भूमंडलीकरण के दौर में आत्म- निर्भरता मिथक

पंचायतीराज दिवस पर पंचायत प्रमुखों से संवाद के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि कोविड-19 महामारी का सबसे बड़ा सबक यह है कि 'भारत को रोजमर्रा की जरूरत के सभी सामान के लिए आत्म-निर्भर होने और किसी पर आश्रित नहीं होने की जरूरत है'। एक स्तर पर प्रधानमंत्री के विचार सही हो सकते हैं और हम सब लॉकडाउन के दौरान की  तैयारी को लेकर सबक सीख रहे हैं। फिर भी, सामान्य स्तर पर देखें तो इस संकट से सीखा जाने वाला यह सबक खतरनाक है।
 
Why voices of self reliance

इस समय आत्म-निर्भरता की आवाज अधिक जोर-शोर से क्यों उठ रही है? ऐसा नहीं है कि हम सबको निजी जिंदगी में ऐसा लग रहा है कि अधिक लोगों पर निर्भरता से हम संकट काल में कमजोर हो जाते हैं। सच तो यह है कि एक वैश्विक समस्या होते हुए भी इस महामारी ने भूमंडलीकरण के पूरे ताने-बाने पर काफी दबाव डाला है। कई लोग यह सवाल उठा चुके हैं कि क्या यह महामारी बीते दशक में वित्तीय संकट के दुष्प्रभावों से आक्रांत और लोक-लुभावन राष्टï्रवाद के उदय से कमजोर हो चुकी भूमंडलीकरण की दीर्घकालिक प्रक्रिया का अंत कर देगी? शायद इस महामारी के बारे में इससे बेहतर संदर्भ क्या हो सकता है? बीते दशकों में भूमंडलीकरण से सर्वाधिक लाभान्वित होने वाले देश में उपजा एक वायरस ही इस महामारी की जड़ में है। इससे बखूबी पता चलता है कि हम किस कदर निर्भर हो चुके हैं।

महामारी ने लंबी अवधि में वैश्विक गतिविधि को तीन स्तरों पर खतरे में डाला है। सबसे स्वाभाविक यह है कि कई देशों ने लॉकडाउन और यात्रा पाबंदी लगाकर खुद को वैश्विक व्यवस्था से काट लेने की जरूरत समझी है। लेकिन इसे अस्थायी ही माना जाना चाहिए, दीर्घकालिक गतिशीलता के लिए वास्तविक खतरा नहीं। बाकी दो खतरे कहीं अधिक चिंताजनक हैं जिनमें पारस्परिक निर्भरता को समस्या के तौर पर देखा जाता है और उसे दूर करना जरूरी मानता है।

पहला चरण चीन में दिसंबर मध्य से लेकर जनवरी अंत तक चले लॉकडाउन का था। उस समय कई देश यह देखकर अचरज में पड़ गए कि उनकी अपनी अर्थव्यवस्थाएं किस कदर चीन में मौजूद कारखानों पर निर्भर हो रही हैं। सच है कि चीन ने जल्द ही अपने कारखानों में फिर से उत्पादन शुरू कर दिया और फिर से दुनिया के बाजारों में माल पहुंचने लगा। कारखाने फिर से खोलने के पीछे चीन की जल्दबाजी की वजह भी दिखती है। इस घटना ने दुनिया को यह सबक सीखा दिया कि आपूर्ति-शृंखला के विविधीकरण की जरूरत है क्योंकि आम तौर पर निर्भरता को खराब ही माना जाता है।

