, जो सामान्य महंगाई के सुसंगत होगी। इसे लेकर एक आधिकारिक नजरिया होना चाहिए। मगर यह कहना कि बदलते हालात की वजह से ऐसा करना संभव नहीं है तो इसे जिम्मेदारी से बचना कहा जाएगा। अन्य देशों ने भी ऐसे अनुमान जारी किए हैं और भारत को भी ऐसा करना चाहिए।

लघु अवधि और अगले तीन साल के दौरान अहम वृहद आर्थिक संकेतकों के किस तरह बदलने के आसार हैं, इसे लेकर विश्वसनीय बयान अहम है। इसी के आधार पर भारत के उपायों का बाहरी और घरेलू आर्थिक भागीदारों द्वारा आकलन किया जाएगा। सरकार को राजकोषीय, मौद्रिक, औद्योगिक, व्यापार और चालू खाते की नीतियों को लेकर एक रणनीतिक नजरिया मुहैया कराना चाहिए। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) पूरक मौद्रिक एवं ऋण नीतियां लेकर आ सकता है। सरकार को तालमेल वाली कार्यप्रणाली का प्रदर्शन करना चाहिए। तभी आर्थिक भागीदार समझ पाएंगे कि भारत वही करेगा, जो वह लघु अवधि में करता है। वे यह भी समझ पाएंगे कि हम कैसे मध्यम अवधि में इस चुनौती से निपटेंगे और उबरेंगे।

  • दूसरा राष्ट्रीय स्तर पर इस संकट से सबसे बड़ी चुनौती यह पैदा हुई है कि लॉकडाउन ने एकल भारतीय बाजार को विभाजित कर दिया है। यह बताना केंद्र सरकार का काम है कि कैसे एकल बाजार को बहाल किया जाएगा और आगामी महीनों में सुरक्षित रखा जाएगा। केंद्र को माल एवं श्रम की अंतरराज्यीय आवाजाही और संसाधनों को वहां इस्तेमाल करने की व्यवस्था करने पर ध्यान देने की जरूरत है, जहां उनकी आपूर्ति शृंखला को बनाए रखने और मजबूत करने के लिए जरूरत है।

  • तीसरा, यह वह समय है, जब मध्यम अवधि में खर्च एवं वसूली पर ध्यान देने की जरूरत है। हमें एक विश्वसनीय, परिस्थिति आधारित, मध्य अवधि के चरणबद्घ राजकोषीय खाके की जरूरत है, जो हमें बताए कि  राजस्व पर तात्कालिक असर कितना पडऩे जा रहा है और अगले तीन साल में इससे कैसे उबरने जा रहे हैं। तत्काल सार्वजनिक खर्च की कितनी जरूरत होगी और हम इसे अगले तीन साल में कैसे सामान्य स्तर पर लेकर  आएंगे। उधारी के वृहद आर्थिक नतीजे क्या होंगे और इनका अगले तीन साल के दौरान कैसे समाधान किया जाएगा। ऐसे मध्यम अवधि के खाके के बिना एक विश्वसनीय राजकोषीय सुदृढ़ीकरण का खाका बनाना संभव नहीं होगा। इस साल के बजट को अलग उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करना निरर्थक है।

  • चौथा, सभी के लिए राहत के प्रावधान करने, 'राहत' कोष जुटाने, कल्याणकारी नकद हस्तांतरण आदि के प्रयास जनता की राय में अच्छे हो सकते हैं मगर ये केंद्र सरकार के मुख्य कार्य नहीं हैं। केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करने पर ध्यान देना चाहिए कि राज्यों के पास खर्च करने के लिए पर्याप्त धन हो ताकि वे छोटे आर्थिक सहायता उपायों को लागू कर सकें। राज्यों को भी यह दिखाना चाहिए कि उन्हें उपलब्ध कराए जाने वाले धन का इस्तेमाल प्रभावी और कुशल तरीके से हो ताकि उन्हें आगे और संसाधन मिल सकें। अगर हम यह पाते हैं कि राष्ट्रीय प्रयास सामान्य स्तर से ऊपर नहीं जा पाते हैं और उस पैसे का लगातार अकुशल उपयोग होता रहता है या बरबाद किया जाता है तो सरकारी खर्च से बड़े राहत उपाय कमजोर होते हैं। ऐसे में गलत तरीके से ज्यादा पैसा खर्च करने के नतीजों से प्रभावित होने के बजाय आर्थिक झटका झेलना और कम खर्च करना ज्यादा तर्कसंगत है।

  • बहुत से लोग तर्क देते हैं कि मौजूदा संकट बड़े सुधारों को लागू करने का एक अच्छा मौका है। मगर अनिश्चितता के माहौल और कमजोर संस्थानों की विरासत होने पर ऐसा करना घातक हो सकता है। श्रम सुधारों का यह मतलब नहीं है कि सुरक्षा और पर्यावरण कानूनों को कमजोर किया जाए। पूंजी बाजार सुधारों का यह मतलब नहीं है कि अच्छे वित्तीय शासन की जगह अस्थायी उपाय लागू किए जाएं। इसलिए पांचवां ऐसा क्षेत्र जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए, वह बड़ी सुधार घोषणाओं के बजाय संस्थागत एवं प्रशासनिक ढांचे की स्थापना एवं मजबूती होना चाहिए। सुधारों को बाद में लागू किया जा सकता है।

व्यापक तौर पर यह माना जाता है कि भारत के अपनी पूरी आर्थिक संभावनाओं को हासिल करने में सबसे बड़ी बाधा उसकी कमजोर प्रशासनिक क्षमता और संस्थागत गुणवत्ता है। सुधारों की शुरुआत संस्थागत एवं प्रशासनिक क्षमता के मूलभूत विकास के साथ होनी चाहिए। इससे उत्पादकों, उपभोक्ताओं और निवेशकों में यह भरोसा बढ़ेगा कि सामान्य कारोबारी बहाली संकट से पहले के माहौल में नहीं बल्कि आर्थिक एवं संस्थागत सुधारों के माहौल में होगी।

Reference:business-standard.com/

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download