Change in societal structure has negatively affected children and increasing Juvenile crime cases are result of this only.
#Dainik_Jagran
Increasing Juvenile crime
आजकल बाल अपराध की वीभत्स घटनाएं सुर्खियां बन रही हैं। इससे भी बड़ी तकलीफ की बात यह है कि शिक्षा के मंदिर यानी स्कूल ही इन अपराधों का केंद्र बन रहे हैं। कुछ माह पहले गुड़गांव के रेयान स्कूल में परीक्षाएं टालने के लिए एक सीनियर छात्र द्वारा मासूम छात्र की हत्या ने सनसनी मचा दी थी। इसके बाद लखनऊ के ब्राइटलैंड स्कूल की एक छात्र ने छुट्टी कराने के लिए कक्षा एक के छात्र को लगभग अधमरा ही कर दिया। इस मामले की आग अभी शांत भी नहीं हुई थी कि हरियाणा के यमुनानगर में कक्षा 12 के एक छात्र ने अपनी प्रिंसिपल की गोली मारकर हत्या कर दी। रह-रहकर ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जिनमें अपराध को अंजाम देने का काम किशोरों ने किया होता है। बहुत दिन नहीं हुए जब नोएडा के फ्लैट में एक किशोर ने मां और बहन की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी।
सवाल उठता है कि आखिर ऐसे हालात पैदा क्यों हो रहे हैं?
अपराध की ओर खिसकता बचपन अब तमाम तरह के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सवालों के जवाबों की मांग करता है। ऐसा लगता है कि अमेरिकी और यूरोपीय बच्चों में पनपी हिंसा की संस्कृति अब तेजी से हमारे देश में भी पैठ बनाती जा रही है। हमारे नौनिहालों के मस्तिष्क में क्रोध, प्रतिरोध, प्रतिशोध और हिंसा के उठते ज्वार से जुड़े ज्वलंत प्रश्न समाज मनोवैज्ञानिकों को ही नहीं, बल्कि आमजन को भी मथ रहे हैं। यह सच है कि छात्रों में सहपाठियों के बीच अनबन, गुस्सा, मारपीट, प्रेम और दोस्ती इत्यादि का प्रदर्शन अतीत से ही उनके जीवन का हिस्सा रहे हैं, परंतु हाल के कुछ वर्षो से बच्चों के मस्तिष्क में हिंसा का जो लावा फूट रहा है वह गंभीर चिंता का विषय है। वर्तमान में बच्चों के सामाजीकरण की प्रक्रिया और उससे विकसित हो रहे बाल मनोविज्ञान को गहराई से समझने की दरकार है।
जीवन में असफलता का भय बच्चों को हिंसक बना रहा है
हमारे समाज में संयुक्त परिवारों ने लंबे समय तक भोगवादी आवश्यकताओं को संभाल रखा था, लेकिन टीवी और फिल्मों की तिलिस्मी दुनिया ने उसे एक बड़ी हद तक प्रभावित किया है।
आज परिवार में बच्चों की जितनी जरूरतें पैदा हो रही हैं उनमें से तीन चौथाई बाजार और विज्ञापनों की देन हैं। इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि बाजार के फैलाव ने नई उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म देकर लोगों में दमित इच्छाओं का विस्फोट किया है।
आज बच्चों से पारस्परिक और सघन सामाजिक संवाद करने के परिवार, स्कूल और दोस्त जैसे सभी साधन और माध्यम गौण हो गए हैं। कई हिंसक चरित्र उनके आदर्श बन रहे हैं।
बच्चों में पनप रही इस हिंसा के मूल में वैश्विक संस्कृति से जुड़ी एक गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। इस पीढ़ी में सफलता पाने की तीव्र इच्छा तो है, लेकिन असफल होने का धैर्य और संयम उनमें कमजोर पड़ रहा है। जिस कारण जीवन में असफलता का भय उन्हें हिंसक बना रहा है।
बच्चों में आज साहसिक वैश्विक होड़ तो दिखाई पड़ती है, मगर ज्ञान और विवेक के तालमेल के अभाव में उनमें अदृश्य हिंसा का बीजारोपण भी तेजी से हो रहा है।
