बलात्कार-मुक्त समाज हम बना तो सकते हैं, लेकिन उसकी शुरुआत कैसे और कहां से हो?
साल 1989-90 की बात होगी. उत्तर भारत के किसी कस्बाई सिनेमाघर में कोई फिल्म दिखाई जा रही थी. पर्दे पर जैसे ही शक्ति कपूर रूपी खलनायक चरित्र ने अनीता राज रूपी चरित्र का बलात्कार करना शुरू किया, तो हॉल में सीटियां बजनी शुरू हो गईं. तभी अचानक बिजली चली गई. अब जब तक जेनरेटर चलाया जाता और पर्दे पर फिर से रोशनी आती तब तक दर्शकों ने हंगामा मचाना शुरू कर दिया. और जब बिजली आई तो कहा गया कि उस सीन को दोबारा चलाया जाए.
बड़ी संख्या में उस दौर के पुरुष दर्शक बलात्कार के दृश्य बहुत पसंद करते थे. हाट-बाज़ार में यहां-वहां लगे पोस्टरों के कोनों में जान-बूझकर ऐसे दृश्य अवश्य लगाए जाते थे, जिससे लोगों को यह पता चल सके कि इस फिल्म में बलात्कार का दृश्य भी है. सिनेमाघर के ठीक बाहर के पान की दुकानों पर ये शिकायत आम रहती थी कि बलात्कार का सीन तो दिखाया गया, लेकिन कपड़े ठीक से नहीं फाड़े, कुछ ठीक से नहीं दिखाया, उतना ‘मज़ा’ नहीं आया.
हालांकि सिनेमाघर में मौजूद कुछ ऐसे दर्शक भी अवश्य होते थे, जिनकी सहानुभूति पीड़िता के चरित्र से रहती थी. यह कहना मुश्किल है कि उस दौर के फिल्मकारों ने लोगों की इस मानसिकता को अच्छी तरह समझकर इस ट्रेंड को भुनाना शुरू किया था, या कि फिल्मकारों द्वारा इस रूप में परोसे गए दृश्यों की वजह से लोगों की रुचि और मानसिकता इस प्रकार की बन गई थी.
इससे मिलती-जुलती एक घटना कुछ समय पहले देखने में आई. बिहार में एक रात्रिकालीन बस (जिन्हें आमतौर पर ‘वीडियो कोच’ कहा जाता है) में सफर करते हुए कंडक्टर ने एक ऐसी फिल्म चलाई जिसमें फिल्म का प्रौढ़ खलनायक बार-बार अलग-अलग तरीकों से अलग-अलग स्कूली बच्चियों का अपहरण और बलात्कार करता था. स्कूल यूनिफॉर्म में ही बलात्कार के दृश्यों को लंबा और वीभत्स रूप में दिखाया जा रहा था. इन पंक्तियों के लेखक ने कंडक्टर को बुलाकर कहा कि भाई, ये सब क्या चला रहे हो. इस बस में महिलाएं और बच्चे भी सफर कर रहे हैं, कम से कम उनका तो लिहाज करो. कंडक्टर अनसुना करते हुए आगे बढ़ गया. दोबारा ऊंची आवाज में कहा गया तो कंडक्टर भी भड़क गया. दाढ़ी और वेश-भूषा देखकर कहने लगा, बाबाजी ये आपके काम की चीज नहीं है, आप तो आंख बंद करके सो जाइये. लंबी बस में सबसे पिछली सीट पर बैठे लोग उस फिल्म का भरपूर आनंद लेना चाहते थे और बार-बार कंडक्टर से कह रहे थे कि वॉल्यूम बढ़ाओ. लेकिन इसके बाद चार-पांच अन्य मुसाफिरों ने भी जब उस फिल्म के दिखाने पर आपत्ति जताई और बात ड्राइवर तक जा पहुंची, तो आखिरकार फिल्म को बदल दिया गया और थोड़ी देर बाद उस वीडियो को ही पूरी तरह बंद कर दिया गया.
