संसाधन संतुलन के आयाम (Finance Commission)

 

 

Constitutional Position

भारत के संविधान ने अपनी सातवीं अनुसूची में यह स्पष्ट कर रखा है कि कौन-से विधायी तथा नीतिगत क्षेत्र केंद्र और राज्य के दायरे में रहेंगे. इस अनुसूची में तीन सूचियां हैं, जिन्हें क्रमशः संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची का नाम दिया गया है. यह व्यवस्था न केवल जिम्मेदारियों का, बल्कि शक्तियों का भी बंटवारा कर देती है.

  • संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधन के द्वारा ग्राम पंचायतों और नगर निकायों को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गयी, जिसके बाद उसमें दो अनुसूचियां (ग्यारहवीं और बारहवीं) और जोड़ी गयीं, जिनके द्वारा ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन की शक्तियां, अधिकार और जिम्मेदारियां साफ कर दी गयीं.
  • भारत राज्यों का संघ है, मगर इसके राज्य केंद्र के द्वारा ही सृजित हैं. यही वजह रही कि आरंभ से ही शक्ति संतुलन का पलड़ा केंद्र की ओर झुका रहा है. किंतु चूंकि संविधान ने स्वयं ही राष्ट्र की तीव्र विविधता तथा इसके राज्यों की विशालता को मान्यता दी, इसलिए हमने एक संघीय राज्यव्यवस्था अंगीकार की.

लेकिन, हाल के वर्षों में हम राज्य सूची के विषयों में भी केंद्र की बढ़ती दखलंदाजी देखते रहे हैं. केंद्र-राज्य संबंधों पर 1983 में सरकारिया आयोग का गठन किया गया. इसके ही फलस्वरूप साल 1990 में अंतरराज्यीय परिषद् का गठन हुआ. दुर्भाग्य से पिछले 28 वर्षों के दौरान इसकी एक दर्जन से भी कम बैठकें हुई हैं.

राष्ट्रव्यापी जीएसटी का अर्थ है कि अब और अधिक केंद्रीकरण का दौर आरंभ हो गया है, क्योंकि राज्यों ने मूल्यवर्धित कर (वैट) के संग्रहण की शक्ति छोड़ दी. इसके बदले केंद्र ने भी उत्पाद तथा सेवा कर लगाने की शक्ति का परित्याग कर दिया. आगे से सभी अप्रत्यक्ष कर नीति और दरें जीएसटी परिषद् नामक एक राष्ट्रीय परिषद् तय करेगी. पर इस निकाय में भी केंद्र को अधिक शक्तियां हासिल हैं.
हालांकि, एकीकृत, ‘एक राष्ट्र-एक कर’ का यह लाभ है कि इसके द्वारा एक अखंड राष्ट्रीय आर्थिक बाजार का सृजन होता है, पर एक राज्य के लिए इसका अर्थ कर स्वायत्तता में कमी भी है. चूंकि राज्यों को भी राष्ट्रीय स्तर पर तय राजकोषीय अनुशासन का पालन करना होता है, अतः राज्यस्तरीय पहलकदमियों अथवा स्थानीय आवश्यकताओं के लिए उनके प्रत्युत्तर में अधिक खर्च करने की उनकी आजादी भी सीमित होती है. वे आरबीआई और केंद्र की अनुमति के बगैर बाजार से भी उधार नहीं ले सकते.
अतीत में राजकोषीय तथा विकास के मोर्चे पर राज्यों से कई नयी चीजें निकलीं. तमिलनाडु से आरंभ मध्याह्न भोजन योजना तथा महाराष्ट्र से शुरू की गयी रोजगार गारंटी योजना इसके दो ज्वलंत उदाहरण हैं. ये दोनों अब राष्ट्रीय कार्यक्रम बन चुके हैं, जो केंद्र प्रायोजित हैं.

READ MORE@ GSHINDI प्रधानमंत्री जनविकास कार्यक्रम (पीएमजेवीके)

संभवतः इन्हीं वजहों से 14वें वित्त आयोग ने कर-संसाधनों से राज्यों का हिस्सा 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत कर दिया, जो सहकारी संघवाद की इस भावना के अनुरूप ही था कि राज्यों को अधिक संसाधन देकर उन्हें अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करने दी जानी चाहिए. यह वित्त आयोग की जिम्मेदारी है कि वह केंद्र तथा राज्यों के बीच शुद्ध कर संग्रहण के लंबवत तथा विभिन्न राज्यों के बीच उनके क्षैतिज बंटवारे की संस्तुति करे. इसके अलावा, जीएसटी का राज्यांश तो राज्यों के पास रहता ही है.
ऊपर से देखने में तो यह व्यवस्था शक्ति-संतुलन राज्यों के पक्ष में झुकाती दिखती है. लेकिन, कठिनाई यह है कि संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार राज्यों के लिए निर्धारित क्षेत्रों के दायरे में भी केंद्र अधिकाधिक लिप्त हो रहा है.

उदाहरणार्थ, हम मनरेगा से रोजगार, खाद्य सुरक्षा अधिनियम से खाद्य सुरक्षा, सर्व शिक्षा अभियान की मार्फत शिक्षा और अब यहां तक कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के द्वारा स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में केंद्रीय प्रावधानों को ले सकते हैं. इन सबमें ज्यादा संसाधनों की जरूरत होगी और नतीजतन वित्त आयोग द्वारा राज्यों को संसाधन के बंटवारे का दायरा और भी सीमित हो जायेगा.
सरल रूप में, वित्त आयोग केंद्र और राज्यों के बीच संसाधन संतुलन स्थापित करने का पंच है. ऐसा माना जाता है कि उसकी संस्तुतियां सरकारों द्वारा संसाधन जुटाने की उनकी खुद की क्षमता के बाद उनकी शेष बची राजकोषीय जरूरतों पर आधारित होती हैं. यदि गरीब राज्यों को अधिक संसाधनों का आवंटन होता है, तो इसका कारण यह है कि वहां निधि की ज्यादा बड़ी कमी है.
15वें वित्त आयोग के सामने अभी ही कई कठिनाइयां खड़ी हो चुकी हैं, क्योंकि दक्षिणी राज्यों ने इसके विचारणीय बिंदुओं में इस आधार पर परिवर्तन की मांग की है कि उसमें आबादी के आकलन के लिए 2011 की जनगणना के आंकड़ों के इस्तेमाल की बात कही गयी है. हालांकि, यह केंद्र और राज्यों के बीच का मुद्दा न होकर राज्यों के बीच का ही मुद्दा है. पर, इसके अलावा भी, वित्त आयोग द्वारा केंद्र और राज्यों के बीच सही संतुलन कायम करने की जिम्मेदारी सीमित कर दी गयी है. इतना तो जरूर है कि केंद्र और राज्य संबंधों के प्रवाह में ये ज्वार-भाटे स्वस्थ संघीय गणतंत्र का ही संकेत करते हैं

#Prabhat_Khabar

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download