आर्थिक रसूख का कूटनीतिक प्रयोग

इसमें दो राय नहीं कि बीते कुछ वर्षों में भारतीय कूटनीति का तेजी से उद्भव हुआ है। कुछ मायनों में यह वैसा ही है जैसा कि इसे होना चाहिए। प्रभावी कूटनीति का अर्थ ही होता है तमाम तरह के दबावों और अन्य परिस्थितियों में समय पर उचित प्रतिक्रिया देना। हाल के महीनों में देश की कूटनीति में एक नए किस्म की धार देखने को मिली है। यह देश के हितों को नुकसान पहुंचाने वालों से खुलकर निपटने को तैयार दिखी है। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 का खात्मा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। ऐसा करके सरकार ने न केवल इस क्षेत्र का संवैधानिक स्वरूप बदल दिया बल्कि आजादी के समय से चली आ रही यथास्थिति भी समाप्त कर दी। उम्मीद के मुताबिक ही इस निर्णय के बाद वैश्विक स्तर पर इसकी प्रतिध्वनि सुनाई दे रही है।
 
ज्यादातर देश भारत के साथ सहानुभूति रखते हैं और वे भारत की इस बात से सहमत हैं कि कश्मीर भारत का आंतरिक मसला है। वहीं कुछ देशों ने पाकिस्तान का पक्ष भी लिया। चीन एक बड़ी समस्या बना हुआ है। उसने कहा कि भारत ने अपने घरेलू कानून में एकतरफा बदलाव करके और प्रशासनिक निर्णयों के माध्यम से उसकी संप्रभुता और उसके हितों को नुकसान पहुंचाया है। कुछ अन्य देश भी पाकिस्तान के साथ आए। गत माह संयुक्त राष्ट्र महासभा में तुर्की के राष्ट्रपति रेसिप तैयप एर्डोगन ने भारत के इस कदम की आलोचना की और पाकिस्तान के नजरिये का समर्थन करते हुए कहा कि कश्मीर के लोग लगभग बंदी की स्थिति में हैं और 80 लाख लोग घरों से बाहर तक नहीं निकल पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि इस स्थिति में समस्या का समाधान न्याय और समता पूर्ण संवाद के माध्यम से ही हो सकता है न कि टकराव से। एर्डोगन ने यह भी कहा कि दक्षिण एशिया की स्थिरता और समृद्घि कश्मीर मुद्दे से अलग नहीं हो सकती।
 
आक्रामक कूटनीति
 
भारतीय विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया एकदम ठोस थी। उसने तुर्की की सरकार से कहा कि वह कश्मीरी की जमीनी परिस्थितियों की सही समझ पैदा करने के बाद ही इस विषय पर आगे कोई टिप्पणी करे। उससे कहा गया कि कश्मीर मसला भारत का आंतरिक मसला है। संयुक्त राष्ट्र महासभा से इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुर्की के प्रतिद्वंद्वी ग्रीस, साइप्रस और आर्मेनिया के राष्ट्राध्यक्षों से मुलाकात की। जाहिर है एर्डोगन इस संदेश की अनदेखी नहीं कर पाए होंगे। भारत ने न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित तुर्की यात्रा को रद्द कर दिया बल्कि तुर्की की कंपनी एनाडोलु शिपयार्ड को भारत में रक्षा संबंधी कारोबार करने से भी रोक दिया गया। हिंदुस्तान शिपयार्ड लिमिटेड ने एनाडोलु शिपयार्ड को भारतीय नौसेना के दो अरब डॉलर मूल्य के सहयोगी जहाजी बेड़े की परियोजना में तकनीकी साझेदार के रूप में चुना था। परंतु तुर्की और पाकिस्तान के रिश्तों के चलते भारत को इस अहम परियोजना में उसे शामिल करने को लेकर अपनी अनिच्छा दर्शाने पर मजबूर किया। इसके बाद भारत ने उत्तरी सीरिया में तुर्की की सैन्य कार्रवाई की आलोचना की। भारत ने कहा कि इससे क्षेत्र की स्थिरता और आतंक के खिलाफ लड़ाई को खतरा उत्पन्न हो सकता है। भारत ने तुर्की से कहा कि वह सीरिया की संप्रभुता और उसकी क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करे। 
 
