आइपीओ लाकर शेयर बाजार में सूचीबद्ध हुई कंपनी जब अतिरिक्त पूंजी जुटाने के लिए शेयर बेचने की पेशकश करती है तो उसे एफपीओ (‘फॉलो ऑन पब्लिक ऑफरिंग’) कहते हैं। कंपनियों के लिए पूंजी बाजार से अतिरिक्त इक्विटी कैपिटल जुटाने का यह एक लोकप्रिय तरीका है। एफपीओ दो प्रकार का होता है- ‘डाइल्यूटेड एफपीओ’ और ‘नॉन डाइल्यूटेड एफपीओ’। डाइल्यूटेड एफपीओ के तहत कंपनियां अपना कर्ज चुकाने, नई मशीनरी खरीदने या प्लांट लगाने और दूसरी कंपनियों का अधिग्रहण करने के लिए इक्विटी मार्केट से धन जुटाती हैं। चूंकि एफपीओ लाने वाली कंपनी पूंजी जुटाने के लिए अतिरिक्त शेयर भी जारी करती हैं, इसलिए शेयरों की संख्या बढ़ जाती है जिससे प्रति शेयर आय कम हो जाती है। दूसरी ओर नॉन डाइल्यूटेड एफपीओ के तहत नये शेयर जारी नहीं किये जाते बल्कि पहले से जो शेयरधारक हैं, वे ही अपना हिस्सा एफपीओ के रूप में शेयर बाजार में बेचते हैं। कंपनी के एग्जीक्युटिव, प्रमोटर्स, संस्थागत निवेशक और वेंचर कैपिटलिस्ट जब एफपीओ के जरिये अपनी आंशिक या पूरी हिस्सेदारी बेचते हैं तो वे नॉन डाइल्यूटेड एफपीओ की श्रेणी में आते हैं। सरकार भी विनिवेश के माध्यम से सार्वजनिक उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी बेचने के लिए इसी तरह के एफपीओ का सहारा लेती है। उदाहरण के लिए वित्त वर्ष 2013-14 में सरकार ने पावर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड में अपनी चार फीसद हिस्सेदारी एफपीओ के जरिये बेचकर 1637 करोड़ रुपये जुटाए थे।यहां यह समझना भी जरूरी है कि डाइल्यूटेड एफपीओ के जरिये जुटाई जाने वाली धनराशि कंपनी के विस्तार के काम में आती है, जबकि नॉन-डाइल्यूटेड एफपीओ के जरिये जो धनराशि प्राप्त होती है वह सीधे उन्हीं हिस्सेदारों के खाते में जाती है जिन्होंने अपने हिस्से के शेयर बेचे हैं। चूंकि नॉन-डाइल्यूटेड एफपीओ में कोई नया शेयर जारी नहीं किया जाता, इसलिए प्रति शेयर आय यानी अर्निग बरकरार रहती है। इससे कंपनी की प्रति शेयर कमाई में कोई अंतर नहीं आता है। नॉन-डाइल्यूटेड एफपीओ को सेकेंडरी मार्केट ऑफरिंग भी कहते हैं।