- संसद और जनता के प्रति भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की जवाबदेही के नजरिये से देखें तो खुदरा मुद्रास्फीति में साल दर साल आधार पर आ रहे बदलावों पर ध्यान देने की बात समझी जा सकती है। यह गैर तकनीकी क्षेत्र के लोगों के लिए भी समझने लायक है। शीर्ष मुद्रास्फीति जनवरी 2019 के 1.97 फीसदी के न्यूनतम स्तर से अक्टूबर 2019 में 4.62 फीसदी के ऊंचे स्तर पर पहुंच गई। अकेले अक्टूबर में यह मुद्रास्फीति के 4 फीसदी के तय लक्ष्य को पार कर गई। हालांकि यह भी ध्यान रहे कि आरबीआई को शीर्ष मुद्रास्फीति को 2 से 6 फीसदी के तय दायरे में रखना है।
- कुछ लोग इस बात को लेकर ङ्क्षचतित हैं कि मुद्रास्फीति में तेजी आई है और आरबीआई दरों में इजाफा कर सकता है। यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि एक महीने के लिए जब शीर्ष मुद्रास्फीति घटकर 1.97 फीसदी रह गई थी, तब यह 2 से 6 फीसदी के लक्षित दायरे से बाहर थी। जब मुद्रास्फीति का लक्ष्य 4 फीसदी है तो हमें प्रसन्न होना चाहिए कि हम लक्ष्य को भंग करने के बजाय उसके करीब आ गए। गौरतलब है कि सितंबर में मुद्रास्फीति की दर 3.99 फीसदी थी। परंतु इस जवाबदेही से अलग हमें अब शीर्ष मुद्रास्फीति में माह दर माह आधार पर आने वाले बदलावों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इनका आकलन प्राय: मौसमी आधार पर समायोजित आंकड़ों के आधार पर किया जाता है। मौसमी आधार पर होने वाला समायोजन हमें व्यावहारिक समस्याओं मसलन खरीफ की उपज और दीवाली की मांग से इतर दृष्टि डालने में मदद करता है।
- इन आंकड़ों पर से क्षणभंगुरता का परदा हटने के बाद हमें हकीकत देखने को मिलती है। साल दर साल आधार पर आंकी गई मुद्रास्फीति का प्रत्येक मूल्य, 12 मासिक मूल्यों के आकलन का औसत है। साल दर साल मुद्रास्फीति के ताजातरीन मूल्य को देखें तो अंदाजा लगता है कि बीते एक वर्ष में अर्थव्यवस्था में क्या कुछ होता रहा है। माह दर माह आधार पर मुद्रास्फीति पर नजर डालें तो पता चलता है कि अर्थव्यवस्था की तस्वीर कैसी रही है। सितंबर में माह दर माह आधार पर आधारित मुद्रास्फीति 8.84 फीसदी के उच्चतम स्तर पर रही थी। अक्टूबर में यह घटकर 7.09 फीसदी रह गई। किसी एक महीने के लिए 7.09 फीसदी का मूल्य अस्वाभाविक नहीं है। खासकर माह दर माह मुद्रास्फीति की दृष्टि से देखें तो। अतीत में कई बार अलहदा महीनों में 10 फीसदी तक की मुद्रास्फीति देखने को मिली है जबकि समग्र प्रदर्शन नियंत्रण में नजर आया और वह 2 से 6 फीसदी के तय दायरे के भीतर रहा।
- मौद्रिक नीति समिति का काम कहीं अधिक गहराई से नजर डालने का है। मौद्रिक नीति निर्धारण का काम आसान नहीं है क्योंकि समिति के कदम और अर्थव्यवस्था पर उसके असर के बीच एक अंतराल होता है। हर मौद्रिक नीति समिति को भविष्य पर दृष्टि डालनी होती है। उसे उन कारकों की समझ होनी चाहिए जो उस वक्त सक्रिय हों और साथ ही अगले एक-दो वर्ष के दौरान मुद्रास्फीति की दशा और दिशा का भी अनुमान होना चाहिए। जब हम मौद्रिक नीति समिति के प्रदर्शन पर नजर डालते हैं तो यह समझना काफी आसान होता है कि समिति कब सही या गलत रही। इसके लिए संबंधित निर्णय के एक या दो वर्ष बाद मुद्रास्फीति के नतीजों पर दृष्टि डालना उचित होगा।
