जारी है विवादों का अंतहीन सिलसिला: Governor and constitutional misuse

 

राज्यपाल पद का सृजन ही काफी विवादों के साथ हुआ था। नियुक्ति के तरीके पर संविधान निर्माता एकमत नहीं थे। पहले सोचा गया कि मतदान से चुनाव हो, लेकिन अंत में केंद्र की सिफारिश पर उनको पदासीन करने पर सहमति बनी। माना गया कि अंग्रेज शासन की तरह राज्यों के कार्यकलाप की निगरानी के लिए केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल का पद जरूरी है। गैर-राजनीतिक और कद्दावर लोगों की नियुक्तियों से शुरू हुआ यह संवैधानिक पद अनेक कारणों से सबसे ज्यादा तकरार और बहस का केंद्र बनता गया।

Misuse of Governor Position


यों तो 1970 के दशक में संयुक्त विधायक दल की सरकारों के दौर में गवर्नरी करने वाले असली रंग में आए, लेकिन यह परिपाटी 1952 में शुरू हो चुकी थी जब मद्रास के राज्यपाल ने कम्युनिस्ट सरकार बनने की संभावनाओं को रोकने के लिए प्रधानमंत्री को राज़ी कर लिया और वहां कांग्रेस की सरकार बनाने में सक्रिय भूमिका निभाई। फिर 1957 में अनुच्छेद 356 का सहारा लेकर राज्य की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करने का काम हुआ। इस तरह राज्यपाल का पद विवेक सम्मत और निष्पक्ष रहने के बजाय विवादास्पद होता गया।

राज्यपाल की नियुक्ति के लिए उसके गैर-राजनीतिक होने की शर्त का पालन शुरू से ही नहीं हुआ। न उसके सामाजिक कद या निर्विवाद होने के नियम को कभी ध्यान में रखा गया। बाद में तो स्थिति यहां तक बिगड़ गई कि एक दिन पहले ही जो मंत्री या मुख्यमंत्री है, दूसरे दिन वह राजभवन की शोभा बढ़ा रहा है।

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इन्हीं परिस्थितियों के कारण नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर 1983 में सरकारिया आयोग गठित किया गया। उसकी सिफारिशें 1988 में आईं, लेकिन केंद्र सरकारों ने उनको आज तक मंजूर नहीं किया। केंद्र हमेशा राज्यपालों के जरिए राज्य सरकारों पर अंकुश रखने, शासन में दखल देने, उनको अस्थिर करने, जनादेश के विरुद्ध जाकर मनमाने तरीके से उनको नियुक्त और बर्खास्त कराने के इरादे पूरे करता रहा है।

Court’s intervention

संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि संविधान के अनुपालन की निगरानी के लिए राज्यपालों ने नियम-कायदों के साथ जैसी मनमानी और खिलवाड़ किया और पद के दुरुपयोग की मिसालें पेश कीं, वैसा उदाहरण किसी अन्य ओहदे के बारे में नहीं मिलता। बीच-बीच में सुझाव ऐसे भी दिए गए कि इस पद को समाप्त कर दिया जाए, लेकिन कोई विकल्प सामने नहीं होने से यह पद बना हुआ है।
राज्यपालों ने राजभवनों में बैठकर मुख्यमंत्रियों को निर्देश जारी करने तक शुरू कर दिये। मद्रास राज्य से लेकर उत्तराखंड तक ऐसे उदाहरणों की लम्बी सूची है। आख़िरकार, अदालतों को संविधान के निर्देशों और नियमों का पालन कराने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा। अदालत का बहुत साफ़ कहना है कि जो फैसला हो, वह सदन के भीतर बहुमत के आधार पर हो। न्यायालय ने इसी तर्क के आधार पर 1989 के एस.आर. बोम्मई मामले का फैसला सुनाया। राज्यपाल ने सरकार के अल्पमत में होने की दलील देकर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करा दिया था। चार साल बाद 1993 में इस मामले का फैसला सुनाया गया। इसमें स्पष्ट कर दिया गया कि बहुमत-अल्पमत का निर्णय सदन में होना चाहिए। यह मामला एक नज़ीर है, जिसके आधार पर ऐसे सभी मामलों की सुनवाई होने लगी।
राज्यपालों की भूमिका सरकार के गठन के मामले में भी शुरू से विवादों में रही है। 1952 में मद्रास राज्य में यह कम्युनिस्ट सरकार को बनने देने में अड़ंगा लगाकर ऐसा हुआ और ताज़ा मामला कर्नाटक का है, जहां विधायकों की संख्या कम होने के बावजूद एक दल के नेता को शपथ दिला दी गई और बहुमत सिद्ध करने के लिए भी 15 दिन की लम्बी मोहलत दे दी गई जो दलबदल की आशंका पैदा करता था। अदालत ने अब दखल देकर इस फैसले को संशोधित कर दिया है, लेकिन इसकी और भी बुरी मिसाल बिहार का राज्यपाल रहते बूटा सिंह ने पेश की थी, जिन्होंने जनता दल (यूनाइटेड) की सरकार नहीं बनने दी थी। सुप्रीमकोर्ट ने मामले की सुनवाई की और राज्यपाल की केंद्र को भेजी सिफारिशों को तथ्यों के विपरीत माना। शायद ही अदालत की वैसी फटकार का सामना किसी दूसरे राज्यपाल को कभी करना पड़ा हो। सुप्रीमकोर्ट ने उनके आचरण को घोर असंवैधानिक और मनमाना ठहराया था। बूटा सिंह को फैसला आते ही पद छोड़ना पड़ा।

Way Forward

जरूरी बात यह है कि हमारे राज्यपाल अंग्रेज हुकूमत के एजेंटों की तरह सोचने और काम करने के तरीके से बचें और ईमानदारी से पद के दायित्व का निर्वाह करते हुए जनादेश का सम्मान करना सीखें। राजनीतिक स्वार्थों को निभाने के इस दौर में हालांकि यह आसान भले ही न हो, लेकिन कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।

#Dainik_Tribune

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