This article discuss about breaking of Joint family system and how it affecting Childrens in society.
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चीन के आधुनिक साहित्य के महान कथाकार लू शून (1881-1936) की एक प्रसिद्ध कहानी: ‘एक पागल की डायरी’ : इस कहानी का नायक पागल कहता है, ‘चार हजार साल से हम मनुष्य का गोश्त खाते आ रहे हैं। बच्चों ने उसे नहीं चखा है। बच्चों को बचाओ।’ आज जब हम बच्चों को हत्या और सामूहिक दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त पाते हैं तो लगता है कि हमने लू शून की उस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया। और अब बच्चों ने भी आदमी का गोश्त चख लिया है।
नाबालिगों द्वारा किए जाने वाले जघन्य अपराध
नाबालिगों द्वारा किए जाने वाले जघन्य अपराधों ने पूरे देश के माथे पर लकीरें पांच साल पहले हुए निर्भया कांड के दौरान उकेरी थीं। 23 वर्षीय निर्भया के साथ की गई दरिंदगी में कुल जो छह लोग शामिल थे, उनमें एक 18 वर्ष से कम उम्र का भी था। उनमें से पांच को तो फांसी की सजा हो गई, लेकिन एक बच गया। इसके बाद नाबालिग की उम्र की सीमा 18 से घटाकर 16 करनी पड़ी। साथ ही कुछ दिनों पहले एक लड़के पर केस चलाने के मामले पर जूवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने कहा कि चूंकि अभियुक्त ने जघन्य अपराध किया है और वह इस अपराध के दंड को समझने के योग्य था, इसलिए उस पर मुकदमा वयस्कों की तरह ही चलेगा।
परीक्षा टालने के लिए स्कूली बच्चे की हत्या
हाल में हुई कुछ अन्य अत्यंत दुखद घटनाओं से तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई हैं। गुरुग्राम के एक नामी स्कूल के एक लड़के ने स्कूल के एक बच्चे की हत्या केवल इसलिए कर दी, ताकि कुछ दिनों के लिए परीक्षा टल जाए। नोएडा में तो एक लड़के ने अपनी मां और बहन को इसलिए मार डाला, क्योंकि वे उसे डांटते थे। इसी सिक्के का एक दूसरा पहलू हमें स्वयं के प्रति उनके द्वारा उठाए गए क्रूर कदमों में दिखाई देता है। नाबालिगों एवं युवाओं की आत्महत्या की खबरें आज आम हो गई हैं। ‘ब्लू व्हेल’ के खौफनाक खेल ने जघन्यता के उस नए स्वरूप को प्रस्तुत किया है जिसमें स्वयं के प्रति क्रूरता के विभिन्न चरण दिखाई देते हैं।
नाबालिगों द्वारा किए जाने वाले अपराधों में पांच सालों में 47 प्रतिशत की बढ़ोतरी
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि नाबालिगों द्वारा किए जाने वाले अपराध कुल अपराध का लगभग एक प्रतिशत होते हैं। तीन साल पूर्व के लगभग 45 हजार बाल अपराधों में लगभग 30 हजार अपराध 16 से 18 वर्ष की उम्र के बच्चों द्वारा किए गए। राज्यसभा में बताया गया है कि इस तरह के अपराधों में पिछले पांच सालों में लगभग 47 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जो बहुत चिंताजनक है।
संस्कार और नैतिक मूल्यों का जबर्दस्त अभाव
