स्पीकर का निष्पक्ष होना जरूरी

, as a democracy, we must condition ourselves to expecting and promoting neutrality in the Speaker

Question: 

speaker of legislature has important role to maintain the high esteem of Indian Democracy but the internal contradiction has let us down? Do you agree. Present your answer with argument.

भारतीय जनतंत्र की गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने में विधायिका अध्यक्ष की महती भूमिका है परन्तु इस पद में अंतर्निहित विरोधाभाषो ने हमें लज्जित किया है | क्या आप सहमत है ? तर्कपूर्ण अपनापक्ष रखीए |

भारतीय प्रणाली में अध्यक्ष का पद हितों के टकराव से झुड़ा हुआ है और इसके दुरुपयोग कि संभावना  ज्यादा है | जाँच करे |

Position of speaker in Indian system is full of conflict of interest and chances of misuse is high. Examine

#Nai_Duniya

Some example of misuse of Speaker Post

  • साल 1975 की बात है. प्रधानमंत्री ने पांचवीं लोकसभा के स्पीकर डॉ जीएस ढिल्लन को पद छोड़ने को कहा, और उन्हें जहाजरानी मंत्री बना दिया. यह एक नजीर थी, जिसने आनेवाले वक्त में इस पद पर बैठनेवालों को भी मन में ख्वाहिश पालने का हकदार बना दिया.
  • ऐसे कई उदाहरण हैं, जब विधानसभा के स्पीकर ने प्रत्यक्षत: राजनीतिक फैसले से एक राजनीतिक संकट को टाल दिया.

How power of Speaker can be misused

  • मसलन, दलबदल विरोधी कानून विधायिका में पार्टी छोड़नेवाले प्रतिनिधि की सदस्यता खत्म करने के प्रावधान के साथ व्यक्तिगत दलबदल पर रोक लगाता है, लेकिन अगर दलबदल करनेवाले सदन में पार्टी सदस्य संख्या के एक तिहाई से अधिक हैं, तो पार्टी तोड़ने की इजाजत है.
  • यह तय करने का अधिकार कि प्रतिनिधि दलबदल के बाद सदस्यता खत्म किये जाने के दायरे में आता है या नहीं, सदन के पीठासीन अधिकारी को दिया गया है.
  • वर्ष 2016 में अरुणाचल प्रदेश विधानसभा में स्पीकर नाबाम रेबिया द्वारा (सत्तारूढ़ दल के 41 सदस्यों में से) सोलह एमएलए अयोग्य घोषित कर दिये गये थे, हालांकि ना तो उन्होंने पार्टी छोड़ी थी, ना ही इसके निर्देशों का उल्लंघन किया था. मेघालय के स्पीकर पीके क्युंदियाह ने 1992 में मुख्यमंत्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किये जाने से ठीक पहले मतदान का अधिकार निलंबित कर दिया और बाद में पांच विधायकों को निलंबित कर दिया.

शिवराज पाटिल ने दलबदल विरोधी कानून की ‘कमजोर कड़ियों’ पर दुख जताया और व्यवस्था दी कि विभाजन किस्तों में हो सकता है, एक बार में एक विधायक; जिससे दबलबदल कानून का मकसद ही नाकाम हो सकता है.

Learning from Other Constitution

  • इसके मुकाबले में आयरलैंड के कानून को देखिये- जिसकी संसदीय व्यवस्था हमारे जैसी ही है. वहां स्पीकर का पद ऐसे शख्स को दिया जाता है, जिसने लंबे अंतराल में राजनीतिक महत्वाकांक्षा को तिलांजलि देकर विश्वसनीयता हासिल की है.
  • वेस्टमिंस्टर मॉडल में स्पीकर को कैबिनेट में शामिल किया जाना वर्जित समझा जाता है. सिर्फ यूनाइटेड स्टेट्स में, जहां न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत कठोरता से लागू है, वहां स्पीकर को खुले तौर पर सक्रिय राजनीति में शामिल होने की इजाजत है. स्पीकर के तौर पर किये काम के आधार पर भविष्य में इनाम के आश्वासन ने इस पद को राजनीतिक महत्वाकांक्षा की सीढ़ी बना दी है.

Paradoxical Position

  • स्पीकर की स्थिति बड़ी विरोधाभासी है. इस पद पर (चाहे संसद हो या राज्य की विधानसभा) बैठनेवाला किसी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर आता है, फिर भी उससे अपेक्षा की जाती है कि वह पार्टी से तटस्थ व्यवहार करेगा/करेगी.
  • इस सबके बीच वह अगले चुनाव में फिर से पार्टी के टिकट का आकांक्षी रहेगा. तेजस्वी यादव ने इस बात को बोल ही दिया, जब उनसे जेडीयू के साथ गठबंधन धर्म को लेकर सवाल किया गया. तेजस्वी ने कहा, ‘अगर हमारी मंशा सरकार की बांह मरोड़ने की ही होती, तो हमने स्पीकर का पद अपने पास ही रखा होता.’

