India cannot become free of open defecation by only building more toilets. Unfortunately, more than 97% of the SBA-Gramin’s budget has been spent on the construction of individual household toilets
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Recent Context
रांची नगर निगम के ‘हल्ला बोल, लुंगी खोल’ अभियान को पिछले हफ्ते राष्ट्रीय मीडिया में जगह मिली. खुले में शौच जानेवालों की लुंगी उतरवाने के लिए सुबह-सुबह नगर निगम की टीमें तैनात हैं. ‘हल्ला बोल, घर से दूर छोड़’ भी इसी का हिस्सा है. खुले में शौच के लिए जानेवालों को पकड़ो और दूर ले जाकर छोड़ दो. मकसद है कि लोग शर्मिंदा हों. अपने घर में शौचालय बनवायें और उसका इस्तेमाल करें.
Other News
- पहले उत्तर प्रदेश के बिजनौर से खबर थी कि जिलाधिकारी के आदेश से वहां खुले में शौच कर रहे लोगों पर टॉर्च चमकाये गये और सीटियां बजायी गयीं. इसके लिए पुरुषों और महिलाओं की टीमें सुबह-सुबह टॉर्च और सीटी लेकर तैनात रहती हैं.
- ताजा खबर मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की है. वहां अमला विकास खंड के सात गांवों में बिना शौचालय वाले घरों पर 250 रुपये प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन के हिसाब से महीनेभर का अर्थदंड लगाया गया है. एक परिवार पर तो 75 हजार रुपये का दंड लगा है. इन परिवारों के मुखिया तनाव में हैं. उनका कहना है कि भले ही जेल जाना पड़े, इतना जुर्माना कहां से दें. पैसे होते तो शौचालय नहीं बनवा लेते?
Scheme Target
देश को स्वच्छ बनाने के प्रधानमंत्री के संकल्प की समय-सीमा ज्यों-ज्यों समीप आती जा रही है, राज्यों और उनके प्रशासन पर यह लक्ष्य हासिल करने का दबाव बढ़ता जा रहा है. 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने आह्वान किया था कि 2019 तक पूरे देश को साफ-सुथरा बनाना है. खुद उन्होंने दिल्ली की एक सड़क पर झाड़ू लगाकर स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की थी. उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और भाजपाई राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं मंत्रियों ने भी झाड़ू पकड़कर स्वच्छता का संकल्प लिया था.
Efforts Before SBA
इसमें दो राय नहीं कि स्वच्छ भारत मिशन अत्यंत आवश्यक और पवित्र संकल्प है. गांवों से लेकर शहरों तक भीषण गंदगी फैली है. पीने का साफ पानी मयस्सर होना तो बहुत दूर की बात है, कूड़े-कचरे, मलबे और मानव उच्छिष्ठ के कारण गांवों से लेकर शहरों-महानगरों तक की आबादी घातक रोगों की चपेट में आती रहती है. बिहार का कालाजार हो या पूर्वी उत्तर-प्रदेश का जापानी इंसेफ्लाइटिस, जिनसे हर साल सैकड़ों-हजारों बच्चों की मौत होती है, इन बीमारियों के होने और फैलने का प्रमुख कारण गंदगी है. पूर्व की सरकारों और यूपीए शासन में निर्मल भारत योजना चलायी जरूर गयी, लेकिन किसी प्रधानमंत्री ने इस अभियान को ऐसी प्राथमिकता और इतना ध्यान नहीं दिया.
सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें, तो देश का सफाई-प्रसार (सैनिटेशन कवरेज) जो 2012-13 में 38.64 फीसदी था, वह 2016-17 में 60.53 फीसदी है. 2014 से अब तक करीब तीन करोड़ 88 लाख शौचालय बनवाये गये हैं.
Success of SBA
- एक लाख 80 हजार गांव, 130 जिले और तीन राज्य- सिक्किम, हिमाचल और केरल- खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिये गये हैं.
- दावा है कि इस वर्ष के अंत तक गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मिजोरम और उत्तराखंड भी इस श्रेणी में आ जायेंगे.
