NEWS PAPER ANALYSIS 28 january

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1.चंदा कोचर के खिलाफ केस दर्ज करने वाले सीबीआइ अधिकारी का तबादला

  • केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) ने आइसीआइसीआइ बैंक के 3,250 करोड़ रुपये के वीडियोकॉन लोन मामले की जांच कर रहे अफसर सुधांशु धर मिश्र का तबादला कर दिया है। चंदा कोचर और अन्य के खिलाफ केस दर्ज करने वाले अफसर पर छापेमारी की जानकारी लीक करने का आरोप है। सूत्रों का यह भी कहना है कि मिश्र के कारण आइसीआइसीआइ लोन मामला बिना किसी प्रगति के अरसे से लंबित था।
  • सीबीआइ ने इस तबादले को सही ठहराने के लिए मिश्र पर प्रारंभिक जांच को लंबित रखने का आरोप लगाया है। सूत्रों का कहना है कि जांच एजेंसी ने सुधांशु धर मिश्र का तबादला 23 जनवरी को रांची की आर्थिक अपराध विंग में कर दिया है। सीबीआइ में एसपी पद पर तैनात मिश्र असल में सीबीआइ की बैंकिंग एंड सिक्योरिटीज फ्राड सेल (बीएसएफसी) का हिस्सा थे.

USE IN BANKING SYSTEM,INVESTIGATION AGENCY

2.पेटेंट वाली दवा के लिए अनिवार्य लाइसेंस देने की सिफारिश

  • सरकार अगर अंतर मंत्रलयी समिति की सिफारिशों को मान लेती है तो कैंसर और अन्य असाध्य बीमारियों की पेटेंट वाली महंगी दवाइयों की कीमत कम हो सकती है। इनमें पेटेंट रखने वाली कंपनी की अनुमति के बिना ही दवाइयों के उत्पादन के लिए किसी भी भारतीय कंपनी को अनिवार्य लाइसेंसदेने का सुझाव भी शामिल है।विभिन्न देशों की क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) का विश्लेषण कर जीवन रक्षक दवाइयों की अधिकतम कीमत निर्धारित करने का भी सुझाव दिया है।मौजूदा समय में भारत में सालाना 2.3 लाख करोड़ रुपये का दवा का कारोबार होता है। इसमें लगभग 30 फीसद हिस्सा पेटेंट दवाइयों का है, जबकि शेष धनराशि की कमाई जेनेरिक दवाइयों की बिक्री से होती है।
  • मौजूदा व्यवस्था के तहत कोई कंपनी शोध के बाद किसी दवा को तैयार करती है तो बौद्धिक संपदा अधिकार के तहत उस पर उसे 20 साल के लिए पेटेंट मिल जाता है। पेटेंट मिलने के बाद कंपनी किसी दूसरी कंपनी को उस दवा का उत्पादन करने से रोक सकती है।

HEALTH ,UNIVERSAL HEALTH SCHEME/PUBLIC HEALTH

3.हाई कोर्ट के प्रत्येक जज पर 4500 मामलों का भार

  • वहीं अधीनस्थ न्यायपालिका की बात करें तो वहां के प्रत्येक जज के पास 1,300 मामले सुनवाई को लंबित है। एक जनवरी से तेलंगाना में हाई कोर्ट की शुरुआत हो गई। इस तरह देश में अब 25 उच्च न्यायालय हो गए हैं।

JUSTICE DELAY,VACANCY IN JUDICIAL/BURDEN

4.सूरीनामी-हिंदुस्तानी समुदाय को ओसीआइ

  • भारत ने यूरोप में रहने वाले सूरीनामी-हिंदुस्तानी समुदाय के सदस्यों को ओवरसीज सिटिजंस ऑफ इंडिया (ओसीआइ) कार्ड की अनुमति देने की एक महत्वपूर्ण शर्त में ढील दी है। इससे पहले ओसीआइ केवल उस समुदाय के मूल पूर्वजों की चार पीढ़ियों के लिए ही जारी किया जा सकता था जो भारत से दक्षिण अमेरिका के उत्तर-पूर्वी अटलांटिक तट पर स्थित देश सूरीनाम आए थे। यही वजह रही कि पांचवीं और बाद की पीढ़ियों से संबंधित सूरीनामी-हिंदुस्तानी समुदाय के कई युवक इसका लाभ नहीं उठा सके। यूरोप के नीदरलैंड में विदेशी भारतीयों की सबसे बड़ी आबादी है।

