उम्मीदों के बोझ से बिखरता बचपन (child and childhood)

 

#Dainik_Tribune

आज का कड़ी प्रतिस्पर्धा का युग अब उस दौर में पहुंच चुका है जहां अभिभावक अनजाने में ही अपने बच्चों के दुश्मन बन बैठे हैं। प्रतिस्पर्धा पहले भी थी, पर उस समय अगर बच्चों को मनचाहा करियर नहीं मिलता था तो भी मानसिकता यही रहती थी कि अब बच्चे जो करें, उसी में अपना सर्वश्रेष्ठ दें और जीवन में खुश और संतुष्ट रहें। पर व्यावसायिकता और भौतिक सुख-सुविधाओं के आज के दौर में ये चीज़ें इतनी यांत्रिकीय हो चुकी हैं कि अपने बच्चों से माता-पिता की अपेक्षाएं भी ऐसी हैं जैसे वे उनके बच्चे नहीं, कोई कंप्यूटर या रोबोट हों, जिसे जैसा प्रोग्राम किया जाए, वो हर बार 100 फीसदी क्षमता से वैसा ही परिणाम दे।

  • घर, समाज, स्कूल, कोचिंग और मित्रों के बीच सभी जगह पर सिर्फ ये महत्वपूर्ण होता जा रहा है कि बच्चा आगे जाकर क्या बनने वाला है और उसके लिए क्या प्रयास कर रहा है। आज की शिक्षा-प्रणाली भी बच्चों को तीन साल की उम्र से अनुशासन की आदत डलवाकर धीरे-धीरे उसे 9वीं-10वीं तक प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए खुद को तैयार करने के हिसाब से ही बनी है।
  • माता-पिता अब हर हाल में अपने बच्चों को अपने सपने पूरे करते देखना चाहते हैं। ये ज्यादा मायने नहीं रखता कि बच्चे की खुद की रुचि किस तरफ है। उन्हें ये एहसास दिलाया जाता है कि उन्होंने जो विषय चुना है, उसमें उन्हें हर हाल में सफल होना है। ज़रा-सी चूक से अगर उनके अंक कम आए या वो पीछे रह गए तो उनका भविष्य बर्बाद हो जाएगा।
  • ये मानसिकता बच्चों को नैसर्गिक रूप से विकसित होने और अपनी पसंद के क्षेत्र को चुनने की भी इज़ाज़त नहीं देती। इस तरह से पले-बढ़े बच्चे अगर माता-पिता और अपना लक्ष्य हासिल कर भी लेते हैं तो तब तक वे पूरी तरह से असंवेदनशील और मशीनी हो चुके होते हैं। ये प्रवृत्ति उनके सर्वांगीण विकास के लिहाज से घातक है। अब ये कड़ी प्रतिस्पर्धा बच्चों को असमय तनाव और अवसाद का शिकार बनाने लगी है। ये अंधी दौड़ मासूम जिंदगियां लीलने लगी है।
  • ज्यादातर दंपति अपने बच्चों के साथ अपने माता-पिता से दूर रहते हैं। ऐसे में दादा-दादी का स्नेह, साथ और ध्यान भी बच्चों को नहीं मिलता। बच्चा अपनी बात किसी से कह नहीं पाता। बाल-मन दबाव में घबरा जाता है, बिखर जाता है। वो दबाव से बचने का प्रयास करता है पर धीरे-धीरे अवसादग्रस्त होता चला जाता है। माता-पिता शुरू में ध्यान नहीं देते। आखिर में व्यथित होकर बच्चा परेशानियों से बचने के लिए कोई गलत कदम उठा लेता है। मानव संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर घंटे एक विद्यार्थी आत्महत्या करता है। भारत में प्रतियोगी परीक्षाओं के केंद्र राजस्थान के कोटा में आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों की संख्या सर्वाधिक है।

One size fit all approach don’t work


ये समझना होगा कि हर बच्चा दूसरे से अलग होता है। उसकी रुचियां और क्षमता अलग होती हैं। बच्चों को ये बताना होगा कि हर वो क्षेत्र, जिसमें उनकी रुचि हो और वो आगे उसमें कुछ अच्छा कर पाए, महत्वपूर्ण है। बजाय ऐसे विषय की पढ़ाई करने के जिसे वो पसंद ना करते हों और सिर्फ आजीविका की दृष्टि से उन्हें वो लेना पड़े। ऐसा विषय लेना बेहतर है जो उनकी पसंद का हो और उस क्षेत्र में वो ख़ुशी-ख़ुशी आगे कुछ करना चाहें। अभिभावकों को अपने बच्चों को ये साफ बताना होगा कि उनकी पहली प्राथमिकता बच्चों की जिंदगी है और बाद में उनका करियर है। बच्चों को शुरू से ही ये समझाना होगा कि वो अपनी क्षमताओं से अपनी पसंद का लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करें। पर अगर किसी कारण से उनके अंक कम भी आए या वो कोई परीक्षा पास नहीं भी कर पाए तो भी कुछ नहीं बिगड़ेगा।

Role of technology and child


आज के जीवन में गैजेट्स भले ही अति-महत्वपूर्ण हों, हमें बच्चों को उनका सीमित इस्तेमाल करना सिखाना होगा। बच्चों को वीडियो गेम्स से भी दूर रहना सीखना होगा। वीडियो गेम्स उन विशेषज्ञों द्वारा बनाए जाते हैं, जो चाहते हैं कि उसे खेलने वाले उसके आदी हो जाएं। इसके बजाय किसी तरह के मैदानी खेल खेलना बेहतर है जो शारीरिक विकास के साथ-साथ बच्चे को ऊर्जावान भी बनाए रखें और उसको तनाव से दूर रखें। अपनी रुचि के अनुसार संगीत, गायन, चित्रकारी, बागवानी, लेखन और पठन करें।
शिक्षण संस्थानों को अब विशेषज्ञ काउंसलरों की नियुक्ति भी करनी होगी जो विद्यार्थियों से लगातार वार्तालाप करें और प्रयास करें ताकि उनमें आत्महत्या की प्रवृत्ति न विकसित हो। ज़रूरत पड़ने पर अवसादग्रस्त बच्चों का मनोवैज्ञानिक उपचार भी किया जाना चाहिए। हम अपने बच्चों को जीवन में बेहद सफल देखना चाहते हैं। पर सबसे जरूरी ये है कि बच्चे के जीवन को संभाला जाए। इसीलिए हमें उसे ये भी समझाना होगा कि जीवन में खुश और संतुष्ट रहना ज्यादा जरूरी है। बाकी सफलताएं भी समय के साथ आएंगी। बच्चों को अनुशासन की हद में आज़ादी देकर उन्हें पूरी तरह से विकसित होने दिया जाए ताकि वे अपनी जिम्मेदारियां खुद समझें।

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