कर शरणस्थली और संप्रभुता का अंतर्विरोध

  • इस लेख में यह कहने की कोशिश की गई है कि कर संप्रभुता एवं कर पनाहगाह के बीच एक निर्णायक संबंध है। राष्ट्र-राज्य अपनी राजकोषीय नीति और खासकर कर संप्रभुता को सुरक्षित रखते हैं। कोई इसे वक्त की शुरुआत से ही जंग लडऩे के एक वित्तीय स्रोत के तौर पर देख सकता है। पिछली सहस्राब्दी में युद्ध के साथ कर का संबंध मध्य युग के यूरोप एवं एशिया और बाद में अमेरिका में असंदिग्ध था। जब संप्रभुता को सुरक्षित रखना होता था तो उसका साधन युद्ध ही होता था और युद्ध के लिए वित्त जुटाने का आसान तरीका करारोपण ही होता था। इसमें एक गड़बड़ यह थी कि युद्ध के लिए जिम्मेदार संप्रभु राज्य ही अपने नागरिकों की सुरक्षा करता था और उनके कल्याण के कार्य करता था।
  • पिछली सदी में कर मामलों में राष्ट्रों की संप्रभुता का सुव्यवस्थित ढांचा होने से देशों को यह लगा कि एक कारोबार को समान आय पर एक से अधिक देशों में कर देना पड़ता है। इस तरह दो देशों के बीच द्विपक्षीय दोहरा कराधान वंचना समझौतों (डीटीएए) का स्वरूप सामने आया जो दोनों देशों में कारोबार कर रहे करदाता पर सीमापार दोहरे कराधान को न्यूनतम करने का तरीका था।
  • हालांकि डीटीएए की राहें पूरी तरह साफ नहीं थीं। कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विभिन्न डीटीएए के बीच यह तय करना पड़ता था कि एक देश में उनकी कंपनी अधिकतम कर लाभ कैसे उठा सकती है और इसका वहां पैदा होने वाले मूल्य सीमा से कोई नाता नहीं था। दूसरा, डीटीएए से देशों की निहित संबद्ध सौदेबाजी ताकत सामने आई। यह एक तरह से संप्रभु राष्ट्रों के बीच पहले से व्याप्त असमता को गहरा करता था। और तीसरा, अक्सर मौन समझ रखने वाले कुछ देशों ने अपनी कर दरों को इस स्तर तक कम कर दिया कि वे कर पनाहगाह कहे जाने लगे। यह व्यवस्था इन देशों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए आकर्षक स्थान बना देती है, भले ही वहां पर प्रबंधन की गुणवत्ता सवालों के घेरे में हो।
  • वर्ष 2008-09 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कर वंचना को उन्नत एवं उदीयमान राष्ट्र-राज्यों पर भारी बोझ के तौर पर चिह्निïत किया गया था। उस समय कर समझौतों में बहुपक्षीयता के प्रति दुनिया की रुचि अचानक ही बदल गई। उसी के बाद बेस इरोजन ऐंड प्रॉफिट शिफ्टिंग (बीईपीएस) परियोजना का जन्म हुआ जो जी-20 देशों की तरफ से प्रायोजित अवधारणा थी।
  • कुल मिलाकर, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं ने कर पनाहगाहों के खात्मे के लिए कदम नहीं उठाए थे जिनका इस्तेमाल बहुराष्ट्रीय कंपनियां वैश्विक कराधान से बचने के लिए करती थीं। यह आचरण बताता है कि उनमें से कुछ कंपनियां किसी भी अंतरराष्ट्रीय कर के आसन्न बोझ से बचने का कोई रास्ता चाहती हैं।
  • यह नहीं कह सकते हैं कि आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) कर शरणगाहों के वजूद या हानिकारक प्रभावों को लेकर उदासीन बनी रही लेकिन उसने कर शरणगाहों की प्रबलता, नियंत्रण या निष्प्रभावी बनाने का कोई प्रत्यक्ष कदम नहीं उठाया। इसके बजाय ओईसीडी ने सीमापार निवेश पर दोहरे कराधान से संबंधित दंडात्मक उपायों पर जोर दिया और अपने 15 व्यापक बीईपीएस कदमों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कर वंचना को विश्वास के साथ निपटाने की कोशिश की।