OCI,CITIZENSHIP

5.चिनाब के निरीक्षण को पाक दल भारत आया

  • जम्मू-कश्मीर में चिनाब नदी बेसिन पर बन रही पनबिजली परियोजनाओं के निरीक्षण के लिए पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल रविवार को भारत गया। पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल का दौरा दोनों देशों के बीच सिंधु जल समझौता के प्रावधानों के तहत हो रहा है।सिंधु जल समझौते के तहत तीन नदियों- सतलुज, ब्यास और रावी का पानी भारत को मिलता है, जबकि चिनाब, ङोलम और सिंधु नदियों का पानी पाकिस्तान को मिलता है।

IND-PAK,WATER POLICY

6.साइबर हथियारों की दौड़ में चीन से आगे निकलने को बेताब अमेरिका

  • बदल रहा है युद्ध हथियारों का स्वरूप। इस नए स्वरूप में इंटरनेट और टेक्नोलॉजी ही सबसे घातक हथियार हैं। अमेरिका पिछले कुछ समय से चीन की दिग्गज टेक्नोलॉजी कंपनी हुआवे समेत अन्य कंपनियों के संभावित विस्तार पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए अमेरिका ने अपने सहयोगी देशों पर भी दबाव बनाया है।आज की तारीख में परमाणु हथियार से लेकर तमाम बड़े हथियार नेटवर्क और इंटरनेट पर आधारित हैं। अमेरिकी प्रशासन को संदेह है कि नेटवर्क निर्माण में साङोदारी करते हुए चीन की कंपनियां नेटवर्क में सेंध लगाने में भी सक्षम हो सकती हैं।
  • ध्यान रखने की बात है कि चीन में कंपनियों और सरकार के बीच का संबंध वैसा नहीं है, जैसा पश्चिमी देशों में सरकार निजी कंपनियों के बीच होता है। चीन के 2017 के राष्ट्रीय खुफिया कानून के मुताबिक, चीन की कंपनियों के लिए राष्ट्रीय खुफिया गतिविधियों में सहयोग करना जरूरी है।

CYBER WAR,IR,MNC,CYBER SECURITY

7.भूजल में भी है माइक्रोप्लास्टिक

  • बता दें कि कुल वैश्विक पेयजल की 25 फीसद आपूर्ति भूजल से होती है। अभी तक धरती की सतह पर मौजूद पानी ही माइक्रोप्लास्टिक से दूषित पाया जाता था, लेकिन शोधकर्ताओं के नवीन अध्ययन ने इस चिंता को और बढ़ा दिया है। ग्राउंडवाटर नामक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने बताया कि उन्होंने अमेरिका के भूजल स्रोतों का अध्ययन किया तो यह सामने आया कि जल में माइक्रोप्लास्टिक विभिन्न अवयवों के रूप में मौजूद है।
  • वातावरण में मौजूद प्लास्टिक टूटकर माइक्रोप्लास्टिक बन जाता है। यह माइक्रोप्लास्टिक समुद्री जीवों की आंत और गलफड़ों में जमा होता है और उनके जीवन के लिए खतरा पैदा करता है। उन्होंने बताया कि जैसे ही प्लास्टिक टूटता है, वह एक स्पंज का काम करने लगता है और अपने अंदर बहुत से दूषित पदार्थो और रोगाणुओं को सोख लेता है। इसके बाद यही माइक्रोप्लास्टिक समुद्री जीवों में से होकर हमारी फूड चेन का हिस्सा बन जाता है। भूजल चट्टानों की दरारों से बहता है और यहीं से यह माइक्रोप्लास्टिक की चपेट में जाता है।1940 के बाद से औसतन 63 अरब मीटिक टन प्लास्टिक कचरा दुनियाभर में निकला है और इसका 79 प्रतिशत अब प्राकृतिक वातावरण में मिल गया है।