दूसरा चरण उसके बाद आया जब इस महामारी से जंग में जरूरी मानी जा रही सामग्रियों के लिए दुनिया भर में जद्दोजहद शुरू हुई थी। इससे यह पता चला कि इस समय अहम एवं रणनीतिक क्षेत्रों में अधिकांश देश दूसरों पर आश्रित थे। यहां भारत में हम यह देखकर अचंभित थे कि दवाओं के मामले में अग्रणी माने जाने के बावजूद इनके उत्पादन में इस्तेमाल होने वाली सामग्री को हमें चीन से ही आयात करना पड़ रहा है। दूसरी जगहों पर लोग कहीं और बनाए जा रहे फेस मास्क और वेंटिलेटर को लेकर आपस में लड़ रहे थे। इसी तरह संक्रमित लोगों के इलाज से संबंधित उत्पाद और वैक्सीन तैयार करने में जुटी कंपनियों के स्वामित्व को लेकर भी विवाद हो रहा था। इससे यह पता चला कि वैश्विक सहयोग की बुनियाद वैश्विक आपूर्ति-शृंखला जितनी ही खोखली है और हल्का सा भी दबाव उसे गिरा सकता है।

इस स्थिति का अकेला जवाब यही होगा कि हम थोड़ा कम भूमंडलीकृत विश्व की तरफ लौटें जिसमें महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को घरेलू स्तर पर ही संचालित किया जाता है ताकि किसी भी तरह का व्यापार प्रतिबंध या निर्यात पाबंदी जरूरत पडऩे पर आपको उनका इस्तेमाल करने से न रोक पाए। क्या हमें आत्म-निर्भरता की अहमियत नहीं दर्शाई जा रही है?

लेकिन ऐसा करना न केवल गलत होगा बल्कि असामान्य रूप से केवल निकट की सोच होगी। उन खुशनुमा दिनों के बारे में सोचिए जब आप किसी फिक्र के बगैर घूमने या सफर पर जा सकते थे। अगर दिसंबर के महीने में कोई आपसे यह पूछता कि क्या फेस मास्क किसी भी देश की राष्टï्रीय सुरक्षा पर असर डालने वाले जरूरी उत्पाद हैं और उनका घरेलू स्तर पर ही उत्पादन होना चाहिए, तो आप उस शख्स को शायद पागल ही मान लेते। आज हमें यह देखकर कोफ्त हो रही है कि हरेक देश में एन-95 मास्क बनाने वाले पर्याप्त कारखाने नहीं हैं। फिर भी सबक यही है कि हम पूरे यकीन के साथ यह नहीं कह सकते हैं कि ऐसे वैश्विकगतिरोध के समय में कौन सा क्षेत्र अचानक महत्त्वपूर्ण हो जाएगा। हम यह पूर्वानुमान नहीं लगा सकते कि किसी देश में एक खास समय पर कौन सा क्षेत्र खासकर अहम हो सकता है। मान लीजिए कि महामारी का उद्गम स्थल भारत था और हम भूमंडलीकरण के दौर से पहले की दुनिया में रह रहे थे, तब क्या हम दूसरे देशों से पर्याप्त संख्या में मास्क मंगवा सकते थे?

Is doing away with globalization a solution? 

यह जरूर है कि भूमंडलीकरण के तरीके में व्याप्त खामियां खुलकर दिखी हैं। वित्तीय संकट ने ही बता दिया था कि 'सक्षमता' और 'भंगुरता' के बीच भी एक संबंध है। अधिक सक्षम होने का मतलब है कि हम विभिन्न व्यवस्थाओं में  मौजूद कमजोरी को कम करना चाहते हैं लेकिन ऐसा होने पर यह अधिक कमजोर भी हो सकता है। इसका मतलब है कि हमें संकट काल के लिए एक ढाल तैयार करने के लिए अर्थव्यवस्था के कुछ अहम हिस्सों में कमजोरी बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन व्यवस्था की भंगुरता से निपटने का एक और तरीका यह है कि भूमंडलीकरण के नेटवर्क को कम करने के बजाय उन्हें सशक्त किया जाए। जब कोई संकट आता है तो मास्क, दवा या विचार, हर जरूरी चीज की आमद अधिक सुगम होनी चाहिए। महामारी का असली सबक यही है,'आत्म-निर्भरता' नहीं।

Reference:business-standard.com

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