  • हालांकि यूरोपीय संघ ने 2016-19 में कर शरणस्थली के मसले से निपटने के प्रयास तेज कर दिए हैं। आचार संहिता जारी करने और उल्लंघनकर्ताओं को ब्लैक लिस्ट एवं ग्रे लिस्ट में डालने जैसे कदम यूरोपीय संघ ने उठाए। फिर भी, अचरज नहीं है कि कंपनियों के कदाचार पर नजर रखने वाले गैर-सरकारी संगठन ऑक्सफैम ने यह सवाल उठाया है कि कुछ देशों को काली सूची के बजाय ग्रे लिस्ट में क्यों रखा गया है और कुछ देशों को तो किसी भी सूची में नहीं रखा गया है? खैर, यह तो मानना होगा कि यूरोपीय संघ इस मसले को कम-से-कम तवज्जो तो दे रहा है।
  • ऑक्सफैम ने 18 देशों को चिह्नित किया है जो यूरोपीय संघ की काली सूची में रखे गए 23 बेहद चिंताजनक देशों से मेल खाते हैं। इस सूची में अमेरिकन समोआ, बहरीन, केप वर्डे, कुक आइलैंड, डोमिनिका, फिजी, ग्रेनेडा, गुआम, मार्शल आइलैंड, मोरक्को, नौरु, न्यू कैलेडोनिया, नियु, ओमान, पलाऊ, सेंट किट्स और नेविस, समोआ, त्रिनिडाड ऐंड टोबैगो, तुर्की, टक्र्स ऐंड कैकोस आइलैंड, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), यूएस वर्जिन आइलैंड्स, वनातु को रखा गया है।
  • इस सूची में छोटे द्वीपीय देशों की भारी मौजूदगी खुलकर नजर आती है। ये छोटे-छोटे देश मुश्किल से आत्म-निर्भर हैं और वे आर्थिक स्तर पर अपने पुराने औपनिवेशिक संपर्कों पर ही निर्भर बने हुए हैं। इसके बदले में वे पूर्व-औपनिवेशिक देशों में स्थित कंपनियों को अपने यहां कर संरक्षण की पेशकश करते हैं। यह सुविधाजनक व्यवस्था वेस्टफेलियन अवधारणा वाले संप्रभु राष्ट्र-राज्यों की कर संप्रभुता के खोल में बदस्तूर जारी है।
  • इसके साथ, पश्चिमी विद्वानों ने कर संप्रभुता में किसी भी तरह के ह्रस को लेकर सवाल उठाना जारी रखा है। मोटे तौर पर वे कर संप्रभुता के गुणों को एक रक्षणीय दर्शन और कर शरणस्थली को मुकाबला करने वाली परंपरा के तौर पर देखते हैं। पश्चिमी विद्वान इन दोनों संकल्पनाओं के बीच के निहित अंतर्विरोध को दरकिनार करते हुए दोनों को ही चाहते हुए दिखते हैं। कुछ लोगों ने ऐसी आशंका जताई है कि बहुपक्षीयता अपनी संप्रभुता के संरक्षण की जरूरत होने पर देशों से 'ना' कहने का अधिकार भी ले ली। वे इस बात पर बहुत जोर नहीं देते हैं कि आधुनिक वैश्विक समाज की जरूरतों के मुताबिक ढाले बगैर महज संप्रभुता पर ही जोर देने से विरोधाभास पैदा हुए हैं। डीटीएए समझौते, कर शरणगाहों की बढ़ती संख्या और वहां पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की रणनीतिक मौजूदगी एक वैश्विक समाज की दिशा में बढऩे की राह में बड़ी बाधाएं हैं।
  • ऐसा नहीं है कि अकादमिक जगत एवं विशेषज्ञों ने अंतर्निहित संघर्ष को रेखांकित किया है। विद्वान रोनेन पालन के शब्दों में, 'कर शरणगाहों को कानून बनाकर नहीं खत्म किया जा सकता है क्योंकि वे संप्रभुता के सिद्धांत की विकृतियां नहीं हैं जब तक वे मोबाइल कैपिटल के दौर में राष्ट्रीय संप्रभुता के परस्पर-विरोधी सिद्धांतों का प्रत्यक्ष परिणाम हैं। नतीजतन, कर शरणस्थली की अवधारणा पर चोट करने की कोई भी गंभीर कोशिश बहुआयामी स्तर पर करनी होगी और उसका संप्रभुता के आधुनिक सिद्धांत पर बड़ा असर होगा। कर शरणगाहों के खात्मे के लिए उद्योगीकृत देशों के बीच सहयोग एवं संप्रभु शक्तियों को थोड़ा सीमित करने की जरूरत पड़ेगी। ऐसा होने पर तथाकथित वेस्टफेलियन व्यवस्था का अंत हो जाएगा।' बहुपक्षीय संप्रभुता संयुग्मन को लेकर दूसरों की तरह लेखक के अंतिम मानक रुख के बारे में कोई भी निष्कर्ष निकालने से पहले स्याही सूख जाती है।

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