WATER POLLUTION,MICRO PLASTIC,RESOURCE CRISIS

बैंकिंग फ्रॉड से बचना है तो लालच से रहें दूर

  • EDITORIAL
  • इस समय जब एंटीबॉयोटिक अपना असर खोते जा रहे हैं, वैज्ञानिक रोग फैलाने वाले बैक्टीरिया के दुश्मन जीव-जगत में ही तलाश रहे हैं।
  • हमारे पास भारत के आंकड़े नहीं हैं, इसलिए जो बाहर के आंकड़े हैं, फिलहाल चर्चा उसी से शुरू करनी पड़ेगी। अमेरिका के थिंक टैंक सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल का कहना है कि वहां हर साल एंटीबॉयोटिक के डेढ़ अरब से भी ज्यादा नुस्खे लिखे जाते हैं, जिनमें से तकरीबन 30 फीसदी गैर-जरूरी होते हैं। हम मान सकते हैं कि हमारे यहां भी मोटे तौर पर यही प्रतिशत होगा। हमारी आबादी बहुत बड़ी है, इसलिए कुल संख्या में हम बहुत आगे जरूर हैं। हमारे यहां भी अमेरिका की तरह ही तमाम डॉक्टर खांसी-जुकाम जैसे साधारण मामलों में एंटीबॉयोटिक खाने की सलाह दे डालते हैं। हमारी दिक्कत इसलिए भी जटिल है कि हमारे यहां एक बड़ी आबादी अपनी गरीबी या दूर-दराज के इलाके में रहने के कारण औपचारिक चिकित्सा तंत्र तक पहंुच ही नहीं पाती। उन्हें झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे रहना पड़ता है और वे बिना ज्ञान के जो दवाइयां लिखते हैं, उनमें एंटीबॉयोटिक भी शामिल हैं। इसे लेकर चिंता इन दिनों इसलिए बढ़ रही है कि एंटीबॉयोटिक के बेतहाशा इस्तेमाल के कारण अब कई ऐसे बैक्टीरिया अस्तित्व में गए हैं, जिन पर किसी एंटीबॉयोटिक का असर पड़ता ही नहीं। ऐसे बैक्टीरिया को सुपरबग कहा जाता है, जिनकी काट ढूंढ़ने के लिए इस समय पूरी दुनिया के वैज्ञानिक परेशान हैं। बेशक एंटीबॉयोटिक अपने आप में खलनायक नहीं हैं, उन्होंने अभी तक करोड़ों लोगों की जान बचाई है। लेकिन हम चिकित्सा इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर पहंुच गए हैं, जहां एंटीबॉयोटिक का विकल्प खोजना अब जरूरी हो गया है।.
  • शत्रुओं से निपटने का नीतिशास्त्र कहता है कि अगर आप अपने किसी दुश्मन को मात देना चाहते हैं, तो उसके किसी दुश्मन को ढूंढ़कर उससे दोस्ती कीजिए। वैज्ञानिकों ने अपना ध्यान अब ऐसे ही एक संभावित दोस्त पर केंद्रित करना शुरू किया है- बैक्टीरियोफेज। यह दरअसल ऐसा वायरस होता है, जो बैक्टीरिया पर हमला करके उसे नष्ट कर देता है। हम अगर इस नुस्खे का इस्तेमाल करते हैं, तो हमें अलग-अलग बैक्टीरिया से निपटने के लिए अलग-अलग तरीके के बैक्टीरियोफेज की जरूरत होगी। एंटीबॉयोटिक की सबसे बड़ी एक दिक्कत यह होती है कि वह तकरीबन सभी तरह के बैक्टीरिया के खिलाफ काम करते हैं। बीमारी से मुक्ति के लिए खाए जाने वाले एंटीबॉयोटिक उन बैक्टीरिया को भी खत्म करने लगते हैं, जो हमारे शरीर के लिए उपयोगी और जरूरी होते हैं। मकड़ी की तरह दिखने वाले अतिसूक्ष्म बैक्टीरियोफेज हमें इस समस्या से मुक्ति दिला सकते हैं। आने वाले समय में यह चिकित्सा शोध का सबसे बड़ा क्षेत्र होगा- हर रोग या बैक्टीरिया के लिए बैक्टीरियोफेज खोजना।.
  • वैज्ञानिकों के अभी तक के दावे तो यही बताते हैं कि बैक्टीरियोफेज में वे खतरे नहीं होंगे, जो एंटीबॉयोटिक में होते हैं। लेकिन इस सच को भी नजरंदाज नहीं करना होगा कि जिस समय एंटीबॉयोटिक की खोज हुई थी, उस समय हमें वे पूरी तरह से निरापद लगते थे। यह भी सच है कि इससे एलोपैथी का पूरा तौर-तरीका ही बदल जाएगा। कम से कम दवाओं के मामले में तो वह बदलेगा ही। अभी तक हमें जो दवाएं दी जाती रही हैं, वे ज्यादातर तरह-तरह रसायन होते हैं। इसके विपरीत बैक्टीरियोफेज जैविक होंगे। वायरस भी आखिर जीव ही हैं। अगर ये लोगों को रोगमुक्त करते हैं, तो इनका स्वागत करना चाहिए।
  • 2. काफी समय पहले अमेरिका में एक प्रमुख स्कूल द्वारा आयोजित एजुकेशन थिंकटैंक कांफ्रेन्स' में हिस्सा लेने के दौरान मुझे यह समझ आया था कि फिनलैंड और स्वीडन जैसे कुछ देशों को छोड़ दें, तो आम तौर पर पूरी दुनिया स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता के मुद्दे से जूझ रही है। कांफ्रेन्स में 70 देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे और उनमें से अधिकांश अपने देश में शिक्षा की खराब गुणवत्ता का रोना रो रहे थे। राष्ट्रपति ओबामा के नेतृत्व में चलने वाले नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड' (कोई भी बच्चा छूटने पाए) जैसे विशाल अभियान और टीच फॉर अमेरिका' जैसी निजी पहल के बावजूद उस विकसित देश में भी स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता का मुद्दा बरकरार है।.