नब्बे के दशक के आखिर तक मध्य प्रदेश के एक छोटे जिले में इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि एक-दो ऐसे विशेष सिनेमाघर होते थे, जिनकी ख्याति ही ऐसी फिल्मों की होती थी जिनमें बलात्कार इत्यादि के कई दृश्य फिल्माए गए होते थे. प्रचलित शब्दावली में जिन्हें ‘बी ग्रेड’ या ‘सी ग्रेड’ कहा जाता था, ऐसी फिल्में ही उनमें दिखाई जाती थीं. नेपाल सीमा से सटे उत्तर प्रदेश के एक जिले के किसी ब्लॉक में हाल तक ऐसा एक विशेष सिनेमाघर देखने को मिला. यह बात वहां शो के इंतजार में खड़े दर्शकों से पूछने पर पता चली. ज्यादातर दर्शक नवयुवक और यहां तक कि किशोर उम्र के ही थे. घोषित रूप से मॉर्निंग शो में चलने वाली एडल्ट फिल्मों के अशोभनीय और वीभत्स पोस्टर दिल्ली के कनॉट प्लेस से लेकर पटना जैसी राजधानियों के लगभग हर सार्वजनिक स्थल परसटे हुए हम सबने देखे ही होंगे.
इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य सिनेमा रूपी माध्यम को या समाज के किसी खास वर्ग को कोसना या उनका नकारात्मक चित्रण करना नहीं है. क्योंकि आज हम उस दौर से बहुत आगे बढ़ चुके हैं. इंटरनेट क्रांति और स्मार्टफोन की सर्वसुलभता ने पोर्न या वीभत्स यौन-चित्रण को सबके पास आसानी से पहुंचा दिया है. कल तक इसका उपभोक्ता केवल समाज का उच्च मध्य-वर्ग या मध्य-वर्ग ही हो सकता था, लेकिन आज यह समाज के हर वर्ग के लिए सुलभ हो चुका है. सबके हाथ में है और लगभग फ्री है. कीवर्ड लिखने तक की जरूरत नहीं, आप मुंह से बोलकर गूगल को आदेश दे सकते हैं. इसलिए इस परिघटना पर विचार करना किसी खास वर्ग या क्षेत्र के लोगों के बजाय हम सबकी आदिम प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास है. तकनीकें और माध्यम बदलते रहते हैं, लेकिन हमारी प्रवृत्तियां कायम रहती हैं या स्वयं को नए माध्यमों के अनुरूप ढाल लेती हैं.
इसे ऐसे समझें कि कभी फुटपाथ पर बिकने वाले अश्लील साहित्य से लेकर टीवी-वीसीआर-वीसीडी और सिनेमा के रास्ते आज हम यू-ट्यूब तक पहुंच चुके हैं. लेकिन एक समाज के रूप में हमारी यौन-प्रवृत्तियां बद से बदतर होती गई हैं. उदाहरण के लिए, यदि हम यू-ट्यूब पर अंग्रेजी में ‘रेप सीन’ लिखकर सर्च करें तो 21 लाख परिणाम आते हैं. इसका मतलब है कि लोग आज भी फिल्मों के उस विशेष हिस्से को बार-बार देखना-दिखाना चाहते हैं जिनमें बलात्कार को फिल्माया गया होता है. और यह भी कि बलात्कार के ऐसे दृश्य देखकर हममें करुणा, सहानुभूति या आक्रोश की भावना पैदा नहीं होती, बल्कि ये दृश्य मनोरंजन और यहां तक कि हमारी काल्पनिक यौन-इच्छाओं को संतुष्ट करने का साधन बनते हैं.
इसका एक प्रमाण यह भी है कि यू-ट्यूब की तर्ज पर ही एक समानांतर ‘रेप-ट्यूब’ का अस्तित्व में होना भी देखा गया है, जिसपर बलात्कार से संबंधित पोर्न वीडियोज़ डाले जाते हैं. इसलिए बलात्कार के समय बलात्कारियों द्वारा घटना का वीडियो बनाना केवल ब्लैकमेल के उद्देश्य से नहीं होता होगा, बल्कि उसे ऐसी साइटों पर प्रदर्शित करने का उद्देश्य भी रहता होगा.