समाजशास्त्रीय विश्लेषण बताते हैं कि संयुक्त परिवारों के टूटने से बच्चों का अकेलापन, मानसिक तनाव, व्यक्तिगत पहचान खो जाने के डर जैसे मामलों को एकल परिवार भी नहीं सुलझा पा रहे हैं।
बच्चों का अधिकांश वक्त संचार माध्यमों अथवा सोशल मीडिया के संपर्क में रहने के कारण भी वे हिंसा के शिकार हो रहें हैं। अवसर आते ही बच्चों में यह दमित हिंसा कभी-कभी अपना रौद्र रूप धारण कर लेती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में हर वर्ष तकरीबन डेढ़ करोड़ लोग हिंसा की भेंट चढ़ जाते हैं। इनमें बच्चों और युवाओं की सहभागिता अधिक है।
स्नेह के अभाव में बच्चे संवेदनाशून्य बनकर हिंसा की ओर बढ़ते चले गए
इस रिपोर्ट का आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि हिंसा में शामिल इन बाल एवं युवाओं में अधिकांश ऐसे थे जो अपने परिवारों में प्रत्यक्ष समाजीकरण से वंचित रह गए थे। इसका दुष्परिणाम यह रहा कि प्रेम, वात्सल्य और स्नेह के अभाव में बच्चे संवेदनाशून्य बनकर हिंसा से जुड़े लक्ष्यों की ओर बढ़ते चले गए।
देखने में आ रहा है कि परिवारों में बच्चों से भावनात्मक रिश्ते छिन रहे हैं। एक बड़ी संख्या में माता-पिता को आर्थिक दबाव, कारोबार और भौतिकता से ही फुर्सत नहीं है। बच्चों को भौतिकतावादी सुविधाएं देकर आज वे अपनी सामाजिक भूमिका की इतिश्री समझ रहे हैं। लिहाजा बच्चे या तो घर की चहारदीवारी मे बंद होकर तकनीक के खिलौने से खेलते हैं या फिर कंप्यूटर एवं वीडियो के पर्दे पर किसी चरित्र को मारने का आनंद उठाते हैं। इन काल्पनिक चरित्रों को मार-मार कर पले-बढ़े बच्चे कई बार वास्तविक जीवन में भी ऐसा करने से नहीं चूकते। नगरों और महानगरों के विद्यालयों में अध्ययनरत इन हिंसक छात्रों में भी ऐसा मनोविज्ञान कार्य कर रहा है।
बच्चे संयम, सहनशीलता, चरित्र और अहिंसा के महत्व को खोते जा रहे हैं
आज बच्चे जिस हिंसा का प्रयोग अपने दोस्तों और सहपाठियों पर कर रहे हैं वह निश्चित ही उनकी कमजोर होती सहनशक्ति का परिचायक है। परिवार, शिक्षक और शिक्षा का जो त्रिपक्षीय संगम पहले व्यक्तित्व को सुरक्षा कवच प्रदान करता था, उसकी गरमाहट भी अब कम होती जा रही है। कई संचार माध्यमों ने बच्चों के कल्पनालोक और उनके यथार्थ में घालमेल करते हुए आक्रोश और हिंसा को केंद्र में लाकर लक्ष्य प्राप्ति का साधन बना दिया है। हिंसा अब बच्चों के सामान्य अनुभव का हिस्सा बनती जा रही है। संयम, सहनशीलता, चरित्र और अहिंसा जैसे मूल्य अपना महत्व खोते जा रहे हैं। लक्ष्यों की प्राप्ति में देरी उनसे बर्दाश्त नहीं हो रही है। इन बच्चों को हिंसा की गिरफ्त से बचाने के लिए आवश्यक है कि हम बच्चों के प्रति उदासीनता के भाव का देर किए बिना त्याग करें। साथ ही उनसे सघन पारिवारिक संवाद बनाते हुए उनके समक्ष श्रेष्ठ आदर्श प्रस्तुत करना समय की मांग है। साथ ही स्कूलों में शिक्षकों के रचनात्मक सहयोग एवं छात्रों के साथ उनकी सहभागिता से बच्चों में हिंसक प्रवाह को रोककर उनकी संचित ऊर्जा का सार्थक निवेश किया जा सकता है। यह सच है कि सोशल मीडिया के तेज बहाव को रोकना मुश्किल है, परंतु उससे आने वाली संक्रमित संस्कृति को परिवार, शिक्षा और शिक्षक के बीच सशक्त गठबंधन की पवित्रता आज भी बच्चों के हिंसक व्यवहार को रोकने और उनके सृजनात्मक व्यक्त्वि के निर्माण में पूर्ण सक्षम हैं। बस इन संस्थाओं को एक कदम आगे बढ़कर अपने दायित्व पूर्ति के निर्वहन करने की आवश्यकता है।