  • पिछले तीन दशकों से अधिक समय से भारत में एक के बाद दूसरी सरकारों ने हमारे विकास के तीन स्तंभ पेश किए- बिजली, सड़क और पानी। राजनीतिक आकाओं को शिक्षा को इसके चौथे स्तंभ के रूप में स्वीकार करना चाहिए। यह तो स्वीकार करना ही होगा कि पिछले डेढ़ दशकों में स्कूलों में दखिले और शिक्षा तक लोगों की पहुंच में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। साल 2001 में एनडीए सरकार ने संविधान में 86वां संशोधन करके सर्वशिक्षा अभियान शुरू करने का एक साहसी निर्णय लिया। इससे स्कूलों, कक्षा और शिक्षकों की उपलब्धता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। हमारे 98 प्रतिशत गांवों में एक किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक स्कूल हैं और तीन किलोमीटर के दायरे में उच्च प्राथमिक स्कूल। सर्वशिक्षा अभियान शिक्षकों के विकास की अवधारणा को सामने लेकर आया और इसके लिए बजट मुहैया कराया। भारत की शिक्षा-व्यवस्था, दुनिया की सबसे बड़ी स्कूली व्यवस्था है, जो 14 लाख स्कूलों, 2 5 करोड़ बच्चों और 70 लाख शिक्षकों और बाहर से स्कूलों को सहयोग करने वाले लगभग 15 लाख शैक्षिक कार्यकर्ताओं के साथ काम करती है। कई सारे शोध और शैक्षिक अध्ययनों ने बार-बार यह दिखाया है कि हमारे स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता कितनी खराब है? इसका एक उदाहरण हर साल जारी होने वाली असर' की रिपोर्ट है।.
  • जब हम गुणवत्ता की बात करते हैं, तो हमें कुछ चीजों का ध्यान रखना होगा। एक तो हमारे यहां बजट अपर्याप्त है और शिक्षकों की नियुक्ति उनके स्थानांतरण आदि में राजनीतिक हस्तक्षेप को खत्म करने की इच्छाशक्ति का अभाव है। उत्तरदायित्व का अभाव। हर साल 10वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में यदि 50 प्रतिशत बच्चे फेल होते हैं, तो बच्चों के अलावा इसके लिए कोई भी उत्तरदायी नहीं होता। सभी स्तरों पर शिक्षण में लगे लोगों की बड़ी संख्या शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति और पाठ्यक्रम के गहरे ज्ञान से अनभिज्ञ है। शिक्षा के लिए बने एनसीईआरटी, एनसीटीई, एससीईआरटी, डाईट, ब्लॉक और क्लस्टर स्तर के संसाधन केंद्र कर्मचारियों की कमी और उनकी गुणवत्ता, दोनों से जूझ रहे हैं। फिर ऐसे संस्थानों का अभाव, जो हमारी व्यापक शैक्षिक व्यवस्था को चलाने के लिए योग्य शैक्षिक पेशेवरों को विकसित कर सकें। .
  • हमारी शिक्षा व्यवस्था का सच यह है कि एक समूह के रूप में शिक्षक कुछ अथार्ें में राजनीतिक रूप से सशक्त हैं, लेकिन समूह और व्यक्तिगत, दोनों ही रूप में पेशेवर तौर पर कमजोर हैं। अधिकांश शिक्षक स्वयं को अपने ऊपर के अधिकारियों' के प्रति उत्तरदायी मानते हैं, कि अपने छात्रों के प्रति। शिक्षकों की पेशेवराना पहचान, ज्ञान और कौशल के लिए उनकी जरूरत और एक समुदाय के रूप में उनके सशक्तीकरण को संबोधित करना एक महत्वपूर्ण मसला है। पाठ्यक्रम, कक्षा का माहौल और शिक्षण विधि की सारी प्रक्रियाएं मुख्यत: रटकर सीखने पर आधारित हैं और वे अवधारणात्मक को समझने, रचनात्मकता या परस्पर सहयोग से सीखने के लिए बच्चों को समर्थ नहीं बनातीं। अपने मौजूदा रूप में परीक्षाएं शिक्षा के लक्ष्यों के हिसाब से बच्चों की उपलब्धि का आकलन नहीं करतीं और अधिकांशत: कक्षा में एक तकनीकी, रटने पर आधारित सीखने की प्रक्रिया को बढ़ावा देती हैं। परीक्षाएं बच्चों और उनके परिवारों में अत्यधिक तनाव और डर का एक माध्यम भी होती हैं। इन्हीं वजहों से हमारी सार्वजनिक शिक्षा- प्रणाली अपर्याप्त संसाधन वितरण के कारण संविधान की प्रस्तावना में तय की गई दृष्टि को पूरा करने में ऐतिहासिक रूप से मात खा गई है। हालांकि, शिक्षा के सभी क्षेत्र (जैसे बुनियादी ढांचा और संसाधन) बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों की प्राथमिकता सुनिश्चित करने की जरूरत है, जिनका संपूर्ण शिक्षा गुणवत्ता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। शिक्षक-शिक्षा, शिक्षा नेतृत्व, प्रबंधन और आरंभिक बाल्यावस्था शिक्षा ऐसे महत्वपूर्ण प्राथमिकता वाले क्षेत्र हैं, जिन पर ठोस कार्रवाई की जरूरत है।.