- यदि हम आज के आर्थिक हालात पर नजर डालें, खासकर जीडीपी आंकड़ों से परे के हालात को देखे तो आज हम कारोबारी चक्र में बेहतर स्थिति में नहीं हैं। इस बात की संभावना काफी कम है कि क्षमता के इस्तेमाल में उभार आएगी और श्रम बाजार में किसी किस्म की कड़ाई आएगी जो मुद्रास्फीति को दोबारा गति प्रदान कर सके। ऐसे में भविष्य की तिथियों को लेकर मुद्रास्फीति का हमारा नजरिया अपेक्षाकृत नरम रहना चाहिए। हकीकत यह है कि मौजूदा दौर की समस्या नीतिगत दरों का बहुत अधिक होना नहीं है। बल्कि दिक्कत यह है कि नीतिगत दरों का लाभ अधिकांश अर्थव्यवस्था को मिल ही नहीं पा रहा है। सामान्य परिस्थितियों में भारतीय बॉन्ड मुद्रा डेरिवेटिव का गठजोड़ खराब तरीके से काम करता है।
- इससे मौद्रिक नीति का पारेषण कमजोर रहता है। इसके अलावा फिलहाल कई वित्तीय कंपनियों की हालत खराब है। ऐसे में वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं, उनका ध्यान कारोबारी अवसरों पर नहीं है। ऋण तक पहुंच और ऋण की कीमत की हकीकत की बात करें तो अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ी तादाद में शामिल लोगों के लिए यह उस तस्वीर से काफी अलग है जो उन्हें 91 दिन की ट्रेजरी बिल की दर में नजर आता है। इसके साथ ही साथ समस्या का हल सरकार द्वारा ब्याज दरों में किए जाने वाले बदलाव में भी पूरी तरह निहित नहीं है। हमें इसके लिए कहीं अधिक गहराई से दृष्टि डालनी होगी। वित्तीय कंपनियों के मौजूदा व्यवहार के पीछे भी कारण हैं। जरूरत है वित्तीय क्षेत्र की नीतियों को लेकर गहरे ज्ञान और ऐसे वित्तीय सुधारों की जो वित्तीय क्षेत्र की दिक्कतों की जड़ों पर प्रहार करें।
- उदाहरण के लिए प्रशासित ब्याज दर एक अहम समस्या है। जब मुद्रास्फीति 4 फीसदी है, और ईपीएफ या पीपीएफ की 8 या 9 फीसदी की ब्याज दर वास्तव में 4 से 5 फीसदी ही रहती है। ऐसे में जरूरत यह है कि नए माहौल में ईपीएफ या पीपीएफ की ब्याज दर को 5 फीसदी के नॉमिनल स्तर पर लाया जाए। कुछ लोगों को लगता है कि अर्थव्यवस्था की कठिनाइयों के मद्देनजर अब वक्त आ गया है कि मुद्रास्फीति को लक्षित करना छोड़ दिया जाए। इस विषय में हमें उन चुनौतियों का ध्यान करना चाहिए जिनका सामना आर्थिक नीति निर्माताओं को अतीत में करना पड़ा है। उन्होंने भी उच्च मुद्रास्फीति का मुकाबला किया था। देश में आज जो तमाम समस्याएं हैं उनमें एक बड़ी राहत यह है कि हमें मुद्रास्फीति की तेजी का सामना नहीं करना पड़ता। जब आरबीआई की संपूर्ण संस्थागत शक्ति एक ही चीज पर केंद्रित हो, यानी शीर्ष मुद्रास्फीति को 4 फीसदी के आसपास रखने पर तो अनिश्चितता का एक तत्त्व तो अपने आप समाप्त हो जाता है।
- लोगों का मान-सम्मान हासिल करने के लिए जरूरी है कि सही कदम उठाए जाएं। ऐसा बार-बार और लंबे समय तक करना होगा। मौजूदा दौर ऐसा नहीं है जब आर्थिक मसलों से छेड़छाड़ की जाए। हर बीतते वर्ष मौद्रिक नीति के साथ-साथ भरोसा भी मजबूत हो रहा है। हमें बस यहां बने रहना है, लाभ अपने आप हासिल होगा।