Ground Reality
जमीनी हकीकत बहुत फर्क है. देश में शायद ही ऐसा कोई नगर निगम, नगर पालिका या पंचायत हो, जिसके पास अपने क्षेत्र में रोजाना निकलनेवाले कचरे को उठाने और कायदे से उसे निपटाने की क्षमता हो. जो कचरा उठाया जाता है, किसी बाहरी इलाके में उसका पहाड़ बनता जाता है. सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा कायम है. खुले में शौच की मजबूरी का नारकीय उदाहरण तो रोज सुबह ट्रेन की पटरियों, खेतों-मैदानों में दिखाई ही देता है.
Need to equip Municipality
- प्रधानमंत्री और सारे मंत्री चाहे जितना झाड़ू उठा लें, कचरा प्रबंधन और नगर निगमों-नगर पालिकाओं की क्षमता बढ़ाये बिना शहर और कस्बे साफ नहीं हो सकते. नागरिकों को सफाई अपने व्यवहार का हिस्सा बनानी होगी. इन मोर्चों पर क्या हो रहा है?
- स्वच्छ भारत मिशन का सारा जोर खुले में शौच को बंद करना है. जिलाधिकारियों पर अपने जिले को इससे मुक्त घोषित करने का दबाव है. उसी दबाव के चलते कहीं लुंगी खुलवाई जा रही है, कहीं टॉर्च चमकाया जा रहा है और कहीं भारी जुर्माना थोपा जा रहा है.
Will forceful Method Work
क्या ऐसे अपमान और आतंक से लोगों को समझाया जा सकता है? स्वच्छ भारत मिशन की दिशा-निर्देशिका कहती है कि गांव-गांव स्वच्छता-दूत तैनात किये जायें, जो लोगों को समझायें कि खुले में शौच के क्या-क्या नुकसान हैं. लोगों को मोटीवेट करना है, अपमानित नहीं. कहां हैं वे स्वच्छता दूत?
- बहुत सारे लोग शौचालय बनवा लेने के बावजूद खुले में जाना पसंद करते हैं. पुरानी आदत के अलावा ऐसा शौचालयों की दोषपूर्ण बनावट के कारण भी है.
- सरकारी दबाव और मदद से जो शौचालय बनवाये गये हैं, अधिसंख्य में पानी की आपूर्ति नहीं है. ‘सोकपिट’ वाले शौचालयों में पानी कम इस्तेमाल करने की बाध्यता भी है. नतीजतन दड़बेनुमा ये शौचालय गंधाते रहते हैं.
- ‘कपार्ट’ के सोशल ऑडिटर की हैसियत से मैंने देखा है कि लोग ऐसे शौचालयों का प्रयोग करना ही नहीं चाहते. बल्कि, उनमें उपले, चारा और दूसरे सामान रखने लगते हैं.
Other Challenge of SBA
- एक बड़ी आबादी शौचालय नहीं बनवा सकती, क्योंकि उसके लिए दो जून की रोटी जुटाना ही मुश्किल है. गंगा के तटवर्ती गांवों को खुले में शौच-मुक्त कर लेने के सरकारी दावे की पड़ताल में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने हाल ही में पाया कि लगभग सभी गांवों में ऐसे अत्यंत गरीब लोग, जिनमें दलितों की संख्या सबसे ज्यादा है, अब भी खुले में शौच जा रहे हैं. वे शौचालय बनवा पाने की हैसियत ही में नहीं हैं. सरकारी सहायता तब मिलती है, जब शौचालय बनवाकर उसके सामने फोटो खिंचवायी जाये.
- शहरों-महानगरों में एक बड़ी आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है. मजदूरी करनेवाले एक बोरे में अपनी गृहस्थी पेड़ों-खंभों में बांधकर फुटपाथ या खुले बरामदों में जीते हैं.
- इनके लिए सामुदायिक शौचालय बनवाने के निर्देश हैं. अगर वे कहीं बने भी हों, तो उनमें रख-रखाव-सफाई के लिए शुल्क लेने की व्यवस्था है, जो इस आबादी को बहुत महंगा और अनावश्यक लगता है.
खुले में शौच से मुक्ति का अभियान सचमुच बहुत बड़ी चुनौती है. इसका गहरा रिश्ता अशिक्षा और गरीबी से है. सार्थक शिक्षा दिये और गरीबी दूर किये बिना सजा की तरह इसे लागू करना सरकारी लक्ष्य तो पूरा कर देगा, लेकिन सफलता की गारंटी नहीं दे सकता