  • सबसे पहले तो शिक्षक को शिक्षा व्यवस्था के केंद्र में रखने की जरूरत है। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के किसी भी प्रयास की सफलता मुख्य रूप से शिक्षक पर निर्भर होती है। इसके बाद नेतृत्व और प्रबंधन का मामला आता है, जो शिक्षा का अनुकूल माहौल बनाने के लिए मुख्यत: जिम्मेदार होते हैं। एक और ध्यान देने वाली जरूरत है आरंभिक बाल्यावस्था की शिक्षा। बहुत से शोध अध्ययनों ने यह दिखाया है कि आरंभिक बाल्यावस्था ही वह समय है, जब बच्चों की सीखने की क्षमता को बढ़ाने के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जा सकता है। छह साल की उम्र में पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चे स्पष्ट रूप से नुकसान की स्थिति में होते हैं। .
  • हमारे यहां शिक्षा नीति के अधिकांश दस्तावेज सुविचारित हैं और अच्छी नीयत से बनाए गए हैं। समस्या अक्सर उन वास्तविक कार्रवाइयों में होती है, जो जमीन पर उसके कार्यान्वयन को सुनिश्चित करती है। आंशिक कार्यान्वयन या नीतियों की आत्मा को अभिव्यक्त करने वाले कार्यान्वयन से इसका पूरा उद्देश्य ही ध्वस्त हो जाता है। .
  • 3. गत सप्ताह केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने आईसीआईसीआई बैंक की पूर्व प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्याधिकारी चंदा कोछड़, उनके पति दीपक कोछड़ और वीडियोकॉन समूह के प्रबंध निदेशक वेणुगोपाल धूत के खिलाफ मामला दायर किया। सीबीआई का कहना है आईसीआईसीआई ने वर्ष 2009-11 के बीच धूत से जुड़ी कंपनियों को छह अवसरों पर 1,875 करोड़ रुपये का जो कर्ज दिया उसमें अनियमितता थी। सीबीआई ने यह दावा भी किया कि चंदा और उनके पति को 64 करोड़ रुपये का अवैध भुगतान किया गया जो संभवत: ऋण पारित करने के बदले दिया गया। इन ऋणों में अनियमितता के दावे नए नहीं हैं और इन्हीं के चलते गत वर्ष चंदा को बैंक में अपना पद छोडऩा पड़ा था। सीबीआईकी पहली प्राथमिकी में वित्तीय जगत के कई नामी लोगों का उल्लेख था जो किसी किसी तरह आईसीआईसीआई बैंक से संबद्ध थे। इनमें से कई आज भी बड़ी वित्तीय कंपनियों के शीर्ष पर हैं।
  • केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने सप्ताहांत पर एक ब्लॉग लिखकर जांचकर्ताओं पर अत्यधिक दुस्साहसिक और अहंकारोन्माद का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि इस मामले में पेशेवर रुख नहीं अपनाया गया क्योंकि इस प्राथमिकी में बैंकिंग उद्योग के तमाम लोगों को समेट लिया गया। जेटली के कड़े शब्द निराधार नहीं हैं और उनका दायरा इस विशिष्ट मामले से परे भी है। सीबीआई का रिकॉर्ड उतार-चढ़ाव भरा रहा है। चंदा के खिलाफ मामला जिस सूचना पर आधारित है वह अत्यंत क्षीण है। धूत की कंपनियों को ऋण अकेले आईसीआईसीआई बैंक ने नहीं दिया था बल्कि यह भारतीय स्टेट बैंक के नेतृत्व वाला 20 से अधिक बैंकों का समूह था। क्या उन सभी बैंकों की जांच होगी? या फिर सीबीआई को लगता है कि 19 बैंकों के पास ऋण देने की उचित वजह थी और केवल आईसीआईसीआई गलती कर रहा था। सीबीआई ने प्राथमिकी में जो अन्य नाम लिए उनमें केवी कामत और टाटा कैपिटल के राजीव सबरवाल जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इससे भी दावों की कमजोरी पता चलती है। इसलिए कि आईसीआईसीआई बैंक का निर्णय भी अकेले चंदा का नहीं था। वह तो कुछ प्रासंगिक बैठकों तक में शामिल नहीं हुई थीं। ऐसे में क्या सीबीआई अन्य सभी लोगों की आपराधिकता साबित कर धूत को ऋण देने का एक व्यापक षडयंत्र उजागर करेगी? जिस समय चंदा शीर्ष पर थीं, आईसीआईसीआई बैंक ने कर्जदाताओं के समूह में अपना जोखिम कम ही किया।