मलेशिया द्वारा कश्मीर मसले पर पाकिस्तान का समर्थन करने पर भी भारत ने तीखी प्रतिक्रिया दी। हालांकि यह प्रतिक्रिया तुर्की की तुलना में नरम थी। मलेशिया से भारत की नाराजगी मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद के ट्वीट से संंबंधित थी। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा था कि जम्मू कश्मीर पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया गया है। हालांकि उन्होंने कहा कि इस कदम के पीछे कई वजह हो सकती हैं लेकिन फिर भी यह कदम गलत है। कश्मीर को लेकर उपजे तनाव से इतर भारत और मलेशिया के बीच तनाव की एक और वजह कट्टर इस्लामिक प्रचारक जाकिर नाइक भी है। भारत मलेशिया से नाइक का प्रत्यर्पण करना चाहता है। भारत मलेशिया पर सीधा हमला करने से बचता रहा लेकिन देश की सबसे शीर्ष खाद्य तेल व्यापार संस्था ने अपने सदस्यों से कहा कि वे मलेशिया से पाम ऑयल न खरीदें। भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक है। ऐसे में माना गया कि वह अन्य वैकल्पिक आपूर्तिकर्ताओं की ओर देख रहा था। करीब एक महीने के अंतराल के बाद भारत की रिफाइनरियों ने मलेशियाई पाम ऑयल की खरीदारी शुरू की। 
 
बदलती कूटनीतिक शैली
 
ये तमाम कदम बताते हैं कि भारत अपने हितों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करने वालों से निपटने के लिए तैयार है। भारत के मित्रों और शत्रुओं की बात करें तो दोनों के लिए संदेश एकदम स्पष्ट है कि अगर भारत जैसे दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्था के साथ लाभकारी द्विपक्षीय साझेदारी कायम करनी है तो कुछ सीमाओं का ध्यान रखना होगा। यह भारत जैसे देश के लिए एक अहम बदलाव है जो अब तक तमाम देशों के साथ सामरिक समझौतों पर हस्ताक्षर करके प्रसन्न था। इस कदर समझौते हुए कि यह शब्द अपने मानी ही गंवा बैठा। इनमें से ज्यादातर समझौते न तो सामरिक हैं न ही इन्हें सही अर्थों में समझौता कहा जा सकता है। 
 
परंतु इस बदलाव के भारत के लिए भी कुछ जोखिम हैं। यदि इसे ठीक तरह से नहीं संभाला गया तो एक गंभीर वैश्विक प्रतिभागी के रूप में भारत की छवि भी दांव पर लग जाएगी। आलोचक चीन का उदाहरण सामने रखेंगे जहां भारत ने बीच का रास्ता अपनाना चाहा ताकि एक ओर चीन के साथ संबंध कायम रखे जाएं और कई तरह से अपनी नाखुशी भी जाहिर की जाए। परंतु यह दलील कई तरह से गलत है। चीन भी अमेरिका और भारत जैसे अलग-अलग मुल्कों के साथ अलग-अलग व्यवहार करता है। शक्तिसंपन्नता ऐसी हकीकत है जो एक देश के अन्य देशों के साथ कूटनयिक रिश्तों को प्रभावित करता है।
 
अपनी आर्थिक शक्ति के इस कूटनयिक इस्तेमाल का यह नया प्रयास देश की कूटनीति को लेकर एक नई राह खोलता है जिसे लेकर परंपरावादी शायद बहुत अधिक सहज न हों। परंतु भारत के आर्थिक उभार के साथ यह भी एक तरीका है जिससे भारत अपने हितों की न केवल रक्षा कर सकता है बल्कि उसमें इजाफा भी कर सकता है। भारत को इसका इस्तेमाल करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए। 

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download