What to be done

  • ये घटनाएं बताती हैं कि दलबदल विरोधी कानून में अधिक स्पष्टता लाने की जरूरत है. शायद बेहतर होता कि प्रतिनिधि की अयोग्यता से जुड़े ऐसे महत्वपूर्ण फैसले चुनाव आयोग की मदद लेते हुए राष्ट्रपति द्वारा तय किये जाते. स्पीकर का फैसला अंतिम होना भी इसके दुरुपयोग की संभावना को बढ़ा देता है.
  • वर्ष 2016 में तमिलनाडु विधानसभा के तकरीबन सभी विधायकों को निलंबित कर दिया गया था, जबकि विरोध करते और लोकतंत्र की सेहत को लेकर सवाल उठाते डीएमके सदस्यों को सामूहिक तौर पर सदन से निकाल दिया गया था. भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों पर चोट करनेवालों के साथ पक्षपाती स्पीकरों के कारण राज्यों की विधानसभाओं में ऐसे निलंबन के मामले बढ़ते जा रहे हैं.
  • मौजूदा स्पीकर के लिए दोबारा चुनाव जीतने की जरूरत भी उसके फैसलों पर असर डालती है. स्पीकर की संसदीय सीट पर उसके खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारे जाने की परंपरा के कारण ब्रिटिश पार्लियामेंट के हाउस ऑफ कॉमन्स में चाहे किसी भी पार्टी का सदस्य हो, कभी भी अपनी सीट पर चुनाव नहीं हारा. इसकी तुलना में भारत में देखें, तो ऐसे कई स्पीकर (डॉ जीएस ढिल्लन- पांचवीं लोकसभा के स्पीकर, डॉ बलराम जाखड़- सातवीं और आठवीं लोकसभा के स्पीकर) हैं, जिन्होंने आम चुनाव में अपनी सीट गंवा दी.
  • इसके अलावा किसी भारतीय स्पीकर को पद छोड़ने के बाद राज्यसभा का सदस्य नहीं बनाया गया, जबकि ब्रिटिश पार्लियामेंट स्पीकर को खुद ही राज्यसभा में भेज देती है. वीएस पेज की अध्यक्षता वाली पेज कमेटी (1968) ने सुझाव दिया था कि अगर स्पीकर ने अपने कार्यकाल में बिना पक्षपात काम किया है, तो उसकी अगली संसद की सदस्यता जारी रहने देना चाहिए.
  • यह भी दलील दी जा सकती है कि स्पीकर बननेवाले को लोकसभा या विधानसभा का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ना चाहिए. स्पीकर को जीवनभर के लिए पेंशन दी जानी चाहिए और भविष्य में राष्ट्रपति पद को छोड़ कर कोई भी राजनीतिक पद ग्रहण करने से प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. स्पीकर पद से पक्षपात को अलग किये जाने के लिए अन्य परंपराओं की स्थापना जरूरी है.
  • 1996 तक लोकसभा में स्पीकर हमेशा सत्तारूढ़ पार्टी का होता था. कांग्रेस के पीए संगमा के एकमत से हुए चुनाव ने एक नयी परंपरा को जन्म दिया- स्पीकर सत्तारूढ़ पार्टी दल के बजाय दूसरी पार्टी से बना था. लेकिन, फिर हम पुराने ढर्रे पर लौट आये.

एक परिपक्व लोकतंत्र के तौर पर हमें स्पीकर की निष्पक्षता की मांग करनी चाहिए. ऐसे भी हुआ है, जब सरकार से समर्थन वापस लेनेवाले सांसदों की लिस्ट में स्पीकर (2008 के मध्य में सोमनाथ चटर्जी के मामले में ऐसा हुआ था; उन्होंने पार्टी के आदेश की अवहेलना की) का नाम दर्ज हुआ था. स्पीकर की तटस्थता को नुकसान पहुंचानेवाली ऐसी घटनाओं से बचना चाहिए.

ऐसी निष्पक्षता के जवाब में राजनीतिक पाबंदियां नहीं लगायी जानी चाहिए. अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार के बच जाने के बाद 2008 में पार्टी अनुशासन तोड़ने के लिए सोमनाथ चटर्जी का सीपीआइ (एम) से निष्कासन इसका एक अफसोसनाक उदाहरण है.

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