  • चंदा तथा तमाम अन्य लोगों के ऊपर लगे ये आरोप लंबे समय से सार्वजनिक हैं लेकिन सीबीआई की प्राथमिकी ने इनका जवाब तलाशने की कोई कोशिश नहीं की। निश्चित तौर पर अगर एजेंसी को एक प्राथमिकी दर्ज करने में एक वर्ष का समय लग गया तो आरोप पत्र दाखिल करने में कितना अरसा लगेगा? वित्त मंत्री का यह सवाल उठाना बिल्कुल जायज है कि लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय ऐसा रास्ता क्यों अपनाया गया जो कहीं नहीं ले जाता? बहुत हद तक यह संभव है कि जांच से यह पता चले कि कोछड़ दंपती और धूत के खिलाफ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब देना आवश्यक हो। यकीनन धूत और दीपक कोछड़ के बीच लेनदेन पर सवालिया निशान लगे हैं और इनके जवाब देने आवश्यक हैं। परंतु, सीबीआई को शायद यह पता नही नहीं है कि इन मसलों से समझदारीपूर्वक कैसे निपटा जाता है। जैसा कि जेटली ने कहा भी एजेंसी को समुचित प्रमाणों के आधार केवल अपने प्राथमिक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। किसी को भी संदेह के आधार पर शिकार बना लेना कोई विकल्प नहीं है।
  • 4. इन दिनों पूरे विश्व में कार्यालयों में कैबिन और क्यूबिकल का चलन खत्म हो रहा है क्योंकि यह खुले कार्यालयों का दौर है। कुछ कार्यालय तो एक कदम और आगे निकल गए हैं, जो अपने यहां बिना डेस्क के कार्यालय के विचार को लागू कर रहे हैं। असल में ये कार्यालय ऐसे नहीं हैं, जहां खुली व्यापक जगह है और कोई डेस्क नहीं है। इनमें सीमित संख्या में डेस्क होती हैं, जो पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर मिलती हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी डेस्क को दो घंटे से अधिक समय के लिए छोड़ देता है तो उसे अपना तामझाम समेटना पड़ेगा और कार्यालय के 'छोटे बैठक कक्ष' में काम करना पड़ेगा। इसलिए ज्यादातर कर्मचारी बेघर लोगों की तरह होते हैं, जो अपनी निजी चीजें अपने साथ लेकर जाते हैं। लेकिन इस योजना का मजाक बनाएं क्योंकि आने वाले समय के कार्यस्थलों के डेस्क विहीन बनने के प्रबल आसार हैं।

