सडक़ दुर्घटना के मामलों में क्षतिपूर्ति की दूर होती राह

 

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Factsheet

  • देश में हर तीन मिनट में एक व्यक्ति की सडक़ दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। यह आंकड़ा वर्ष 2010 के 15 मौत प्रति घंटे से अधिक है। इसके बावजूद बीते 25 वर्ष में देश में क्षतिपूर्ति कानून में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।
  • मोटर दुर्घटना दावा पंचाट और अपील अदालतें महंगाई और कानूनी प्रक्रिया की बढ़ती लागत को गंभीरता से नहीं ले रही हैं। परिवहन मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2010 से 2016 के बीच सडक़ दुर्घटना का औसत दावा 3 लाख रुपये से 5 लाख रुपये के बीच रहा।

Amendment to Motor Vehicle Act

मोटर वाहन अधिनियम 1988 में चार संशोधन हो चुके हैं और ताजा संशोधन अभी भी लंबित है क्योंकि कई राज्यों ने इसे लेकर संघवाद से जुड़े सवाल उठाए हैं। इसकी तकदीर सरकार के हाथ में है जिसका कार्यकाल भी ज्यादा नहीं बचा है। नए संशोधन विधेयक में कई मुद्दों को एक साथ कर दिया गया है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय परिवहन नीति, राज्यों के बीच वस्तुओं का आवागमन, परिवहन एग्रीगेटर्स का नियमन और तेजी से उभर रहे कई अन्य तकनीकी पहलुओं को इसमें एक साथ शामिल किया गया है।

क्षतिपूर्ति पर्याप्त है या नहीं, इस विषय को भलीभांति देखा ही नहीं गया क्योंकि तमाम अन्य मुद्दों ने इसकी गुंजाइश ही नहीं छोड़ी। सर्वोच्च न्यायालय के मुताबिक सडक़ दुर्घटना का पीडि़त व्यक्ति दोहरी बदकिस्मती का शिकार होता है। पहले तो उसे दुर्घटना का कष्ट सहन करना पड़ता है और बाद में उसे वर्षों बाद भी पर्याप्त मुआवजा नहीं मिल पाता। पीडि़तों की कुछ श्रेणियों के पास तो कुछ खास उपाय भी नहीं बचता।

  • उदाहरण के लिए हिट ऐंड रन (मार के भाग जाना) के मामलों (2016 में ऐसी 22,962 मौतें हुईं) में पीडि़तों को 2 लाख रुपये मिलने का प्रस्ताव किया गया है। ऐसा ही बिना लाइसेंस वाले वाहनों से दुर्घाटनाग्रस्त लोगों, मालवाहक वाहनों में सवार यात्रियों और दुपहिया वाहनों में पीछे बैठे सह यात्रियों के साथ है। अगर यात्री अथवा मालिक को जवाबदेह ठहराया भी जाता है तो भी हर्जाने की वसूली की संभावना बहुत कम रहती है क्योंकि प्राय: उसकी क्षतिपूर्ति देने की हैसियत नहीं होती है। कई मामलों में लोग इस बोझ से बचने के लिए अपनी परिसंपत्तियां चतुराईपूर्वक हस्तांतरित कर देते हैं
  • जाहिर तौर पर किसी तात्कालिक चिकित्सकीय या मौद्रिक राहत का कोई प्रावधान नहीं है। ऐसे में परिवार के मुखिया के मरने के बाद उसकी विधवा और उसके बच्चे भगवान भरोसे रह जाते हैं। क्षतिपूर्ति देने का आदेश बहुत देरी से जारी होता है क्योंकि पंचाट को इसका निर्धारण करने में बहुत अधिक समय लग जाता है। अगर उनके पक्ष में आदेश जारी भी हो जाए तो भी हर्जाने का पूरा पैसा पीडि़त और उसके परिजन तक नहीं पहुंचता।
  • खासतौर पर तब जबकि वे अशिक्षित या कम जानकार हों। कई अधिवक्ताओं ने ऐसे पीडि़तों को ही अपनी कमाई का जरिया बना लिया है। समाज के कमजोर और संवेदनशील तबके के लोग इनके शिकार बन जाते हैं। वे दावा करने वाले की सहमति से एक समझौता करते हैं जिसमें वे नि:शुल्क मुकदमा लडऩे की बात कहते हैं लेकिन अगर नतीजा पक्ष में आया तो वे मिलने वाली राशि का अधिकांश हिस्सा अपने नाम करा लेते हैं।
  • बीमा कंपनियों का रुख भी पीडि़तों के साथ सहानुभूति का नहीं रहा है। वे अपने स्तर पर जांच करके नुकसान का आकलन नहीं करतीं। बल्कि इसके स्थान पर वे पंचाट का नतीजा आने तक प्रतीक्षा करती हैं। चूंकि उनके पास भारी भरकम फंड रहता है और वकीलों का पैनल भी होता है इसलिए मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जाता है।

यह विदेशी कंपनियों से एकदम उलट है। वे कंपनियां अविवादित राशि तुरंत चुकाती हैं और बाद में वास्तविक नुकसान का आकलन करती हैं। जिन पीडि़तों को तत्काल वित्तीय राहत की जरूरत होती है वे ‘नो फॉल्ट’ योजना का सहारा लेते हैं। अधिनियम में एक प्रावधान हर्जाने के आकलन का है। परंतु यह व्यवस्था गणितीय खामियों से भरी हुई है।

दो दशकों तक समस्या बने रहने के बाद इस वर्ष इसे खत्म किया गया है। नये नियम के अधीन हर्जाने को मौत के मामलों में 5 लाख और गंभीर चोट के मामलों में 2.5 लाख रुपये तक सीमित किया गया है। इसमे सालाना वृद्घि की बात कही गई है। अगर दावा करने वाला कोई अन्य क्षतिपूर्ति स्वीकार करता है तो उसे यह राशि भी नहीं मिलेगी। छह महीने की समय सीमा भी रखी गई है। पंचाट किसी भी स्थिति में इसे शिथिल नहीं कर सकते।

Concluding Mark

परंतु जो लोग ज्यादा हर्जाना चाहते हैं उनको पंचाट के समक्ष कई मुद्दों के साथ जाना होगा। हर्जाने का लक्ष्य यह है कि दावा करने वाले को दुर्घटना के पहले वाली स्थिति में लाने के लिए अधिक से अधिक प्रयास किया जा सके। इसमें पीडि़त की उम्र, चोट की मात्रा, आय अर्जित करने की क्षमता, आश्रितों की संख्या, भविष्य की संभावनाओं में कमी आदि शामिल हैं। पश्चिम में तो अब सुख भोगने में आई कमी आदि कई कारक शामिल होते हैं। बहरहाल संशोधन विधेयक में इस क्षेत्र में अनिश्चितता कम करने को लेकर कोई दिशानिर्देश नहीं दिया गया है।

क्षतिपूर्ति संबंधी कानून को परिवहन से जुड़े अन्य मसलों से अलग रखा जाना चाहिए था। यह अन्य क्षेत्रों के क्षतिपूर्ति से जुड़े मामलों के लिए एक आदर्श साबित हो सकता था। उदाहरण के लिए कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम और सार्वजनिक जवाबदेही अधिनियम, जिनमें बहुत कम राशि का प्रावधान है। अगर नया कानून कभी प्रभावी हुआ तो हर्जाने का अत्यंत आवश्यक मानवीय पहलू कानूनी लड़ाई में खो जाएगा और बीमा कंपनियां तथा अधिवक्ता पहले की तरह इसका फायदा उठाते रहेंगे

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