बहुत अरसा नहीं हुआ जब कठुआ की आठ-वर्षीय बच्ची आसिफा के साथ हुआ जघन्य अमानवीय कृत्य भारत में पोर्न-साइटों पर पहले स्थान पर ट्रेंड कर रहा था. वहीं बीते साल मई की बात है जब कानपुर में चार नाबालिग लड़कों ने कथित रूप से छह साल की एक बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार किया था. और रिपोर्टों के मुताबिक आरोपितों ने पोर्न वीडियो देखते हुए घटना को अंजाम दिया था. यह सिलसिला आज हैदराबाद और उन्नाव मामले तक आ पहुंचा है.
साल 2006 में जापान में एक वीडियो गेम रिलीज़ किया गया जिसका नाम था ‘रेपले’. इस गेम में दिखाया गया कि किस तरह एक युवक बारी-बारी से एक मां और उनकी दो बेटियों का पहले तो जगह-जगह पीछा करता है और फिर अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तरीकों से उनके साथ बलात्कार करता है. हमें यह जानकर आश्चर्य हो, लेकिन इस गेम को साल 2009 तक अमेज़न डॉट कॉम पर भी खरीदा जा सकता था. इसके बाद कुछ लोगों के विरोध के चलते इसे कई देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया. जबकि कई लोगों ने इस गेम के समर्थन या बचाव में भी लेख लिखे. दलील यह दी गई कि जब हत्या जैसे अपराध के बारे में गेम बनाए जाते हैं, तो बलात्कार के ऊपर क्यों नहीं? कहा जा रहा है कि इसी तरह के अन्य कई रेप गेम अभी भी किशोरों और युवाओं के लिए सुलभ हैं और उनके बीच लोकप्रिय हैं.
हालांकि यह आसानी से समझ में आने वाली बात है कि जिन चीजों को हम बार-बार देखते हैं या जिन बातों के बारे में हम बार-बार सोचते हैं, वे हमारे मन, वचन और कर्म पर कुछ न कुछ प्रभाव तो अवश्य ही छोड़ते हैं. प्राचीन मनीषियों ने अपनी दैहिक और आध्यात्मिक साधना से भी इसे अनुभूत और प्रमाणित किया था. संतों की वाणियों में अक्सर हमें ये बातें सुनने को मिलती हैं.
आधुनिक युग में मनोवैज्ञानिकों ने भी अपने अध्ययन में पाया है कि हमारे दिमाग की बनावट इस तरह की है कि बार-बार पढ़े, देखे, सुने या किए जाने वाले कार्यों और बातों का असर हमारी चिंतनधारा पर होता ही है और यह हमारे निर्णयों और कार्यों का स्वरूप भी तय करता है. इसलिए पोर्न या सिनेमा और अन्य डिजिटल माध्यमों से परोसे जाने वाले सॉफ्ट पोर्न का असर हमारे दिमाग पर होता ही है और यह हमें यौन-हिंसा के लिए मानसिक रूप से तैयार और प्रेरित करता है. इसलिए अभिव्यक्ति या रचनात्मकता की नैसर्गिक स्वतंत्रता की आड़ में पंजाबी पॉप गानों से लेकर फिल्मी ‘आइटम सॉन्ग’ और भोजपुरी सहित तमाम भारतीय भाषाओं में परोसे जा रहे स्त्री-विरोधी, यौन-हिंसा को उकसाने वाले और महिलाओं का वस्तुकरण करने वाले गानों की वकालत करने से पहले हमें थोड़ा सोचना होगा.
अमेरिकी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता रॉबिन मॉर्गन ने 1974 में लिखे अपने प्रसिद्ध लेख ‘थ्योरी एंड प्रैक्टिस : पोर्नोग्राफी एंड रेप’ में लिखा था कि पोर्नोग्राफी उस सिद्धांत की तरह काम करता है, जिसे व्यावहारिक रूप से बलात्कार के रूप में अंजाम दिया जाता है. उसके बाद से अब तक इसके पक्ष और विपक्ष में शोध और दलीलें प्रस्तुत की जाती रही हैं.
एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिकी ‘फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन’ ने अपने आपराधिक आंकड़ों के विश्लेषण में पाया है कि यौन हिंसा के 80% मामलों में वहां पोर्न की मौजूदगी देखी गई है. टेड बंडी नाम के एक अमरीकी सीरियल किलर ने 30 से अधिक महिलाओं और लड़कियों का वीभत्स तरीके से बलात्कार और फिर उनकी हत्या की थी. जनवरी 1989 में मौत की सजा से एक दिन पहले दिए गए अपने विस्तृत साक्षात्कार में बंडी ने कहा था कि यदि उसे पोर्न देखने की आदत नहीं पड़ी होती, तो उसने इतने हिंसक यौन-अपराध नहीं किए होते. हालांकि बंडी की इस स्वीकारोक्ति के बाद भी पोर्न समर्थकों द्वारा बंडी और उसके साक्षात्कारकर्ता की मंशा का हवाला देते हुए इस तथ्य की अनदेखी करने की कोशिशें हुईं. बंडी के साक्षात्कार का वह वीडियो भी यू-ट्यूब पर उपलब्ध है.
आजकल उच्च-मध्य वर्ग के एक छोटे से हिस्से में ‘बीडीएसएम’ आधारित यौनाचार तेजी से लोकप्रिय हो रहा है. बीडीएसएम यानी बॉन्डेज (दासता), डिसिप्लिन (अनुशासन), डॉमिनेंस एंड सबमिशन (प्रभुत्व और समर्पण) और सैडोमैसकिज़्म (दर्द देकर खुशी पाने संबंधी यौनाचार). मनोवैज्ञानिकों ने इस प्रकार के यौनाचार को मनोविकार की श्रेणी में ही रखा है और कई नारी-अधिकारवादी अध्येताओं ने बलात्कारी मानसिकता के साथ भी इसे जोड़ा है. जो भी हो, इस प्रकार का यौनाचार मनुष्य की यौन-प्रवृत्तियों को समझने की एक कुंजी भी प्रदान करता है और हिंसा (भले ही बीडीएसएम के मामलों में यह केवल प्रतीकात्मक हो और सहमति से की गई हो) के साथ इसके संबंधों को भी उजागर करता है. जबकि कई लोग बीडीएसएम के पक्ष में यह तर्क भी देते पाए जाते हैं कि यह बलात्कार पीड़िताओं को मानसिक आघात से उबारने में मददगार होता है.
1994 में कनाडा के चार मनोचिकित्सकों (मार्नी राइस, टेरी चैप्लिन, ग्रांट हैरिस और जोआन काउट्स) ने 14 बलात्कारियों और 14 सामान्य पुरुषों पर एक प्रयोग किया. इन सबको बलात्कार और सहमति से यौन-संबंधों से जुड़ी घटनाओं का वर्णन ऑडियो के रूप में सुनाया गया. और फिर एक फैल्लोमेट्रिक टेस्ट के जरिए यह देखा गया कि ऐसे वर्णनों को सुनकर किसके लिंग में उत्तेजना आती है और किसके नहीं. बलात्कारों का वर्णन महिलाओं और पुरुषों दोनों के नज़रिए से किया गया था. इस प्रयोग में यह पाया गया कि जो वास्तव में सजायाफ्ता बलात्कारी थे, उनके हृदय में पीड़िताओं के प्रति बिल्कुल भी समानुभूति या इम्पैथी नहीं आई, बल्कि उनके लिंगों में यौन-उत्तेजना ही पाई गई. यह भी देखा गया कि बलात्कारियों ने सहमति से यौन-संबंधों के बजाय बलात्कार की घटनाओं के वर्णन को ज्यादा पसंद किया था.
शक्ति कपूर या गुलशन ग्रोवर को फिल्मी परदे पर बलात्कार करते देखते हुए यौन-उत्तेजना के शिकार होकर आनंदित होनेवाले दौर के लोग आज स्वयं बेटियों के पिता होंगे और अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर सचमुच चिंतित होंगे. तो क्या यह कहा जा सकता है कि इनमें से कई पिता अपनी खुद की पत्नी या बेटियों को लेकर भले ही चिंतित हों, लेकिन यह जरूरी नहीं कि अन्य महिलाओं या लड़कियों के प्रति भी उनकी संवेदना या समानुभूति वैसी ही हो. यानी हममें से बड़ी संख्या में ऐसे पुरुष हो सकते हैं जिन्होंने अपने लड़कपन के दौर से आगे बढ़ते हुए महिलाओं या मनुष्यमात्र के प्रति सच्ची संवेदना विकसित कर ली हो. लेकिन हममें से ही बड़ी संख्या में ऐसे पुरुष भी हो सकते हैं, जो संभावित बलात्कारी हों और ऐसा अवसर आने पर ऐसी हिंसा को अंजाम दे दें. यही एक बात है जो हमें समझनी है.