  • यह भविष्य की सिरदर्दी है, लेकिन मानव संसाधन कर्मियों को अब भी खुले कार्यालय से पैदा होने वाली दिक्कतों से जूझना पड़ रहा है। हालांकि बिना दीवार के बनाए गए सभी कार्यालयों का सबसे अच्छा पहलू यह है कि वे कर्मचारियों में टीम भावना विकसित करते हैं। ये आपस में घुलने-मिलने और नए विचार पेश करने वाले लोगों के बीच समानता और अवसर बढ़ाते हैं। इसकी जरूरत भी है क्योंकि शोध में दिखाया गया है कि पिछले दो दशकों के दौरान कर्मचारियों के मिलकर काम करने में 50 फीसदी बढ़ोतरी हुई है।

  • लेकिन हाल के अध्ययन इस परंपरागत धारणा को खारिज करते हैं। हार्वर्ड के एक शोध-पत्र में उन दो फॉच्र्यून 500 कंपनियों का अध्ययन किया गया है, जो अपने यहां खुले कार्यालय को अपनाने की योजना बना रही थीं। इसमें ऑफिस के नए डिजाइन के बाद कर्मचारियों के पहले और बाद के आपसी संवाद की तुलना की गई है। शोधार्थियों एथन बर्नस्टीन और स्टीफन टर्बन ने एक सोशियोमीट्रिक बैज की मदद से 250 कर्मचारियों के व्यवहार की समीक्षा की। इसके कुछ चौंकाने वाले नतीजे सामने आए। उन्होंने पाया कि दीवार नहीं रहने पर इन कंपनियों में कर्मचारियों के बीच प्रत्यक्ष बातचीत 70 फीसदी तक कम हो गई। कर्मचारियों ने प्रत्यक्ष बातचीत कम होने की भरपाई ऑनलाइन संवाद (ईमेल और इंस्टेंट मेसेजिंग) से की। उनके बीच प्रत्यक्ष संवाद जितना कम हुआ, उतना ही डिजिटल संवाद बढ़ गया। निजता खत्म होने से अन्य कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। कंपनी के कार्याधिकारियों ने भी पाया कि ऑफिस का डिजाइन बदलने के बाद उत्पादकता में कमी आई।