निर्भया कांड के बाद इस समस्या पर विमर्श के जो बिंदु सामने आए उनमें से अधिकांश का संबंध मुख्यत: इससे जुड़े कानूनों में सुधार और कठोर दंड व्यवस्था से था। इनका अपनी जगह औचित्य है, लेकिन इसे ही पर्याप्त मान लेना एक बड़ी भूल होगी। इस समस्या की जड़ों की तलाश हमें सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक क्षेत्रों में करनी होगी। इसके लिए मैं अस्सी के दशक में राजकपूर की आई फिल्म ‘बॉबी’ के एक दृश्य की याद दिलाना चाहूंगा। हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहा धनी परिवार का एक नाबालिग बेटा जब अपने जन्मदिन पर घर लौटता है तो वहां पार्टी और सजावट तो खूब हैं, लेकिन उसके माता-पिता नहीं। वे अपने बेटे को ‘एंज्वॉय’ करने की बात कहकर स्वयं और कहीं चले जाते हैं। मां-बाप के इस व्यवहार से बेटा (ऋषि कपूर) अंदर से टूट जाता है और हताश होकर अपने एक निम्नवर्गीय परिचित के यहां चला जाता है, जहां उसकी भेंट बॉबी नाम की एक लड़की से होती है।
एकल पारिवारिक संरचना ने बच्चों को बुजुर्गों की गोद से वंचित कर दिया
दरअसल इस छोटे से किंतु अत्यंत भावनात्मक दृश्य में बालमन की अनेक परतें और छवियां दिखाई देती हैं। आज माता-पिता के पास समय की कमी के कारण बच्चे निहायत ही एकाकी होते जा रहे हैं। एकल पारिवारिक संरचना ने बच्चों को बुजुर्गों की गोद, स्नेहयुक्त स्पर्श और मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद कहानियों से वंचित कर दिया है। इसके कारण उनमें संस्कारों और नैतिक मूल्यों का जबर्दस्त अभाव देखने में आ रहा है। यही स्थिति हमारी शिक्षा प्रणाली की भी है। फलस्वरूप हम उनसे जिस तरह के अनुशासन, मर्यादा एवं सहनशीलता जैसे मानवीय मूल्यों की अपेक्षा करते हैं, वे विकसित नहीं हो पाते।
बच्चों में सामाजिकता की भावना का अभाव
एक या दो बच्चों की नीति के कारण बच्चा स्वाभाविक रूप से परिवार का लाडला हो जाता है। इसके कारण उसके बिगड़ने की आशंका प्रबल हो जाती हैं। उसे घर के बाहर भी माहौल ऐसा नहीं मिलता, जहां से वह कुछ अच्छे गुण सीख सके। इससे उसके अंदर सामाजिकता की भावना पनप नहीं पाती। नगरों-महानगरों में खुले स्थानों के अभाव ने उसके खेल को इन्डोर एवं कंप्यूटर गेम की ओर धकेल दिया है। खेल के मैदान बच्चों में सहनशीलता तथा सामूहिकता की भावना विकसित करने के सर्वोत्तम एवं स्वाभाविक माध्यम होते हैं। ऐसे में सचिन तेंदुलकर की उस दिवस की प्रतीक्षा सचमुच मन को छू जाती है, जिस दिन माता-पिता अपने बच्चों से पढ़ाई करने के बजाय खेलने के बारे में पूछेंगे।
पूंजीवादी व्यवस्था ने बच्चों को महत्वाकांक्षी बना दिया
जो कुछ थोड़ा-बहुत बचा था, उन सबका सत्यानाश कर दिया इंटरनेट ने। यह भी धीरे-धीरे मादक पदार्थों की तरह एक नशे का रूप लेता जा रहा है। यही कारण है कि कई देशों ने बच्चों के लिए इस पर प्रतिबंध लगा दिया है। नि:संदेह इस पूंजीवादी व्यवस्था ने आज के बच्चों को जितना अधिक महत्वाकांक्षी बना दिया है, वह उनके संस्कारों एवं मूल्यों के क्षरण का एक बहुत बड़ा कारण बन गया है। करियर एवं जल्दी से सब कुछ पा लेने की अदम्य चाहत ने उन्हें अंदर से बेहद बेचैन और असंतुलित कर दिया है। इसी की परिणति हम साधनों की पवित्रता के पतन के रूप में देख रहे हैं।
कोई भी बच्चा अपराधी बच्चे के रूप में जन्म नहीं लेता
कुल मिलाकर यह कि हमें इस बात को अच्छी तरह से समझकर खुलेमन से स्वीकार करना होगा कि कोई भी बच्चा अपराधी बच्चे के रूप में जन्म नहीं लेता। आगे चलकर वह जो भी रूप धारण करता है, वह समाज के सांचे के अनुकूल होता है। इसलिए नाबालिगों द्वारा किए जाने वाले अपराध को परिवार एवं समाज द्वारा किए जाने वाले अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए। तभी इसका कुछ हल निकल सकेगा
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