दुनिया की कोई भी सरकार पोर्न, साहित्य और सिनेमा को बैन करने में न तो पूरी तरह सफल हो सकती है, और न ही बैन या सेंसरशिप इसका वास्तविक समाधान है. यह एक सभ्यतामूलक चुनौती है. यह पीढ़ी दर पीढ़ी जीवन में मानवीय मूल्यों के समावेश का उपक्रम है. अहिंसा, करुणा, समानुभूति और मनुष्यमात्र की गरिमा के प्रति सम्मान की भावना भरने का एक प्रबोधनात्मक सामाजिक परियोजना है. यह पोर्न और कुस्वादु या अपच सॉफ्ट-पोर्न सहित हर उस प्रचलित परिघटना को अप्रासंगिक और अनुपयोगी साबित कर देने की परियोजना है, जो हमारी समानुभूति, अहिंसा और साथी-मनुष्य के प्रति संवेदना को प्रायः समाप्त कर देता है.
आज यदि हम बलात्कार के आरोपितों की प्रोफाइलिंग करें तो पाएंगे कि इनमें केवल गुंडे और असामाजिक तत्व ही शामिल नहीं हैं. संत नामधारी बाबा, पुलिसकर्मी, वकील, जज, मंत्री, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, उच्चाधिकारी, नामी-गिरामी और लोकप्रिय फिल्म अभिनेता और निर्देशक, सामाजिक कार्यकर्ता और नामचीन पत्रकार तक ऐसी यौन-हिंसा के आरोपित और सजायाफ्ता रहे हैं. निकट के परिजन, दोस्त, प्रेमी और जानकार से लेकर पिता, भाई और पति तक ऐसी हिंसा में लिप्त पाए गए हैं. ऐसे में क्या कहा जाए? क्या यह किसी खास आय वर्ग, आयु वर्ग, पेशा, क्षेत्र या शिक्षित-अशिक्षित होने तक सीमित है? नहीं. इसलिए इसे एक सभ्यतामूलक समस्या मानना ही ठीक रहेगा. तभी हम इसके समाधान की ओर सही दिशा में बढ़ पाएंगे.
बलात्कार जैसी हिंसा यदि ज्यादातर हमारी यौनिकता से प्रेरित है, तो इसे बिल्कुल जीव-वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझने-समझाने की जरूरत होगी. यौन इच्छा, यौन संपर्क और प्रजनन की प्रक्रिया को जब बिल्कुल वैज्ञानिक तरीके समझने का प्रयास होगा, तभी उसकी रहस्यात्मकता, कौतूहलता और उससे जुड़ी आक्रामकता का शमन हो सकेगा.
यौन संबंधी हमारी ग्रंथियां, हमारे हार्मोन किस तरह काम करते हैं इसे ठीक से समझने-समझाने की जरूरत होगी. इसके अलावा इसे मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी इस रूप में समझने-समझाने की जरूरत होगी कि किस सीमा को छूने या पार करने के बाद यह मनोरोग की श्रेणी में आ जाता है, जिसका उपचार किया जाना चाहिए.
यौन-विकृतियों से जुड़े क्षणिक मनोविकारों को आत्मानुशासन, आत्मनियंत्रण, मानसिक दृढ़ता, ध्यान या प्राणायाम के लगातार अभ्यास से किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है, उसे भी बिना किसी पूर्वाग्रह के सीखना-सिखाना होगा. जीवन-शैली और दिनचर्या को भी समझने की जरूरत हो सकती है. हम और हमारे बच्चे क्या पढ़ते हैं, क्या देखते-सुनते हैं, क्या हम और हमारे बच्चे किसी व्यसन का शिकार तो नहीं हैं, हमारे घर और आस-पास का वातावरण हमने कैसा बनाया हुआ है, इस सबके प्रति सचेत रहना होगा. इंटरनेट और सोशल मीडिया इत्यादि का विवेकपूर्ण और सुरक्षित ढंग से उपयोग सीखना और सिखाना भी इसी निजी सतर्कता का हिस्सा है.
गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और माता-पिता के होते हुए भी लावारिसी से भरे एक देश में क्या यह सब कर पाना संभव है? एकदम संभव है. और इसके लिए केवल सरकारों की ओर देखना सही नहीं है. कुछ काम सरकारें भी करेंगी. जैसे कानून-व्यवस्था, न्यायिक प्रक्रिया, जन-जागरूकता और शैक्षणिक प्रयास. लेकिन असल काम परिवार, समुदाय, नागरिक समाज और विद्यालयों के स्तर पर ही होना है. जो भी साधन और साधनाएं हमारे पास उपलब्ध हैं उन सबका इष्टतम उपयोग हो. समाजीकरण, मूल्यपरक शिक्षा और प्रबोधन की प्रत्यक्ष प्रक्रिया से जो बाहर हैं, उन्हें इसमें शामिल किया जाए.
यौनकेंद्रिकता से इतर बलात्कार को पितृसत्ता या समाज में पुरुषों के प्रभुत्व, आधिपत्य या वर्चस्व की मानसिकता आदि से भी जोड़कर देखा जाता है. लेकिन ऐसा देखा गया है कि बलात्कार के शिकार पुरुष भी शर्म के मारे आत्महत्या कर लेते हैं. यानी हमारा पुरुषोचित अहंकार भी बहुत भुरभुरा है, नकली है. इसलिए गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि यह खोखला पुरुषोचित अहंकार भी वास्तव में समानुभूति, अहिंसा और साथी मनुष्य की मानवीय गरिमा के प्रति संवेदनशीलता का अभाव ही है. समानुभूति यानी दूसरे को कैसा महसूस होता है इसे खुद को उसके स्थान पर रखकर समझना. जैसे बलात्कारी को यदि यह होश आ जाए कि पीड़िता की जगह मैं खुद हूं और कोई अन्य मेरे साथ यही कर रहा है, तो उसे कैसा महसूस होगा. इतना न हो पाए, तो यदि वह पीड़िता के स्थान पर उस स्त्री को रखकर सोचे जो संसार में उसे सबसे अधिक प्रिय है, जैसे अपनी दादी-नानी, मां, बहन, पत्नी, बेटी, मित्र, प्रेमिका या शिक्षिका, जो भी स्त्री चरित्र उसे सबसे अधिक प्रिय हो, उसकी कल्पना करे, तो भी उसमें समानुभूति जाग सकती है, करुणा जाग सकती है.
यह समानुभूति का अभाव ही तो है कि बलात्कार पीड़िता या सर्वाइवर के प्रति बाद में भी डॉक्टर, पुलिस, वकील और न्यायिक अधिकारियों तक का रवैया इतना संवेदनहीन होता है कि कई महिलाएं मुकदमा वापस ले लेती हैं और कई तो रिपोर्ट तक नहीं करती हैं. किशोर न्याय परिषद् (नाबालिगों के कोर्ट) से जुड़ीं एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि पिता और दादा की उम्र तक के वकील पीड़ित बच्चियों से ऐसे घृणित सवाल इतने संवेदनहीन तरीके से पूछते हैं कि ज्यादातर बच्चियों को बलात्कार से भी अधिक सदमें से कई-कई बार गुजरना पड़ता है. जबकि इस बारे में तय नियम और दिशा-निर्देश भी मौजूद हैं, लेकिन उनका पालन शायद ही भारत के किसी थाने या न्यायालय में होता होगा. इसलिए फांसी देने या नपुंसक बना देने से इसे रोकना असंभव है. त्वरित न्यायबोध और पीड़ितों की संतुष्टि के लिए ऐसे दंडात्मक प्रयास भी चलें. लेकिन यह वास्तविक समाधान नहीं होगा. जबकि समानुभूति सीखने-सिखाने और पैदा करने का रास्ता बहुत मुश्किल और लंबा जरूर है, लेकिन असंभव नहीं