  • नए ऑफिस को अपनाने से पहले एक बड़े समूह ने आंतरिक सर्वेक्षण किया। वह समूह इस सर्वेक्षण के नतीजों से अचंभित था। इसमें सामने आया कि शानदार प्रदर्शन करने वाले करीब 60 फीसदी कर्मचारी समस्याओं के हल के लिए ज्यादा निजी जगह चाहते थे। इससे यह संकेत मिलता है कि खुले कार्यालयों में आसानी से संवाद के फायदे इसकी खामियों से भारी नहीं हैं। एक कर्मचारी ने लिखा, 'मैं अपना क्यूबिकल चाहता हूं, जहां कुछ निजता है। मैं नहीं चाहता कि मेरा कार्यस्थल रात्रिभोज के समय खाने की मेज जैसा दिखे।' ऐसा लगता है कि खुले कार्यालय बहुत से लोगों को कभी खत्म होने वाली बैठक के समान लगते हैं। खुले कार्यालयों के कर्मचारी यह भी महसूस कर सकते हैं कि उन पर लगातार निगरानी रखी जा रही है। इस तरह के दबाव के माहौल से तनाव पैदा हो सकता है। इससे बहुत से लोग यह महसूस करेंगे कि उन्हें हमेशा कर्मठ और मेहनती दिखना चाहिए। यह भीड़भाड़ वाले कमरे में अकेलेपन के समान है, जहां हर कोई एक-दूसरे के साथ है, लेकिन फिर भी अकेला है।

  • एक मानव संसाधन पेशेवर कहते हैं कि खुली जगह में भी कर्मचारियों के श्रेणियों में बंटे होने के अवरोध बरकरार रहते हैं। बहुत से टीम के अगुआ यह सुनिश्चित करते हैं कि उनके पास ऐसे कमरे होने चाहिए, जहां वे तत्काल नोटिस देकर बंद दरवाजे के पीछे विचार-विमर्श कर सकें। अन्य शब्दों में वे ऐसे विशेष बैठक कक्ष चाहते हैं, जिन्हें केवल वे ही रोक सकें और वहां पूरा दिन बैठ सकें। इसके अलावा ज्ञान के काम में कर्मचारियों को एकत्रित होकर, विश्लेषण कर और बहुत से स्रोतों से सूचनाओं के जरिये फैसले कर विशेष कार्य करने होते हैं। जब इस तरह के काम में दखलंदाजी होती है तो अकुशलता और गलतियों में बढ़ोतरी होती है।

  • इस समय खुले कार्यालय ही मौजूद हैं, इसलिए इनका क्या समाधान है? संगठनों को ऐसे कार्यस्थल मुहैया कराने पर ध्यान देना चाहिए, जो बातचीत एवं सहयोग के अलावा निजता एवं ध्यान केंद्रित करने की जरूरत में मददगार हैं। इसमें बहुत कुछ कार्यस्थल के डिजाइन पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए ज्यादातर प्रभावी खुले कार्यालय साझा डेस्क का इस्तेमाल करते हैं, जिनकी ऊंची दीवार होती है। यह दीवार इतनी ऊंची होती है कि आपको अपनी डेस्क के दूसरे साथी को देखने के लिए खड़ा होना होगा। जब इस दीवार की ऊंचाई कम होती जाती है तो कार्यस्थल की उत्पादकता में भी गिरावट आती है।

  • खुले कार्यालय की सफलता की अगुआ फेसबुक ने सहयोग और निजता में संतुलन पर जोर दिया है। उदाहरण के लिए फेसबुक में खुले कार्यालय की कहानी साझा डेस्क से खत्म नहीं होती है। वहां बैठक कक्ष और निजी क्षेत्र हैं। यहां लोग ऐसा काम करने के लिए जा सकते हैं, जिनमें ध्यान केंद्रित करने की जरूरत होती है। अगर आपके पास फेसबुक जितना बजट नहीं है और खुले में डेस्क के अलावा कोई विकल्प नहीं है तो यह सुनिश्चित करें कि कार्यालय में पर्याप्त मात्रा में छोटे बैठक कक्ष और अच्छी तादाद में काम करने की निजी जगह मौजूद हो।

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