आप कार या मकान खरीदने के लिए बैंक से लोन लेते हैं तो बैंक आपका सिबिल स्कोर देखता है और उसके आधार पर आपकी साख का पता लगाने की कोशिश करता है। ठीक इसी तरह जब सरकार या कंपनियां बांड जारी करके बाजार से पैसा उधार लेती हैं तो क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां उनकी रेटिंग करती हैं। इस तरह क्रेडिट रेटिंग किसी सरकार, कंपनी या संगठन की कर्ज चुकाने की क्षमता का आकलन है। स्टैंडर्ड एंड पूअर्स, मूडीज और फिच ऐसी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के नाम हैं। ऋण भुगतान की यही क्षमता उनकी साख (क्रेडिटवर्दीनेस) को दर्शाती है। हालांकि इक्विटी सिक्युरिटीज जैसे आम स्टॉक पर यह लागू नहीं होती है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां जिस जिन संगठनों की साख का आकलन करती हैं उन्हें देनदार (ऑब्लिगर) कहते हैं जिनमें सरकार से लेकर कंपनियां, वित्तीय संस्थान, बीमा कंपनियां और नगर निकाय तक शामिल हैं।प्रत्येक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी का एक पैमाना होता है जिसके आधार पर वह सरकार या किसी कंपनी की रेटिंग करती है। आमतौर पर रेटिंग एजेंसी का यह पैमाना ‘एएए’ से लेकर ‘डी’ (एएए, एए, ए, बीबीबी, बीबी, बी, सीसीसी, सीसी, सी, डी) के बीच होता है। इसमें ‘एएए’ सर्वोच्च रेटिंग होती है जबकि ‘डी’ निम्नतम। इसमें ‘डी’ का मतलब है डिफॉल्ट। कुछ क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां इस इन अक्षरों से पहले या बाद में प्लस या माइनस का चिन्ह लगाती हैं। कुछ एजेंसियों का रेटिंग पैमाना इन्वेस्टमेंट ग्रेड या नॉन-इन्वेस्टमेंट ग्रेड के रूप में रेटिंग दर्शाता है जिससे पता चलता है कि उस बांड में निवेश किया जाए या नहीं। वैसे, क्रेडिट रेटिंग इस बात की गारंटी नहीं है कि कोई देनदार निवेशकों का पैसा जरूर वापस करेगा। अगर किसी संगठन की क्रेडिट रेटिंग उच्च स्तर की है तो उसके ऋण चुकाने में विफल रहने यानी डिफॉल्ट करने की संभावनाएं बिल्कुल कम हैं। यदि रेटिंग का स्तर कम है तो इसका मतलब यह है कि वह संगठन ऋण चुकाने में विफल हो सकता है। उच्च स्तर की रेटिंग वाले बांड्स में कमाई कम होती है।