तनाव के तार (society and problem of tension)

#Jansatta

आम लोगों की जिंदगी में तनाव जिस कदर हावी हो चुका है, वह चिंता का विषय है। आंकड़ों के लिहाज से देखें तो हालात की गंभीरता का सहज ही पता चल जाता है।

Recent Survey

Ø  हाल में एक सर्वे में यह सामने आया कि भारत में नवासी फीसद लोग तनाव के शिकार हैं।

Ø  तनावग्रस्त लोगों का यह आंकड़ा चौंकाने वाला तो है ही, साथ ही एक बड़े खतरे की ओर भी इशारा करता है।

लगता है कि देश में हर व्यक्ति किसी न किसी तरह के तनाव से जूझ रहा है। घर-परिवार, समाज, दफ्तर सब जगह लोग इसके शिकार हैं। बच्चे, बड़े, बूढ़े कोई भी इससे अछूता नहीं है। तनाव का बढ़ना चिंता की बात इसलिए है कि यह तमाम बीमारियों की जड़ है। ज्यादातर मानसिक और शारीरिक बीमारियों के पीछे बड़ी वजह तनाव ही होती है। ऐसे में जो सवाल परेशान करता है, वह यह कि अगर इतनी बड़ी आबादी तनाव में जी रही है तो कैसे स्वस्थ समाज का निर्माण होगा। क्या सरकार को इस बारे में नहीं सोचना चाहिए? अगर इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया गया तो भारत में मानसिक रोगियों की तादाद तेजी से बढ़ जाएगी और यह विस्फोटक स्थिति होगी।

 

आज शहरों और महानगरों में लोग जिस तरह की भागदौड़ भरी जिंदगी जी रहे हैं, उसकी परिणति तनाव में ही होती है। जल्द ही सब कुछ हासिल कर लेने की चाह और गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने तनाव को ज्यादा बढ़ाया है। बच्चों में पढ़ाई और परीक्षा का तनाव इतना हावी रहता है कि इसके घातक परिणाम दसवीं-बारहवीं की बोर्ड के नतीजे आने पर देखने को मिलते हैं। उम्मीदों के मुताबिक नतीजे न आने से कुछ बच्चे मौत को भी गले लगा लेते हैं। नौजवानों में रोजगार और परिवार से जुड़ी समस्याएं तनाव का बड़ा कारण बन कर उभरी हैं। वृद्धावस्था का तनाव तो अवसाद जैसी स्थिति में ला देता है और देश में ऐसे मरीजों की तादाद काफी ज्यादा है। जीवन में आर्थिक पक्ष भी तनाव का बड़ा कारण बनता है। भारत में एक बड़ी समस्या यह है कि लोग तनाव को जरा भी गंभीरता से नहीं लेते। ज्यादातर लोग इसे नजरअंदाज करते हैं। यों भी, हमारे यहां तनाव और अन्य मानसिक बीमारियों के प्रति जागरूकता का घोर अभाव है और हर स्तर पर लापरवाही ही देखने को मिलती है। ऐसे लोगों की तादाद काफी बड़ी है जो मानसिक रोग का पता चलने पर भी उपचार नहीं कराते।

 

इसका बड़ा कारण इलाज पर होने वाला खर्च है। करीब पचहत्तर फीसद लोग मोटे खर्च के डर से मानसिक बीमारियों का इलाज कराने से बचते हैं। नतीजा यह होता है कि उन्हें और नई-नई बीमारियां घेरने लगती हैं। आबादी का बड़ा हिस्सा मोटापे और मधुमेह जैसी समस्याओं का सामना कर रहा है। ये जीवनशैली और तनाव का ही नतीजा हैं। तनाव से होने वाली अवसाद की स्थिति तो और खतरनाक है। भारत में अवसाद और अन्य मानसिक रोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या करोड़ों में है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे भारत के लिए खतरे की घंटी करार दिया है। हालांकि भारत में पहली बार चार साल पहले राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति शुरू की गई थी। इसका मकसद देश में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों का नजरिया बदलना और उन्हें जागरूक बनाना, मनोचिकित्सा केंद्र खोलना और पहले से चल रहे अस्पतालों को उन्नत बनाना था। लेकिन समस्या यह है कि मानसिक रोगों से ग्रस्त मरीजों की तादाद तेजी से बढ़ रही है और सरकारी स्वास्थ्य योजनाएं खुद ही बीमार हालत में हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि हम कैसे भारत को मानसिक रोगियों का गढ़ बनने से बचा सकते हैं?

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